16 दिसंबर 2014

नशा-मुक्त समाज स्थापना से पूर्व



नशा-मुक्त समाज की संकल्पना मोदी जी की देन नहीं है वरन समाज का प्रत्येक जागरूक व्यक्ति चाहता है कि समाज नशा-मुक्त रहे, यहाँ तक कि नशे के लती व्यक्ति भी नहीं चाहते हैं कि उनकी संतानें नशे की गिरफ्त में आयें. ऐसा होने के बाद भी, नशे के दुष्प्रभाव ज्ञात होने के बाद भी समाज में नशे के प्रति आसक्ति लगातार बढती ही जा रही है. शादी-विवाह के समारोह, किसी भी हर्ष-उमंग का अवसर होना, युवाओं की अपनी मस्ती आदि अब बिना नशे के पूरी नहीं हो पाती है. शराब के जाम छलकना, बीयर के झागों का बनना-बिगड़ना, सिगरेट के धुंए के छल्लों का हवा में उड़ना, तम्बाकू-पान की पीक की चित्रकारी अब आम बात लगती है. कहीं न कहीं समाज में और सरकार में इस नशे को स्वीकार्यता मिल चुकी है. अब इस तरह के नशे को लेकर उसके सार्वजनिक स्थलों पर, खुलेआम उपयोग पर कार्यवाही करने की खबरें आती हैं. समाज के लोग इसे समझते हैं और सरकारी तंत्र शराब की बिक्री बढ़ाने के साथ-साथ इसकी नकली बिक्री पर रोक लगाने का काम करती है. संभवतः लाइसेंस प्रक्रिया से गुजरने के कारण कहीं न कहीं शराब, सिगरेट, बीयर, तम्बाकू, गुटखा आदि को स्वीकार लिया गया है बस तनिक सामाजिकता के चलते शराब, बीयर के खुलेआम प्रयोग पर प्रशासन और आम नागरिक सक्रिय से दिखते हैं.
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नशा-मुक्त समाज की जितनी संकल्पना अभी तक सामने आई है या फिर जितनी समझ में आई है उसके अनुसार सभी का एकमात्र विरोध उन नशीले तत्त्वों से है जो अवैध रूप से बाज़ार में चोरी-छिपे बेचे जा रहे हैं. विभिन्न ड्रग्स को लेकर समाज में एक तरह का विरोध लगातार देखने को मिलता है. देश के महानगरों से निकल-निकल कर अब ये बुराई दूर-दराज के गाँवों में भी पहुँच गई है. अनेक तरह की ड्रग्स अवैध तरीके से खरीदी-बेची जा रही है, सिगरेट-इंजेक्शन आदि के सहारे शरीर में पहुँचाई जा रही है. विभिन्न सरकारों की, सामाजिक संस्थाओं की, सामाजिक व्यक्तियों की समूची कवायद इसी नशे से मुक्ति की रही है किन्तु किसी का भी प्रयास एक बार भी इसके मूल को जानने की नहीं रही है. ये समझना होगा कि आखिर नशे की गिरफ्त में लोग, विशेष रूप से युवा वर्ग क्यों आ रहा है? ऐसे नशीले पदार्थ बाज़ार में आ कैसे जा रहे हैं? सुरक्षा एजेंसियां क्या महज नेताओं की सुरक्षा का जायजा लेने के लिए रह गई हैं? क्या हमारा सुरक्षा तंत्र महज बचाव कार्यों के लिए ही प्रयुक्त होने लगा है? पहली बात तो ऐसे नशीले पदार्थों की आवक पर ध्यान देने की जरूरत है, उसके स्त्रोतों को पकड़ने की जरूरत है, इनको बाज़ार में खपाने वाले तत्त्वों को खोजने की जरूरत है. यदि ऐसा होता है तो नशा-मुक्त समाज का बहुत बड़ा चरण अपने आप पूरा हो जायेगा.
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इसके साथ-साथ समाज में युवाओं की समस्याओं पर विचार करने की आवश्यकता है. औद्योगीकरण, वैश्वीकरण की परिभाषा इस तरह से चारों तरफ घेर दी गई है कि सिवाय लाखों के पैकेज के युवाओं को और कुछ सूझ नहीं रहा है. आपस में बढ़ती गलाकाट प्रतियोगी भावना, जल्द से जल्द सफलता की अधिकतम ऊंचाइयों को प्राप्त कर लेने की लालसा, कम से कम प्रयासों में अधिकतम प्राप्ति की चाह आदि ने युवा वर्ग को अंधी दौड़ में शामिल करवा दिया है. जहाँ घुस जाने के बाद उनको न तो अपना भान रहता है और न ही सामाजिकता का. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों के युवाओं के समक्ष कार्य के अवसरों के अत्यल्प होने के कारण से अवसाद जैसी स्थिति है. लाभ के, उन्नति के, समर्थ कार्य करने आदि के कम से कम अवसरों के कारण यहाँ के युवा निराश तो रहते ही हैं साथ ही महानगरों की चकाचौंध उनको हताश भी करती है.
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सरकार को, समाज के जागरूक लोगों को नशा मुक्ति के साथ-साथ युवाओं के लिए अवसरों की अनुकूलता बढ़ाने की आवश्यकता है. जो युवा वर्ग भौतिकता की अंधी दौड़ में फंस गया है उसको समझाने की, सँभालने की जरूरत है. यदि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही-गलत का अर्थ समझा सके, सामाजिकता-पारिवारिकता का बोध करा सके, कर्तव्य-दायित्व को परिभाषित करा सके तो बहुत हद तक नशा-मुक्त समाज स्थापित करने में सफल हो जायेंगे.

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