अक्सर हम सभी
बुजुर्गों को लेकर, उनकी
स्थिति को लेकर बातें करते हैं. इस बातचीत में एक बिन्दु प्रमुखता से हम सबके बीच
उभर कर सामने आता है, और वो होता है इन बुजुर्ग लोगों की
बातों को सुनने वालों की कमी होना, इन बुजुर्गों के साथ वार्तालाप
करने वालों की कमी होना. ऐसा बहुतायत में होता भी जा रहा है कि बुजुर्गों के साथ
बातचीत करने वालों की कमी होती जा रही है. बाहर के लोगों से क्या अपेक्षा की जाये
जबकि परिवार के लोग ही बुजुर्गों से बातचीत करने से बचने लगे हैं. अब पहले की तरह
से बच्चे अपने बाबा-दादी के पास नहीं बैठते हैं, याकि उनको
उनके पास बैठने नहीं दिया जाता है. संभव है ऐसा भी हो क्योंकि अब जबकि नयी सदी
पीढ़ियों के अंतर को स्वीकारती है तो बाबा-दादी वाली पीढ़ी और नाती-नातिनों के बीच
एक और पीढ़ी का अंतर है. इक्कीसवीं सदी में, तकनीक के बीच
जीने वालों में इस अंतर को पाटना बहुत ही मुश्किल काम है.
बहरहाल, अभी चर्चा इस पर नहीं. आज मित्रों
संग बातचीत के दौरान अपनी ट्रेन यात्रा के दौरान मिले एक बुजुर्ग दम्पत्ति याद आ
गए. कई साल पहले हमारी एक ट्रेन यात्रा हमारे मित्र सुभाष के साथ उरई से इलाहाबाद के
लिए हो रही थी. गर्मियों के दिन थे और ट्रेन भी कोई समर स्पेशल थी. दोपहर बाद उरई
से चली और शाम को लगभग साढ़े छह-सात बजे करीब कानपुर पहुँची. सेकेण्ड एसी में
आरक्षित सीट होने के कारण दो पर दो की स्थिति बनी हुई थी. हम लोगों के सामने वाली
सीट पर एक बुजुर्ग दम्पत्ति थे. उरई से लेकर कानपुर तक की यात्रा में बुजुर्ग
महिला लेटी रहीं और बुजुर्ग पुरुष उसी सीट पर बैठे रहे. इस पूरी यात्रा में न उन
लोगों ने बात करने की कोई कोशिश की और हम दोनों मित्रों ने भी अपनी तरफ से कोई
प्रयास नहीं किया.
कानपुर स्टेशन पर
ट्रेन के रुकते ही सुभाष तुरत-फुरत चाय लेने के लिए प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे. लगभग
दो-तीन मिनट में ही वो दो चाय के कप सहित सीट तक आ गए. चाय देखकर उन बुजुर्ग पुरुष
ने अपने लिए भी दो चाय लाने का निवेदन सुभाष से किया. इससे पहले कि सुभाष कुछ कहते, ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. एक तो
उन दोनों लोगों की उम्र और एसी की ठंडक के कारण चाय की तलब उनको कुछ ज्यादा ही
महसूस हो रही थी. ट्रेन का सरकना देख कर हमने सुभाष को रोका और अपने दोनों कप उन
बुजुर्ग को दे दिए. पहले तो वे दोनों लोग कुछ सकुचाए मगर हम लोगों के बार-बार कहने
पर उन्होंने चाय ले ली. उस एक-एक कप चाय देने का परिणाम ये हुआ कि जो बुजुर्ग
दम्पत्ति उरई से कानपुर तक की सौ से अधिक किलोमीटर की यात्रा में एक शब्द नहीं
बोले थे, कानपुर से इलाहाबाद तक की दो सौ किलोमीटर की यात्रा
में अपने घर-परिवार की, बेटों की, अपनी
नौकरी की एक-एक बात हम दोनों मित्रों के बीच शेयर कर बैठे.
उनकी बातचीत से
समझ आया कि वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थे. उनके बेटे भी बहुत अच्छी नौकरी में हैं
मगर किसी के पास समय नहीं कि उनके हालचाल ले सकें. उनके नाती-नातिन इसलिए उनके पास
नहीं आते क्योंकि बहुओं को लगता है कि इन बुजुर्गों की संगत में वे बिगड़ जाएँगे. कानपुर
से इलाहाबाद तक की यात्रा के दौरान वे बुजुर्ग दम्पत्ति ही अपनी कहानी बताते रहे.
इलाहाबाद में उतरने के समय भी उनको लेने वाला कोई नहीं था क्योंकि वहाँ वे दोनों
अकेले ही रहते थे. प्लेटफ़ॉर्म से बाहर लाकर उनको ऑटो करवाया. चलते समय उन्होंने
अपना मोबाइल नंबर, घर का
पता खुद ही देकर घर आने का निमंत्रण भी दिया. बातचीत के दौरान अनेक बार उनकी आँखों
में छलकते पानी को देखकर लगा कि आज की पीढ़ी की आँखों का पानी शायद पूरी तरह से मर चुका
है जो अपने परिवार के बुजुर्गों का ध्यान नहीं रख रही है.
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