समलैंगिक विवाह को मान्यता दिए जाने के सम्बन्ध में एक बार
फिर बहस छिड़ गई है. इस बार यह बहस देश की सर्वोच्च अदालत में चल रही है. प्रधान
न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश संजय किशन कौल, न्यायाधीश एस रवींद्र भट,
न्यायाधीश हिमा कोहली, न्यायाधीश पीएस नरसिम्हा के समक्ष इसके पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने
तर्क दिए जा रहे हैं. वैश्विक स्तर पर अभी तक अमेरिका, नीदरलैंड, नार्वे, बेल्जियम, स्पेन,
दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और ब्रिटेन ने समलैंगिक
विवाह को मान्यता दे रखी है. भारत में समलैंगिक विवाह को भले स्वीकृति न मिली हो
किन्तु उच्चतम न्यायालय ने जुलाई 2009 में धारा 377 को
संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 का उल्लंघन
बताते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने का आदेश दिया था.
समलैंगिकता का
सीधा अर्थ समान लिंग के प्रति यौन अथवा रोमांसपूर्वक आकर्षित होने से लगाया जाता
है. इसमें पुरुष समलैंगिक अथवा गे, महिला समलिंगी अथवा लेस्बियन, महिला और पुरुष दोनों के प्रति समान रूप से आकर्षित होने वाला उभयलिंगी, लिंग परिवर्तन करवाकर खुद को स्त्री या
पुरुष की परिभाषा में शामिल करते हैं. आम बोलचाल की भाषा में इन सबको एलजीबीटी
समूह के नाम से जाना जाता है. बचपन से किसी विषमलिंगी का पर्याप्त सहयोग न मिलना
समलैंगिकता का वातावरण निर्मित करता है. माता-पिता का व्यवहार, पति-पत्नी की आपसी सेक्स लाइफ, लम्बे समय तक घर से बाहर रहने की स्थिति, समागम की अनुकूलता न होना आदि बहुत हद तक
समलैंगिकता को जन्म देती है. जेल के कैदी, ट्रक के ड्राइवर, सुरूर क्षेत्रों में तैनात जवान, लम्बी आयु के अविवाहित स्त्री-पुरुष में इस
तरह की स्थिति को देखा जा सकता है.
देखा जाये तो
समलैंगिकता अप्राकृतिक शारीरिक सम्बन्ध ही है मगर जैसे-जैसे इसके विरोध की बात
सामने आती है वैसे-वैसे ही इसके समर्थन में भी प्रदर्शन किये जाने लगते हैं.
अदालतों ने भी इन संबंधों के प्रति उदार रवैया अपनाते हुए कानूनी तौर पर
समलिंगियों को पर्याप्त राहत प्रदान की है. समलैंगिकता के विरोधी जहाँ भारतीय
संस्कृति में इस तरह के सम्बन्ध न बनाये जाने की वकालत करते हैं वहीं इसके समर्थक
इसे अपना अधिकार, अपनी
जीवनशैली की स्वतंत्रता मानते हैं. आखिरकार यहाँ समझना ही होगा कि स्वतंत्रता है
क्या? जीवनशैली आखिर किस
तरह से संचालित की जाये? इसे भी समझने की जरूरत है कि कहीं जीवनशैली की स्वतंत्रता के नाम पर, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति
सेक्स संबंधों में स्वतंत्रता तो नहीं चाह रहा है? कहीं स्वतंत्रता के नाम पर सेक्स को समाज में कथित
तौर पर स्थापित करने की साजिश तो नहीं? सेक्स को लेकर, शारीरिक संबंधों को लेकर, विपरीतलिंग को लेकर समाज में जिस तरह से
अवधारणा निर्मित की जा रही है, उसे देखते हुए लगता है जैसे इंसान के जीवन का मूलमंत्र सिर्फ और सिर्फ सेक्स
रह गया है. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों, विज्ञापनों में भी सेक्स का प्रस्तुतीकरण इस
तरह से किया जाता है जैसे बिना इसके इंसान का जीवन अधूरा है. सोचना होगा कि कल को
वे मानसिक विकृत लोग, जो
दैहिक पूर्ति के लिए जानवरों तक को नहीं बख्शते हैं, अपने अप्राकृतिक यौन-संबंधों को जायज ठहराने के लिए
सडकों पर उतर आयें, व्यक्तिगत
स्वतंत्रता के नाम पर, जीवनशैली
चुनने की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी जानवर के साथ को कानूनी स्वरूप दिए जाने की
माँग करने लगें तो क्या ऐसे लोगों की माँगों को स्वीकारना होगा?
समलैंगिकों
के आपसी यौनाचार को लेकर वर्ष 1827 से वर्तमान तक की लगभग 3,60,000 वैज्ञानिक अनुसंधान रिपोर्ट्स इंटरनेट पर ‘पॉपलाइन’ वेबसाइट पर उपलब्ध
हैं. इनके आधार पर स्पष्ट है कि पुरुष-पुरुष यौनाचार में एड्स की सम्भावना तो रहती
ही है साथ ही इनमें प्रोसाइटिस नामक रोग व्यापक रूप से फैलता है. इस बीमारी की
भयावहता के कारण इसे समलैंगिक महामारी के नाम से भी जाना जाता है. स्त्री
समलैंगिकों में इसी तरह से ह्युमन पेपिलोमा वायरस, हर्पिस
आदि बीमारियाँ अतितीव्रता से फैलती हैं. इन बीमारियों के अलावा समलिंगियों में
सिफलिस, गोमोनिया, अमिसियोसिस, हेपेटाइटिस बी, गले के वायरल, यौन-जनित
बीमारियों के वाहक वायरस आदि भी किसी महामारी की तरह फैलते हैं.
विभिन्न
अनुसंधानों से स्पष्ट हो चुका है कि समलैंगिकता आनुवांशिक नहीं है, मानसिक बीमारी भी नहीं है वरन व्यावहारिक
समस्या है तो उसके सुधारात्मक उपाय किये जाने चाहिए. इसके समाधानस्वरूप सर्वप्रथम
बच्चों की परवरिश पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. समय-समय पर उनकी
लैंगिक समस्या पर भी विचार किया जाना चाहिए और उनका सहज समाधान प्रस्तुत करना
चाहिए. बच्चों में आरम्भ से ही सह-शिक्षा प्रदान करवाई जाए. इसी तरह से पारिवारिक
वातावरण को समृद्ध करने की आवश्यकता है. इसके अलावा समलैंगिकों का बहिष्कार करने, उनको प्रताड़ित करने, उनका मजाक बनाये जाने की बजाय उनको समझाए
जाने की आवश्यकता है कि यह मानसिक बीमारी नहीं है और इससे आसानी से छुटकारा पाया
जा सकता है. उनको बताया जाना चाहिए कि समलैंगिकता एक स्थिति है जो अतृप्तता के
कारण उपजती है और कहीं-कहीं ये बेलगाम मौज-मस्ती के लिए विकृत वृत्ति, स्वच्छंद शारीरिक भोग-विलास की लालसा के रूप
में जन्म लेती है. ऐसे लोगों को सहानुभूति, इलाज की आवश्यकता होती है और इस समस्या को सद्भाव, सहयोग प्रदर्शित करके दूर किया जा सकता है.
समझना होगा कि
समलैंगिक सम्बन्ध मात्र भावनात्मकता के स्तर पर ही कायम नहीं हो रहे हैं वरन
शारीरिकता पर आकर समाप्त हो रहे हैं. दैहिक सुख की भोगवादी लालसा में समलिंगी अपने
जीवन को खोखला ही बना रहे हैं, जिसका निदान समलिंगी विवाहों की मान्यता प्रदान करने में नहीं वरन इस आदत के
इलाज और समाधान में है. काश!
स्वतंत्रता के नाम पर अधिकारों को समझा जाए न कि अनाधिकार चेष्टा को. काश! वैयक्तिक जीवनशैली के नाम पर रिश्तों
की मर्यादा को जाना जाए न कि उनके अमर्यादित किये जाने को. काश! निजी जिंदगी के गुजारने के नाम पर
पारिवारिक सौहार्द्र को समझा जाए न कि जीवन-मूल्यों के ध्वंस को. काश! जीवन को जीवन की सार्थकता के नाम पर
समझा जाये न कि कुंठित सेक्स भावना के नाम पर.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें