23 जून 2013

जिज्ञासा जगाता है गाँधी का ब्रह्मचर्य प्रयोग



मनुबेन की डायरी से मोहनदास करमचंद गाँधी नामक व्यक्ति, जिसे देश ने महात्मा, बापू, राष्ट्रपिता जैसे सम्मानीय संबोधनों से पुकारा, के ब्रह्मचर्य के प्रयोग की सत्यता प्रकट हुई. जितना कुछ मीडिया के माध्यम से सामने आया है उसमें कुछ नया नहीं है, पहले भी इस सम्बन्ध में कई तरह के विचार सामने आकर विवाद की स्थिति पैदा करते रहे हैं. आज विचारधाराओं के साथ द्वंद्व की स्थिति भले ही बनी रहती हो पर तकनीकी के दौर में, ज्ञान-विज्ञान के इस युग में किसी भी बात को तथ्यहीन रूप में स्वीकार लेना सहज नहीं रह गया है. ये बात सभी जानते हैं कि चाहे विज्ञान हो अथवा कला, सभी में प्रयोगों के लिए कुछ आधारभूत नियम हैं, संकल्पनाएँ हैं, बिना इनके किसी भी प्रयोग की सम्भावना नहीं बनती है. गाँधी जी ने भी इस प्रयोग का आरम्भ किया होगा तो कोई न कोई संकल्पना, कोई न कोई अवधारणा उनके मन में भी रही होगी या फिर ये नितांत मनोवैज्ञानिक बीमारी ही थी. यदि उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग को केवल प्रयोग मानकर ही देखा जाये तो भी निम्न जिज्ञासाएं मन में उठती हैं, जिनका निदान आवश्यक है. 
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१-कोई भी प्रयोग उस स्थिति में आरम्भ किया जाता है जबकि उसकी कोई न कोई समस्या होती है. उसी समस्या के निस्तारण के लिए प्रयोग आगे बढ़ाया जाता है. गाँधी जी के सामने ऐसी कौन सी समस्या आई कि उन्हें ब्रह्मचर्य के प्रयोग को करने की आवश्यकता पड़ी?
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२-गाँधी जी ने अपने इस प्रयोग के लिए कौन-कौन सी परिकल्पनाओं (हायपोथेसिस) का निर्माण किया था. प्रयोग चाहे विज्ञान के क्षेत्र में हों या कला के क्षेत्र में, सभी में परिकल्पनाओं की जरूरत होती है. और यदि उनके द्वारा परिकल्पनाओं का निर्माण किया गया तो उन परिकल्पना/परिकल्पनाओं का परिणाम क्या हुआ? वे सार्थक निकली या नहीं?
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३- अब जबकि प्रयोग किया गया और लगातार किया गया तो उसका कोई न कोई परिणाम आया ही होगा. आखिर सभी प्रयोग कोई न कोई परिणाम देते ही देते हैं, भले ही वे नकारात्मक हों  या सकारात्मक. ऐसे में सवाल ये उठता है कि गाँधी जी के इस प्रयोग का परिणाम क्या निकला? इसके अलावा आखिर गाँधी जी ने इस प्रयोग से (भले ही वो असफल रहा हो या सफल) क्या निष्कर्ष निकाले
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४- जैसा कि सभी प्रयोगों में होता है कि उसके लिए कोई न कोई सीमांकन किया जाता है. क्या गाँधी जी ने अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग की कोई सीमा निर्धारित कर रखी थी? किस उम्र की महिलाओं के साथ ये प्रयोग किया जाना है; किस महिला के साथ कितने दिन/रात प्रयोग करना है; प्रयोग में सिर्फ नग्न लेटना/नहाना ही था या कोई और शारीरिक क्रिया की जाती थी आदि. गाँधी जी ने अपने प्रयोग के लिए जिन महिलाओं का इस्तेमाल किया, उनका क्या हुआ? आखिर वे कोई बेजान वस्तु नहीं वरन जीती-जागती इन्सान थी, उनमें भी संवेदनाएं थी, इच्छाएं थी.
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५- १९०६ में ब्रह्मचर्य का व्रत लेने वाले गाँधी जी ने अपने प्रयोग के लिए अपनी वृद्धावस्था का इंतज़ार क्यों किया? जैसा कि गांधी जी का मानना था कि युवतियों के साथ सोना ब्रह्मचर्य के विस्तार का अगला चरण है. वह इससे खुद को नियंत्रित करने का अभ्यास करते हैं. इससे क्या ये अर्थ लगाया जाये कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद भी उनकी यौनेच्छा कम नहीं हुई और वे अपनी इच्छा को प्रयोग के रूप में तुष्ट करने लगे. यहाँ ये कहने का आशय कतई नहीं है कि गाँधी जी इस अवस्था में व्याभिचार की तरफ मुड़ रहे थे पर प्रयोग करने की उनकी अवस्था अवश्य ही तमाम सारे सवालों को जन्म देती है क्योंकि युवावस्था में यह प्रयोग उनके नियंत्रण को और बेहतर तरीके प्रदर्शित कर सकता था.
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६- आज़ादी की लड़ाई में गाँधी जी के योगदान को कमतर नहीं आँका जा सकता. उनके सत्य, अहिंसा, प्रेम, सत्याग्रह का कोई न कोई औचित्य रहा है. उनका लाभ समाज को मिला है. ऐसे में ये जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि आखिर गाँधी जी के इस प्रयोग का औचित्य क्या था? समाज को इसका क्या लाभ मिलना था अथवा क्या लाभ मिला? आखिर गाँधी जी इस ब्रह्मचर्य के प्रयोग के माध्यम से तत्कालीन युवाओं को, वृद्धों को, महिलाओं को क्या सन्देश देना चाहते थे और आज के लोगों को उनके इस प्रयोग से क्या सीखना चाहिए?
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ये अपने आपमें विचारणीय है कि सन १९०६ में बिना अपनी पत्नी की सहमति के ब्रह्मचर्य की शुरुआत करने वाले महात्मा को आखिर इस तरह के प्रयोग की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? क्यों अपने आश्रम की कई महिलाओं, अपनी सहयोगी महिलाओं के साथ उनकी निर्वस्त्र अवस्था में, यहाँ तक कि अपनी नातिन के साथ निर्वस्त्र होकर सोते थे? उनके आश्रम के कड़े नियम कायदों के अनुसार उन युवतियों को अपने पति के साथ सोने की इजाजत नहीं थी. वे युवतियां न केवल गांधी के साथ नग्नावस्था में सोती थीं बल्कि उनके साथ नहाती भी थीं. इतना ही नहीं, वे उनके सामने ही अपने कपड़े उतारती थीं क्योंकि मोहमाया से मुक्त जीवन का रास्‍ता यहीं से जाता है. एक पल को महात्मा गाँधी के इस प्रयोग में उनकी आध्यात्मिकता को स्वीकार कर लिया जाए और उनके चरित्र पर बिना किसी तरह की ऊँगली उठाये ब्रह्मचर्य प्रयोग पर ही विचार किया जाए तब भी इस प्रयोग के औचित्य तथा उसकी प्रासंगिकता पर, गाँधी जी की मानसिकता पर, उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति पर भी सवाल खड़े होते हैं. सिर्फ इस कारण से कि वे विश्व के महान व्यक्तियों की श्रेणी में शामिल होते हैं, उनके किसी भी कदम को सहज रूप में स्वीकार लेना घनघोर अंध-भक्ति ही कही जाएगी. 
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