सरकारी योजनाओं का लाभ भले ही किसी समय में मिलता रहा होगा पर इधर पिछले
दो-तीन दशकों से देखने में आया है कि सरकारी नीतियों का,
योजनाओं का अधिकांश धन बजाय जरूरतमंद के अधिकारियों की,
नेताओं की, मंत्रियों की जेब में चला जाता है। इन योजनाओं ने लाभ से
ज्यादा भ्रष्टाचार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। मिड डे मील योजना को लिया
जाये या फिर नरेगा से मनरेगा बनाई गई कल्याणकारी योजना हो इन दोनों में किस प्रकार
की अनियमितता देखने को मिली है, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। विद्यालयों में अब
शिक्षक पढ़ाई के स्थान पर भोजन की जांच, उसको परोसने और फिर स्वयं को कानूनी दांव-पेंच से बचाने की
जुगत में लगा रहता है। प्रधान जी अपनी सत्ता की ताकत और स्थानीय हनक दिखा कर मिड
डे मील को बच्चों के पेट के बजाय अपने और अपने आकाओं के पेट में उतारते रहते हैं।
बच्चे अभी भी विद्यालयों से उसी तरह से दूर हैं जैसे कि पहले थे बल्कि हुआ यह है
कि आये दिन कभी खाने में कीड़े निकलने की घटना, कभी भोजन खाकर बच्चों के बीमार पड़ने की घटनायें सामने आने
लगी हैं। कुछ इसी तरह का हाल मनरेगा का भी बना हुआ है। नेताओं और अन्य रसूखदार
लोगों के परिचय और सम्बन्ध वाले इसका लाभ लेते दिख रहे हैं और वास्तविक जरूरतमंद
इस योजना से कोसों दूर दिख रहे हैं। विद्रूपता तो यह भी है कि जीवित व्यक्ति जहां
रोजगार के लिए भटकते दिख रहे हैं वहीं मृत व्यक्तियों के नाम से अधिसंख्यक स्थानों
पर भुगतान किया जा रहा है।
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देश में खाद्य-व्यवस्था को लेकर स्थिति यह है कि एक भाग के लोग खाद्य संकट से
जूझते दिखते हैं और दूसरी ओर खाद्य पदार्थ सड़कों पर फेंकने की मजबूरी होती है।
गोदमों में फसल के रखने की समूचित व्यवस्था न होने के कारण जिस खाद्य पदार्थ को
जरूरतमंद व्यक्तियों के पास होना चाहिए था, वो खाद्य पदार्थ पानी में सड़ता दिखाई देता है। एक ओर खाद्य
पदार्थों के दाम आसमान को छूते दिखाई देते हैं वहीं दूसरी ओर किसान को अपनी फसल का
ही मूल्य न मिल पाने के कारण वह उसे अपने खेतों से काटना भी जरूरी नहीं समझता है।
किसान की इस दुर्दशा के साथ एक और समस्या यह है कि फसल के समय उसे न तो समय से खाद
मिल पाती है और कई बार सिंचाई के लिए पानी की भी व्यवस्था नहीं हो पाती है। इसके
साथ ही साथ फसल का मंडी में बिकना भी अपने आपमें दुरूह कार्य ही होता है। दलालों,
बिचौलियों के हाथों में खेले जाते ठगते किसानों के हितों के
संरक्षण को प्राथमिकता में रखना होगा।
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वर्तमान में किसानों की जो स्थिति है, हमारी फसलों के लिए बने गोदामों की जो हालत है,
सड़कों पर मजबूरन सड़ने को पड़ी फसल को उचित हाथों में पहुचाने
की व्यवस्था जब तक नहीं की जाती है तब तक इस ओर उठाये जा रहे किसी भी कदम के
सकारात्मक होने की संभावना कम ही दिखती है। खाद्य पदार्थ का उत्पन्न होना देश के
किसानों की मजबूत स्थिति पर निर्भर करता है और जिस देश का किसान एक तरफ अपने-अपने
गांवों से पलायन कर रहा हो, खेत-खेती से विचलन की स्थिति को अपनाता हो,
हताशा-निराशा में आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा हो वहां
खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ इसके उत्पादक किसानों की सुरक्षा पर भी विचार करना होगा।
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