15 अगस्त की खुशी मना कर लौटा, मन में उमंग,हर्ष की अनुभूति अपनेआप ही होने लगती है. अब भी तिरंगे को सलामी देते समय बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं जब स्कूल में तिरंगे की तरफ़ देखते हुए सलामी को उठते नन्हे हाथ लरजते थे, मन में अजब सी अनुभूति होती थी, देह का एक-एक रोयाँ खडा हो जाता था. इसके ठीक उलट अब तिरंगे को फहराने की रस्म अदायगी की जाने लगी है. न स्कूलों में कोई कार्यक्रम, न खेलकूद न देशभक्ति भरे गीत. अब जो थोड़े से कार्यक्रम कहीं होते भी हैं तो उनमें बच्चे फिल्मी गीतों पर ठुमका लगाते दीखते हैं.
बच्चों का क्या कहें बड़ों की स्थिति भी प्रशंसनीय नहीं है। हमारे आसपास रोज़ ही लड़ाई-झगडे देखने को मिलते हैं. देश को तोड़ने की साजिश होती दिखती है. ऐसा ही कुछ 15 अगस्त के समारोह के बाद देखने-सुनने को मिला. मन ख़राब हुआ और आज बैठे-बैठे बहुत पुरानी अपनी एक कविता याद आ गई "मेरा भारत महान" आपको भी उसे बताते चलें. शायद..................
सालों पहले देखा
सपना एक
भारत महान का।
आलम था बस
इंसानियत, मानवता का।
सपने के बाहर
मंजर बहुत अलग था,
बिखरा पडा था.......
टूटा पडा था......
सपना.......
भारत महान का।
चल रही थी, आंधी एक
आतंक भरी
हर नदी दिखती थी
खून से भीगी भरी,
न था पीने को पानी
हर तरफ़ बस
खून ही खून।
लाशों के ढेर पर..........
पडा लहुलुहान.....
कब संभलेगा......
मेरा भारत महान!!!
अच्छी रचना है.
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