28 अक्तूबर 2015

बयानों पर कुत्तागीरी

जनरल साहब का एक बयान आया और बवाल मच गया, इससे पहले भी कुत्ता शब्द पर बवाल काटा गया था. समझ नहीं आता है कि ‘कुत्ता’ शब्द पर बवाल काटने वाले खुद को उसी प्रजाति में खड़ा करते हैं अथवा कुत्ते को इंसान के समकक्ष ले आते हैं? कहा जाता है कि नेता लोग ऊलजलूल बयान देकर सामाजिक माहौल को ख़राब करना चाहते हैं ताकि वे अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंक सकें. ये भी कहा जाता है कि इन राजनेताओं के मुँह में कोई लगाम नहीं होती है, जब जो चाहें बोल कर लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने लगते हैं. यहाँ एक बात खुद समाज को, सामाजिकता को बनाये रखने वालों को भी विचार करनी होगी कि क्या सामाजिक माहौल बिगाड़ने का काम सिर्फ राजनेता ही कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताओं के बयानों की मीमांसा अपने-अपने तरीके से करते रहने की आदत के चलते हम लोग भी सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ रहे हों?  
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वी०के० सिंह ने किसी घटना के सन्दर्भ में कोई बयान दिया और उस बयान को किसी धर्म विशेष के साथ, व्यक्ति विशेष के साथ, घटना विशेष के साथ जोड़ देना किस मानसिकता का प्रतीक है? कहीं न कहीं हम सब भी समाज में आये दिन कोई न कोई हंगामा चाहते हैं और इसी कारण से आये दिन किसी न किसी के बयान का एक अलग सन्दर्भ देकर बवाल करना शुरू कर देते हैं. कुत्ता शब्द आने के बाद उसे सीधे-सीधे किसी धर्म विशेष से, व्यक्ति विशेष से जोड़कर प्रस्तुत करना बतलाता है कि हम उस व्यक्ति, उस धर्म को इसी नजर से देख रहे हैं. यदि ऐसा नहीं है तो फिर एक शब्द को आधार बनाकर झमेला खड़ा करने का तर्क स्पष्ट नहीं होता है. हाँ, यदि वर्तमान बयान के विरोध की बात की जाये तो इसके पीछे स्पष्ट मानसिकता भाजपा-विरोध की ही है, इसके अलावा कोई और दूसरा पक्ष ही नहीं है. संवैधानिक रूप से देश में राज्य की अवधारणा स्पष्ट रूप से परिभाषित की गई है, उसके अपने विधान, उसके अपने कायदे अलग-अलग परिभाषित किये गए हैं. स्वयं राज्य भी अपने आपको केन्द्र की सत्ता से विलग करके ही देखते हैं. ऐसे में राज्य की कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी किस तरह से केन्द्र पर डाली जा सकती है? स्पष्ट है कि प्रदेश में आये किसी भी बिगाड़ के लिए केन्द्र सरकार (या कहें कि भाजपा सरकार) को दोषी ठहराकर खुद को निर्दोष साबित कर देना होता है.
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एक बात तो स्पष्ट रूप से सामाजिकता का गान करने वालों को समझना होगा कि राजनीति के खिलाड़ियों ने भली-भांति पहचान लिया है कि उनके द्वारा किस तरह से राजनैतिक रोटियों को सेंका जाना है. वे समझ चुके हैं कि इक्कीसवीं सदी में आने के बाद भी व्यक्ति गाय, सुअर, कुत्ते आदि पर अटका हुआ है. पढ़े-लिखे होने की बात कहकर मंगल, चाँद, अंतरिक्ष पर जाने की हुंकार भरी जाती है किन्तु असलियत में अभी व्यक्ति अपनी क्षुद्र मानसिकता से उबर नहीं सका है. इसके उदाहरण वर्तमान सन्दर्भों में राजनेता नहीं वरन आम इंसान बना बैठा है. मुफ्तखोरी के नाम पर कभी हत्यारों को विजयी बनाता है, कभी भ्रष्ट को. ऐसे हालातों में नेताओं को भी ज्ञात है कि वे सहजता से एक शब्द के सहारे कई-कई उल्लू सीधे कर लेंगे. (यदि यही बयान किसी नेता की तरफ से आया होता तो उल्लू शब्द पर बवाल मच गया होता) सोचने-समझने की बात है कि किसी प्रदेश की शासन व्यवस्था जब सीधे तौर पर प्रदेश सरकार द्वारा संचालित हो रही है तो वहाँ के दोषों के लिए सीधे तौर पर केन्द्र सरकार को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? ये और बात है कि केन्द्रीय सत्ता में होने के कारण केन्द्र सरकार की एक जिम्मेवारी बनती है मगर जिस तरह की लोकतान्त्रिक व्यवस्था हमारे संविधान ने दे रखी है उसके अनुसार उसका सीधा हस्तक्षेप भी संभव नहीं. ऐसे में विरोध के मायने सिर्फ यही सिद्ध करते हैं कि विरोध उस अव्यवस्था का नहीं, उस अपराध का नहीं वरन केन्द्रीय सत्ता का, केन्द्र सरकार का, भाजपा का, मोदी का हो रहा है. इस दृष्टिकोण से क्या ये आपको नहीं लगता कि कहीं एक कुत्ते को पत्थर मार दिया जाये तो दोषी भाजपा सरकार को, मोदी को बताया जाने लगता है. अब ये आप पर है कि इस ‘कुत्ते’ को आप सांकेतिक रूप से ले रहे हैं अथवा किसी धर्म विशेष से, व्यक्ति विशेष से जोड़ रहे हैं. 
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1 टिप्पणी:

  1. लेकिन जब जुबान पकड़ने का रिवाज़ चल निकला है तो चाहे जनरल हों या सिपाही, सबको जीभ और होंठों पर नियंत्रण रखना तो होगा ही, है न?

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