बुन्देलखण्ड
क्षेत्र अपने आन-बान-शान के लिए जितना प्रसिद्द है उतनी ही प्रसिद्धि उसको यहाँ की
लोकसंस्कृति के कारण प्राप्त है. यहाँ की लोककलाओं, लोकपर्वों, लोकविधाओं आदि में अनेकानेक
गतिविधियाँ संचालित होती हैं. लोक को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानने के कारण ही यहाँ
जन्मे लाला हरदौल अपने व्यक्तित्व, कृतित्व के कारण लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित
हैं. लोक को महत्त्व देने के कारण ही यहाँ मामुलिया, टेसू, झिंझिया, नौरता, सुआटा
आदि के साथ-साथ अन्य कई लोकपर्वों का आयोजन होता रहता है. इसी लोक परम्परा में टेसू
भी शामिल है जो किसी एक वीर पुरुष को परिभाषित करता है. इस वीर पुरुष को याद करते
हुए एक गीत गाया जाता है जिसे स्थानीय
भाषा में टेसू गीत कहा जाता है. हालाँकि टेसू के बारे में प्रमाणिक रूप से किसी
धर्मग्रन्थ में अथवा किसी ऐतिहासिक ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता है. वाचिक परंपरा के कारण टेसू एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को
हस्तांतरित होता आ रहा है.
भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता ये
रही है कि यहाँ धार्मिक आयोजनों, अनुष्ठानों के द्वारा किसी न किसी तरह की सीख
सबको देने का प्रयास किया जाता है. लोक संस्कृति में भी इसी तरह के संस्कार देखने
को मिलते हैं. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में आयोजित किये जाने वाला टेसू लोकपर्व हो,
झिंझिया हो, सुआटा हो अथवा मामुलिया, सभी में बच्चों की सहभागिता रहती है. ऐसे
आयोजनों के द्वारा बच्चों में सहयोग की भावना का विकास होता है, समन्वय की भावना
जन्मती है और खेल-खेल में अपनी लोक संस्कृति को जानने-समझने का अवसर भी मिलता है. टेसू,
झिंझिया, सुआटा, नौरता, मामुलिया आदि का आयोजन की अपनी ही विशेषता है. ये सारे लोक
आयोजन एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं, जो लगभग एक माह तक आयोजित होते रहते हैं. ये आयोजन
भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन पूर्णिमा , जिसे शारदीय पूर्णिमा भी कहा जाता है, तक पाँच
चरणों में संपन्न किया जाता है. बुन्देलखण्ड में किशोर-किशोरियों द्वारा इस
क्रियात्मक विधान का अपना महत्त्व माना जाता है. मामुलिया से आरम्भ होकर ये आयोजन नौरता, टेसू, झिंझिया से गुजरता हुआ अंत में टेसू
द्वारा सुआटा को मारकर झिंझिया से विवाह करने पर समाप्त होता है.
मामुलिया
किशोरियों का खेल है जिसे भाद्रपद पूर्णिमा
से लेकर कृष्ण आमावस्या तक खेला जाता है. इस लोक आयोजन को दो भागों में किशोरियों,
लड़कियों द्वारा पूरा किया जाता है. उनके द्वारा किसी दीवार पर पूर्वाभिमुख किये
हुए एक आयाताकार आलेख बनाया जाता है. इसको बाहरी साज-सज्जा के साथ अंदर ऊपर की ओर दोनों
कोने में सूर्य तथा चन्द्र द्वारा अलंकृत किया जाता है. सांयकाल किशोरी बालिकायें झुण्ड
बनाकर एकत्र होती हैं और किसी काँटेदार टहनी को फूलों से सजा गीत गाती हुई गली-गली
घूमती हैं. इसी टहनी को मामुलिया कहा जाता है, जिसे सूर्यास्त के बाद किसी जलाशय में
विसर्जित कर दिया जाता है. ऐसा करने के बाद बालिकाएँ स्व-निर्मित आयताकार आलेख के पास
एकत्र होती हैं. इस आलेख पर गोबर की थाप्पियाँ चिपकाना, लोकगीत, भजन आदि गाना इन
लड़कियों द्वारा किया जाता है. ऐसा प्रतिदिन किया जाता है.
इसके
बाद आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी तक नवरात्रि के आयोजन में एक खेल नौरता का
आयोजन किया जाता है. इसके अंतर्गत सुआटा
नामक राक्षस की प्रतिमा को गोबर से बनाया जाता है. इस प्रतिमा को रंगों, कौड़ियों
आदि से अलंकृत किया जाता है. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ऐसी किंवदन्ती है कि यही
सुआटा राक्षस लड़कियों, किशोरियों को परेशान करता था. इसी के द्वारा झिंझिया
राजकुमारी का अपहरण कर लिया गया था. बाद में वीर राजकुमार टेसू सुआटा को मार डालता
है तथा झिंझिया को मुक्त कर उससे विवाह करता है. इसी के साथ मान्यता है कि सुआटा
को अविवाहित बालिकाओं द्वारा खेला जाता है और जो लडकियाँ इसे खेलती है उन्हें विवाहोपरान्त
इससे
मुक्ति लेनी होती है. इसके लिए भी एक लोक आयोजन संपन्न किया
जाता है. इसमें विवाह के बाद सर्वप्रथम पड़ने वाले इस लोकपर्व में नवमी के दिन सुआटा उजाया जाता है.
इस लोक
आयोजन में मामुलिया, सुआटा के पश्चात टेसू और झिंझिया का खेल होता है. टेसू आश्विन
शुक्ल अष्टमी से शरद पूर्णिमा तक तथा नवमी से चतुर्दशी तक झिंझिया खेली जाती है.
टेसू का खेल बालकों द्वारा तथा झिंझिया का खेल बालिकाओं द्वारा खेला जाता है. टेसू
बाँस की तीन डंडियों से बना एक ढाँचा होता है, जिसे रंग-बिरंगे कागजों से ढँक दिया
जाता है, सिर पर मुकुट और हाथ में ढाल-तलवार से इसको सजाया जाता है. टेसू के खेल में लड़के उस रंग-बिरंगे ढाँचे को
लेकर घर-घर जाते हैं और टेसू-गीत गाते हुए धन की माँग करते हैं. बालकों द्वारा
गाये जाने वाले ये गीत विनोदी होते हैं और कई बार महज तुकबंदी के रूप में प्रयुक्त
होते हैं. अनर्थक, देशज शब्दों का प्रयोग कर इन बालकों का उद्देश्य गीत को लय देना
और हास्य प्रदान करके धन की प्राप्ति करना होता है.
मेरा टेसू यहीं
अड़ा, खाने को माँगे दही बड़ा,
दही बड़े में पन्नी,
टेसू माँगे अठन्नी.
इस तरह से अनेक निरर्थक
बातों-गीतों के द्वारा बालकों का टेसू आयोजन चलता रहता है.
लड़कियों
द्वारा झिंझिया के स्वरूप हेतु मिट्टी का छोटा घड़ा लिया जाता है, जिसमें अनेक छेद किये
जाते हैं. इसके अंदर अनाज तथा उसके ऊपर जलता दीपक रख दिया जाता है. इसे ही झिंझिया
कहा जाता है. इसमें बालिकाएँ ‘झांझी से झांझी तेरो ब्याह रचाओं’ गीत गाती
हुई नृत्य भी करती हैं. झिंझिया-नृत्य में बालिकाएँ गोलाकार खड़ी हो जाती हैं और केंद्र
में एक बालिका नृत्य करती है. वृत्ताकार खड़ी बालिकाएँ तालियों की थाप के द्वारा नृत्य
को गति प्रदान करती हैं. इसमें सभी बालिकाओं को बारी-बारी से एक-एक करके केंद्र में
आकर नृत्य करना होता है. इस नृत्य की विशेष बात ये होती है कि केंद्र में नृत्य करती
बालिका अपने सिर पर रखी हुई झिंझिया का संतुलन बनाये रहती है. यह नृत्य टेसू-झिंझिया
विवाह के समय भी होता है जो बालिकाओं की प्रसन्नता को दर्शाता है. इस घड़े को लेकर किशोरियों
द्वारा घर-घर जाकर दानस्वरूप धन अथवा या अनाज की माँग करती हैं. कई जगह बालिकाएँ
अन्य गीत गाते हुए दान चाहती हैं-
इस लोक
आयोजन के अंत में शारदीय पूर्णिमा को टेसू और झिंझिया का विवाह संपन्न होता है. उससे
पहले लड़कियों द्वारा पूर्वाभिमुख दीवार पर बनाये आलेख और सुआटा राक्षस की प्रतिमा
को बालकों द्वारा खंडित किया जाता है. उसके अंग-प्रत्यंगों को निकाल कर इधर-उधर
फेंक दिया जाता है, जो इस बात का सूचक होता है कि टेसू वीर द्वारा सुआटा राक्षस का
अंत कर झिंझिया को मुक्त करा लिया गया है. इसके पश्चात पूरे धूमधाम से
लड़के-लडकियाँ मिलकर टेसू और झिंझिया का विवाह करवाते हैं. इस लोक आयोजन में विशेष
बात ये होती है कि इसमें अमीर-गरीब का भेद नहीं होता है. इस खेल में सभी घरों के
लड़के-लडकियाँ शामिल होकर एकसाथ खेलते हैं और धन या अनाज माँगने की प्रक्रिया किसी
तरह की भिक्षा न होकर अधिकार जैसा होता है. बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों और छोटे
कस्बों में आज भी ये लोक आयोजन पूरे उत्साह, धूमधाम से मनाया जाता है. हालाँकि
वर्तमान में ऐसे आयोजनों को नगरों में स्वीकार्यता नहीं मिल पा रही है. सामाजिक
सौहार्द्र बिगड़ने, आपस में अविश्वास बढ़ने, भेदभाव का माहौल बनने के कारण अब ऐसे
आयोजनों में बालक-बालिकाओं को शामिल होने से रोका जाता है. अपनी संस्कृति को
सुरक्षित, संवर्धित करने के लिए आवश्यक है कि नई पीढ़ी को इसकी जानकारी दी जाए और
इसके आयोजन के लिए सक्रिय किया जाये, प्रोत्साहित किया जाये. यदि ऐसा नहीं किया
जाता है तो भविष्य में अनेक बुन्देली लोक कलाएँ विलुप्त होकर महज इतिहास बन
जाएँगी.
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