ऐसा लग रहा है जैसे हमारे
देश में प्राकृतिक आपदा पहली बार आई हो. सभी चिंतातुर हैं, मीडिया से लेकर
समाजसेवी तक, राजनेता से लेकर आम आदमी तक किन्तु कुछ सीखेंगे नहीं. जिस-जिस के हाथ
में कैमरा है, जिस-जिस के पास इंटरनेट है, जिस-जिस के सामने टीवी खुला हुआ है वो ‘सबसे
पहले हमने’ की तर्ज़ पर विनाशकारी मंज़र की फोटो चिपकाने में लगा हुआ है. हम
भारतवासी लगभग प्रतिवर्ष इसी तरह की विभीषिका से दो-चार होते रहते हैं, इसके बाद
भी ‘जैसे कुछ हुआ ही न हो’ के अंदाज़ में प्रकृति से खिलवाड़ करने लगते हैं. आज ऐसा
लग रहा है जैसे बाढ़ का आना कोई विभीषिका नहीं, कोई पर्व हो गया हो. ऐसे विनाशकारी
हालात में भी बहुत से लोग हैं जो मानवता को छोड़ व्यापार को, अपने लाभ को ज्यादा
महत्त्व देने में लगे हैं. (समाचारों के द्वारा ज्ञात हुआ कि स्वार्थपरक लोग विपदा
में फंसे लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर अधिक मूल्य पर सामान उपलब्ध करवा रहे हैं)
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कुछ दिनों सभी का
केंद्रबिंदु बना रहेगा ये तबाही का मंज़र, कोई लाशों की चर्चा करेगा, किसी के पास
नेताओं की बुराई की बातें होंगी, कोई वहां की अव्यवस्था की बात करेगा, किसी की
जुबान पर सेना के साहसिक कदमों की तारीफ होगी...और कुछ दिन के बाद इस तबाही को,
इसके पीछे के कारणों को बिसरा दिया जायेगा.
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विकास की अंधी दौड़
में इन्सान इस कदर शामिल है कि वो भूल जाता है कि उसके कदम एक तरफ भले ही विकास ला
रहे हों किन्तु दूसरी तरफ विनाश को भी आमंत्रण दे रहे हैं. लगातार काटे जाते
वृक्ष, महंगे इमारती पत्थरों की तृष्णा में पहाड़ों को काटकर साफ़ कर देना, लकड़ी की
चाह में जंगल के जंगल मिटा देना, बालू की जबरदस्त मांग के चलते नदियों में जगह-जगह
सैकड़ों मीटर गहरे गड्ढे करके नदियों के पानी को अवरुद्ध कर देना, इमारतें बनाने के
लालच में नदियों-नालों की जमीन पर कब्ज़ा करके उनके प्रवाहमार्ग को संकरा कर देना
आदि-आदि वे लालची कदम हैं जो पल-पल इन्सान को विनाश की तरफ ले जा रहे हैं.
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ये बात सभी को समझना
चाहिए, उन्हें भी जो अपने-अपने घरों में सुरक्षित हैं, उन्हें भी जो इस विपदा से
बचकर सुरक्षित अपने-अपने ठिकानों को लौटने लगे हैं, उन्हें भी जो समझते हैं कि इस
तरह की कोई प्राकृतिक आपदा उनके आसपास फटक नहीं सकती, कि यदि विकास की गति इस तरह
से प्रकृति को नज़रंदाज़ करके होती रही तो इस तरह की आपदाएं आये दिन हमारे सामने
प्रकट हो जाया करेंगी.
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