वर्ष
भर प्रतिदिन किसी न किसी दिवस के आयोजन के कारण जनमानस का ध्यान भी अब राष्ट्रीय,
अंतर्राष्ट्रीय दिवसों के आयोजनों से हटने लगा है. इसी दिसम्बर माह के आरम्भिक
तीनों दिन किसी न किसी दिवस के आयोजन हेतु रहे. ये किस्सा पूरे साल बना रहता है. जनमानस
समाचारों में, बैनरों में, होर्डिंग्स में इन दिवसों के बारे में जान-समझकर अपने
आपको उसी क्षण उस दिवस से जोड़ता है और अगले ही पल उसे विस्मृत कर देता है. ऐसे में
किसी गंभीर आयोजन का भी हाल सामान्य सा रह जाता है. उस दिन विशेष का आयोजन किस
कारण किया जाना है, उसके आयोजन का उद्देश्य क्या है, उसका सुफल क्या प्राप्त हुआ
इस पर फिर किसी का ध्यान नहीं रहता है. ऐसा ही कुछ उन दिवसों के बारे में देखने को
मिल रहा है जिनके आयोजन की महती आवश्यकता है. समाज को उनके बारे में जागरूक करने
की अत्यधिक आवश्यकता है. ऐसे ही महत्त्वपूर्ण दिवसों में एक दिवस अंतर्राष्ट्रीय
दिव्यांग दिवस भी शामिल है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से देश में अब
विकलांग के स्थान पर दिव्यांग शब्द प्रयोग होने लगा है किन्तु उनके साथ
कार्य-व्यवहार में अभी भी स्थिति बदली नहीं है.
दिव्यांग
शब्द अब सरकारी कार्यों में, आम बोलचाल में दिखाई देने लगा है किन्तु आम जनमानस में
अभी भी एक तरह की सुसुप्तावस्था देखने को मिलती है. जनमानस को लगता है जैसे कि
किसी दिव्यांग के प्रति एकमात्र सहानुभूति दर्शाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की
जा सकती है. मदद के नाम पर चंद सिक्के, दो शब्द ही दिखाई देते हैं. ऐसा इसलिए भी
समझ आता है क्योंकि अभी भी समाज में आम धारणा बनी हुई है कि दिव्यांगों अथवा किसी
अन्य जरूरतमंद के लिए कार्य करने जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ सरकार की है. ऐसा
इसलिए भी और है क्योंकि सरकारी कार्यक्रमों में जनमानस की भागीदारी उतनी तीव्रता
से नहीं करवाई जाती है जितनी कि जनप्रतिनिधियों की होती है, सत्ताधारी दल के
छोटे-बड़े पदाधिकारियों की होती है, समाज के प्रतिष्ठित लोगों की होती है. सरकारी
आयोजनों में ऐसे लोग ही सम्मान हासिल करते देखे जाते हैं और भीड़-दर्शकों के नाम पर
या तो लाभान्वित होते हैं या फिर सरकारी कार्यालयों के कर्मचारी. यहाँ आम नागरिक
लगभग विलुप्त सा होता है. ऐसे में किसी दिवस के आयोजन को लेकर समाज में, आम
नागरिकों में जागरूकता देखने को नहीं मिलती है. कमोबेश ऐसी स्थिति दिव्यांग दिवस
को लेकर भी है. समाज के बहुसंख्यक लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं कि तीन दिसम्बर
को इस तरह का कोई दिवस आयोजित भी किया जाता है.
बाकी
किसी और दिवस के आयोजन के बारे में तो नहीं कहा जा सकता किन्तु दिव्यांग दिवस के
आयोजन में आम नागरिकों की सहभागिता अधिक से अधिक होनी चाहिए. इससे एक तो नागरिकों
को भी ऐसे आयोजनों से जुड़ने का अनुभव होगा, दूसरे समाज के लोगों को अपने बीच के
लोगों की समस्याओं के बारे माँ जानने-समझने का अवसर मिलेगा. दिव्यांगजनों की
समस्या आर्थिक सशक्तिकरण की उतनी नहीं है जितनी कि सामाजिक स्वीकार्यता की है, उनके
विश्वास को बनाये रखने की है, उनका हौसला बढ़ाये रखने की है. दिव्यांगजन अपनी
मेहनत, अपनी जिजीविषा, अपने हौसले, अपने विश्वास से स्वयं को समाज में बनाये हुए
हैं, उन्हें बस यही एहसास करवाए जाने की आवश्यकता है कि वे इसी समाज का अंग हैं,
इसी समाज के नागरिक हैं, वे हाशिये पर नहीं हैं, वे दोयम दर्जे के नहीं हैं. ऐसा
समझा-समझाया जाना तभी संभव है जबकि समाज का एक-एक व्यक्ति दिव्यांगों को नागरिक ही
समझे. उसकी दिव्यांगता किसी कारणवश उत्पन्न हुई हो सकती है, उसकी दिव्यांगता
जन्मजात हो सकती है मगर इस कारण से उसे नकारात्मकता से गुजरना पड़े, यह सुखद नहीं.
व्यक्तिगत
अनुभव से एहसास हुआ है कि अभी भी समाज में दिव्यांगों के प्रति सहानुभूति का, दया
का भाव बना हुआ है. शिक्षित, समर्थ, योग्य दिव्यांग व्यक्ति के लिए भी समाज इसी
तरह की धारणा बनाये हुए है. छोटे से छोटे, बड़े से बड़े कार्य के लिए सामाजिक प्राणी
उसके साथ ऐसे व्यवहार करता है जैसे वह दिव्यांग सम्बंधित कार्य को करने में अक्षम
है. जबकि ऐसा नहीं है. वर्तमान में अनेकानेक वास्तविक कहानियाँ हमारे आसपास
दिव्यांगजनों के हौसले को चित्रित करती दिखाई दे रही हैं. बहुतायत में ऐसे
दिव्यांगजन ऐसे हैं जिन्होंने अपनी मेहनत, अपनी कर्मठता, अपनी जिजीविषा से असंभव
को संभव कर दिया है. ऐसे में यदि सरकारी अथवा गैर-सरकारी आयोजनों को किया जाता है
तो उसमें महज औपचारिकता का निर्वहन न किया जाये बल्कि उसको महत्ता देते हुए आम नागरिकों
के बीच स्थापित किया जाये. अभी भी बराबर महसूस होता है कि दिव्यांगों के प्रति
सामाजिक सोच में बदलाव आने में दशकों लगेंगे.
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वैसे इस वर्ष 2018 की थीम विकलांग व्यक्तियों को सशक्त बनाओ तथा उनके समावेश और समानता को सुनिश्चित करो (इम्पावरिंग पर्सन विथ डिसएबिलिटीज एंड इनश्योरिंग इनक्लूजीवनेस एंड इक्वालिटी) है.
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