अभिनव बिंद्रा ने ओलम्पिक में गोल्ड मैडल जीत कर देश में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों के महत्व दिए जाने का संदेश दिया पर क्या वाकई ऐसा होगा? यह एक बड़ा सवाल है कि क्या वाकई ऐसा होगा क्योंकि ये पहली बार नहीं है जब क्रिकेट के अलावा भी किसी दूसरे खेल के किसी खिलाडी ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है. देश में उस समय भी एक प्रकार का जूनून छाया था जब विश्वनाथ आनंद ने शतरंज में विश्व चैंपियनशिप जीती थी. उस समय लग रहा था कि देश के हर एक नौजवान को अब शतरंज ही खेलना है.
जहाँ तक क्रिकेट की बात है तो इस देश में क्रिकेट को देवताओं के समकक्ष रख कर देखा जाता है बल्कि यदि कहा जाए कि देवताओं से ऊपर रखा जाता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये बात इस कारण भी ग़लत नहीं है क्योंकि देश में सट्टे के एक कलंकित दौर के बाद लग रहा था कि इस देश के देशभक्त क्रिकेट को भुला कर तो नहीं पर कुछ मोह छोड़ कर दूसरे खेलों की ओर भी ध्यान देंगे पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. क्रिकेट जहाँ था वहीँ रहा बाक़ी खेल जहाँ थे वहीँ रहे.
यदि हम अपने अन्य खेलों के खिलाड़ियों के प्रदर्शन को सामने रख कर क्रिकेट के खिलाड़ियों से तुलना करें तो वे किसी भी स्थिति में सचिन, धोनी, युवराज आदि से कम नहीं बैठते हैं पर सब बातों की एक मुख्य बात है पैसा। और पैसा सबसे ज्यादा है क्रिकेट में तो बस.................. इसका उदहारण अभी हाल में संपन्न हुए 20-20 मैच हैं. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि बिंद्रा की अपनी सोच अच्छी है कि उसके स्वर्ण पदक जीतने से अन्य खेलों की तरफ़ सरकार ध्यान देगी पर ऐसा कतई नहीं होगा. यदि सरकार ध्यान देती तो बिंद्रा बिदेश में अपना अभ्यास नहीं करते, सानिया विदेश को नहीं भागती, भूपति-पेस के खेलों पर भी ग्रहण नहीं लगता, और तो और आठ बार के ओलम्पिक स्वर्ण पदक विजेता हाकी, देश का राष्ट्रीय खेल हाकी आज बाहर खड़े होकर खेल न देख कर बीजिंग में खेल रही होती. सरकार को बस इतनी सुध है.
चलते-चलते एक बड़ी सुखद ख़बर, बीसीसीआई के एक प्रतिष्ठित पदाधिकारी का कहना है कि हमारी सरकार को ओलम्पिक के समाप्त हो जाने के बाद चीन से उनका उखडा हुआ सामान ले लेना चाहिए ताकि हम 2009 में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी कर सकें, एक ढांचा बना सकें. क्या इस तरह के रवैये से हम खेलों में सुधार की बात कर सकते हैं?
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