12 सितंबर 2025

जल के साथ न खेलें खेल

हम सभी को संभवतः याद हो कि कुछ समय पूर्व खबर आई थी कि चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहाँ भूमिगत जल पूरी तरह से समाप्त हो गया है. यह खबर चौंकाने से ज्यादा डराने वाली होनी चाहिए थी मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. इस खबर ने हम लोगों को न ही चौंकाया और न ही डराया. इसे एक समाचार की तरह, एक जानकारी की तरह देखने-सुनने के बाद जल के साथ खेल करना जारी रखा. यह असंवेदनशीलता तब है जबकि हम सभी को जानकारी है कि धरती के सत्तर प्रतिशत भाग में जल होने के बाद भी मात्र एक प्रतिशत ही मानवीय आवश्यकताओं के लिये उपयोगी है. ऐसा अनुमान है कि धरती के हर नौवें इंसान को ताजा तथा स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है. इस अनुपलब्धता के कारण संक्रमण और अन्य बीमारियों से प्रतिवर्ष पैंतीस लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है.

 

जल-संकट की स्थिति को यदि अपने देश के सन्दर्भ में देखे तो वर्तमान में लगभग बीस करोड़ भारतीयों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है. नगरों में भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन होने के कारण शहरी क्षेत्र जल-संकट से परेशान हैं. पेयजल की कमी होने से एक तरफ पेयजल संकट बढ़ा है वहीं दूसरी तरफ पानी की लवणीयता भी बढ़ी है. देश में औद्योगीकरण ने, जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि ने जल-संकट उत्पन्न किया है. प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के बाद प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता में साठ प्रतिशत की कमी आयी है. सरकार के नीति आयोग ने जल संकट के प्रति आगाह करने वाली कंपोज़िट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्सए नेशनल टूल फॉर वाटर मेज़रमेंटमैनेजमेंट ऐंड इम्प्रूवमेंट नामक एक रिपोर्ट  में माना था कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयंकर जल संकट से जूझ रहा है. देश के क़रीब साठ करोड़ लोगों अर्थात पैंतालीस प्रतिशत जनसंख्या को पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है. इसी रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 2020 तक देश के इक्कीस प्रमुख शहरों में भूगर्भ जल समाप्त हो जाएगा. वर्ष 2030 तक देश की चालीस प्रतिशत आबादी को पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा.

 



चेन्नई के साथ-साथ दिल्ली, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि को भूगर्भ जल संकट के रूप में चिन्हित किया जाना नीति आयोग के आँकड़ों की भयावहता को दर्शाता है. इस भयावहता की तरफ आज भी लोग संवेदित नहीं हो सके हैं. जिस देश में जहाँ सदानीरा नदियाँ बहा करती थीं, कुँए, तालाब, झीलें जल के परंपरागत स्त्रोत हुआ करते थे, वहाँ जल-संकट उत्पन्न होना वहाँ के नागरिकों द्वारा उठाये जाने वाले असंवेदित कदम ही हैं. नगरीकरण ने परंपरागत जल-स्त्रोतों- कुँओं, तालाबों और झीलों को निगल लिया है. देश में वर्तमान में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 2000 घनमीटर है. यदि हालात न सुधरे तो आगामी वर्षों में जल की उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जायेगी. वैज्ञानिक आधार पर जल की उपलब्धता का 1680 घनमीटर से कम हो जाने का अर्थ पेयजल से लेकर अन्य दैनिक उपयोग के लिए पानी की कमी का होना है.

 

पानी की दिन पर दिन विकराल होती जा रही समस्या के समाधान के लिए गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि जल की उपलब्धता लगातार कम हो रही और उसके उलट इसकी माँग लगातार बढ़ती जा रही है. देखा जाये तो जल का चौतरफा उपयोग किया जाता है. कृषि में, घरेलू कार्यों में, उद्योगों में तो मुख्य रूप से जल का उपयोग होता ही है, इसके अलावा रासायनिक क्रियाओं में, पर्यावरणीय उपयोग में भी जल का बहुतायत उपयोग किया जाता है. अतः सरकारों और समुदायों को उचित जल प्रबंधन की ओर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है. देश में प्रतिवर्ष बारिश के द्वारा लगभग चार हजार अरब घनमीटर जल की उपलब्ध होता है किन्तु मात्र आठ प्रतिशत जल ही संरक्षित हो पाता है. वर्षा जल को तकनीक के माध्यम से एकत्र किया जा सकता है. इसके लिए बरसात के पानी को खुले में रेन वाटर कैच पिट बनाकर उसे धरती में समाहित कर सकते हैं. इससे एक तो वर्षा जल की बहुत बड़ी मात्रा बर्बाद होने से बचेगी साथ ही जल संचयन के द्वारा भूगर्भ जल स्तर भी बढ़ाया जा सकता है. शहरों में प्रत्येक आवास के लिए रिचार्ज कूपों का निर्माण किया जाना चाहिएजिससे वर्षा का पानी नालों में न बहकर जमीन में संचयित हो जाये. इसके अलावा प्रत्येक मकान में आवश्यक रुप से वाटर टैंक बनाये जाने चाहिए, जिनमें वर्षा जल को संरक्षित किया जा सके. जल-संकट के दौरान या फिर घरेलू उपयोग की अन्य अवस्था में इस पानी का उपयोग किया जा सकता है.

 

वास्तव में आज आवश्यकता इस बात की है कि हम जल के किसी भी रूप का पूरी तरह से संरक्षण करें. यह जल भले ही भूगर्भ के रूप में हो, वर्षा जल हो, घरेलू, औद्योगिक रूप से उपयोग का जल हो. इन सभी का पूर्ण रूप से संचय करना होगा. आवश्यकता इसके प्रति लोगों की मानसिकता विकसित करने की, लोगों को प्रोत्साहित करने की. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि महज कमियाँ निकाल करअव्यवस्थाओं का रोना रोकर इनका समाधान नहीं किया जा सकता है. अब जल को बचाए जाने की आवश्यकता है. सरकार के साथ-साथ यहाँ के जनसामान्य को जागरूक होने की आवश्यकता है. वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था भी करनी होगी. अपने-अपने क्षेत्रों के तालाबोंजलाशयोंकुँओं आदि को गन्दगी सेकूड़ा-करकट से बचाने के साथ-साथ नए तालाबोंकुँओं आदि का निर्माण भी करना होगा. भविष्य की भयावहता को वर्तमान हालातों से देखा-समझा जा सकता है. एक-एक दिन की निष्क्रियता अगली कई-कई पीढ़ियों के दुखद पलों का कारक बनेगी. अब समय है कि जल से होने वाले खेल को रोका जाये.

 


04 सितंबर 2025

मशीनी शैक्षिक दौर में शिक्षकों का महत्त्व

विकास के परिवर्तनशील चरणों में शिक्षा क्षेत्र में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. शिक्षा व्यवस्था परिवर्तनों के दौर में गुरुकुल पद्वति से निकल कर ई-लर्निंग तक आ गई है. इसके बाद भी समाज से शिक्षकों के महत्त्व को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. जब तकनीकी विकास आज की तरह नहीं था तब शिक्षकों के पास अपने विद्यार्थियों की समस्त प्रकार की समस्याओं के समाधान करने की महती जिम्मेदारी हुआ करती थी. आज जबकि तकनीकी विकास हाथों-हाथों में मोबाइल, लैपटॉप के माध्यम से सुसज्जित है तब भी शिक्षकों की जिम्मेदारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. किसी भी शिक्षक का काम विद्यार्थियों को उसकी पुस्तक को समाप्त करवा देना मात्र नहीं है, उसका दायित्व सिर्फ पाठ्यक्रम को पूरा करवा देना मात्र नहीं है. ऐसा होना भी नहीं चाहिए. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा के समस्त सोपानों में शिक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि वह भावी पीढ़ी को राष्ट्र-निर्माण की दिशा में कार्य करने की मानसिकता से निर्मित करे. अध्यापन कार्य के पीछे की मूल भावना के अनुसार एक शिक्षक को किसी उत्पाद का निर्माण नहीं करना है वरन वह एक नागरिक तैयार करना है, एक व्यक्तित्व का विकास करना है.

 

आज जबकि तकनीकी विकास के दौर में ई-लर्निंग, ई-मैटर आदि के द्वारा शिक्षा देने की बात होने लगी है. वैश्वीकरण के आधुनिक दौर में कम्प्यूटर, मोबाइल, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन, ई-मेल, मैसेज, सोशल-मीडिया आदि को ही शिक्षक मान लिया गया है. ये मशीनी अंग शिक्षक के सहायक उपकरण तो हो सकते हैं किन्तु किसी शिक्षक का स्थान नहीं ले सकते हैं. मशीनीकृत शिक्षा व्यवस्था, ऑनलाइन क्लासेज के माध्यम से किसी विषय को भले ही सहजता से समझाया जा सकता हो किन्तु किसी व्यक्ति में उसके व्यावहारिक लक्षणों को विकसित नहीं किया जा सकता है. तकनीकी रूप से मशीनी शिक्षा के प्रति आसक्ति ने विद्यार्थियों में सहनशीलता, सामूहिकता, सांगठनिकता, बड़ों के प्रति सम्मान, समाज के प्रति दायित्व-बोध, परोपकार की भावना आदि को कम करने के साथ-साथ लगभग समाप्त ही किया है. ऐसा होने के कारण आज समाज में बच्चों को, नवयुवकों को बड़ी संख्या में अवसाद में जाते देखा जा सकता है. नवयुवकों की बहुत बड़ी संख्या नशे की गिरफ्त में जा रही है. जरा-जरा सी बात में नाकामी मिलने पर निराशा छा जाना और उसकी तीव्रता इतनी बढ़ जाना कि उनका आत्महत्या करने को प्रवृत्त होना आदि आज आम होता जा रहा है. तकनीक को हाथ में लिए घूमने वाली पीढ़ी को लगता है कि वह अपने साथ ज्ञान का सीमित भंडार लेकर चल रहा है, ऐसे में उसे किसी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है. देखा जाये तो किसी भी तरह का तकनीकी विकास किसी भी शिक्षक की महत्ता को कम नहीं कर सकता है.

 

सत्यता यही है कि मशीन ज्ञान तो दे सकती है किन्तु आत्मविश्वास नहीं जगा सकती. ई-लर्निंग से घर बैठे विषय से सम्बंधित जानकारी मिल सकती है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का तरीका नहीं मिल सकता. बचपन से संस्कार, आत्मविश्वास, जिज्ञासा, सामूहिकता, समन्यव, सहयोग आदि की जिस भावना का विकास एक शिक्षक करता है वह किसी और के द्वारा नहीं हो सकता है. यही कारण है कि आज भी बच्चों को विद्यालय भेजने की परंपरा का निर्वहन सभी के द्वारा किया जा रहा है, भले ही वह उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था को अपनी भौतिकता के चलते घर में स्थापित करवा सकता हो. तकनीक के साथ विकास करते समाज को शिक्षकों के महत्त्व को समझते हुए नई पीढ़ी को भी इनके महत्त्व को समझाना होगा.

 


25 अगस्त 2025

देश का सुरक्षा कवच सुदर्शन चक्र

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस को लाल किले से मिशन सुदर्शन चक्र की घोषणा करके भारतीय सामरिक शक्ति की मजबूती तथा सक्षमता का विश्वास व्यक्त किया था. भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र से जोड़ते हुए मिशन को आधुनिक रक्षा नवाचारों में मार्गदर्शन के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक और पौराणिक विरासत से प्रेरणा लेने वाला बताया जा रहा है. यह अपने आपमें सुखद है कि सुदर्शन चक्र अभियान को एक तरफ देश की पौराणिक, सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ा जा रहा है वहीं यह देश की एक प्रमुख स्ट्राइक कोर से भी जुड़ा हुआ है. भारत की प्रमुख स्ट्राइक कोर 21 को भी सुदर्शन चक्र के नाम से जाना जाता है.

 

सुदर्शन चक्र प्रोजेक्ट के पहले चरण में कम और मध्यम दूरी के लिए परीक्षण का कार्य भी सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लिया गया है. परीक्षण के पहले चरण में भारतीय रक्षा अनुसन्धान संगठन (डीआरडीओ) ने ओड़िशा के तट पर इंटीग्रेटेड एअर डिफेंस वेपन सिस्टम (आइएडीडब्ल्यूएस) का सफल परीक्षण किया. आगामी दस वर्षों में अर्थात 2035 तक देश के प्रमुख स्थलों, सामरिक और नागरिक क्षेत्रों को तकनीकी के अत्याधुनिक स्वरूप से सुसज्जित सुरक्षा कवच प्रदान किया जाएगा. इंटीग्रेटेड एअर डिफेंस वेपन सिस्टम अर्थात आइएडीडब्ल्यूएस वह रक्षा प्रणाली है जो एक दिशा में कार्य न करते हुए समग्रता में कार्य करेगी. इसके द्वारा किसी भी दुश्मन देश द्वारा एक साथ छोड़े गए अनेकानेक ड्रोन हमलों के विरुद्ध जवाबी कार्यवाही की जा सकेगी. व्यापक रूप से वायु रक्षा प्रदान करने के लिए इस प्रणाली को रडार, मिसाइल, कमांड-कंट्रोल यूनिट के द्वारा लक्ष्य को सटीक रूप से चुनने, उस पर निशाना साधने के सन्दर्भ में निर्मित किया जा रहा है.

 



विगत लम्बे समय से वैश्विक सुरक्षा की स्थितियों, सामरिक वातावरण, भू-राजनीतिक परिदृश्य में जिस तरह के बदलाव देखने को मिल रहे हैं, उसमें सुरक्षा तंत्र का, सुरक्षात्मक प्रणालियों का विशेष महत्त्व बढ़ता जा रहा है. दो देशों के मध्य आपसी तनाव बढ़ने की स्थिति में, युद्ध की स्थिति में अब देखने में आ रहा है कि ड्रोन, मिसाइल के हमले आम बात हो गई है. विश्व भर में चल रहे अनेक युद्धों, देशों के आपसी तनाव के दौरान किये जाने वाले हमलों में इनका चलन बढ़ा ही है. अभी हाल ही में ऑपरेशन सिन्दूर के दौरान देखने में आया था कि पाकिस्तान की तरफ से अनेक ड्रोन, मिसाइल ने केवल सैनिक क्षेत्रों में बल्कि नागरिक इलाकों में भी छोड़ी गईं. ऐसे में आवश्यक है कि न केवल सामरिक क्षेत्र बल्कि नागरिक क्षेत्र भी सुरक्षित रहें. सुदर्शन चक्र मिशन का मूल उद्देश्य यही है कि आने वाले समय देश के न केवल सामरिक इलाकों को बल्कि रिहायशी क्षेत्रों को भी सुरक्षात्मक रूप से मजबूत बनाया जाये.

 

वर्तमान दौर में युद्ध जैसी स्थिति में दुश्मन देश के द्वारा केवल सैनिक प्रतिष्ठानों को ही निशाना नहीं बनाया जाता है बल्कि बिजली व्यवस्था, ग्रिड, संचार साधनों, खाद्य आपूर्ति, यातायात, स्वास्थ्य सुविधाओं आदि को भी निशाना बनाया जाता है. ऐसा करने के पीछे दुश्मन की मानसिकता समूची व्यवस्था को पंगु बना देना होता है. युद्धकाल में अथवा किसी भी तरह की तनाव जैसी स्थिति में इस तरह की विषम से देश को बचाने के लिए सुदर्शन चक्र जैसी सुरक्षा प्रणाली की, एक सुरक्षा कवच की महती आवश्यकता है. यद्यपि सुदर्शन चक्र मिशन का अभी पहला चरण ही सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ है तथापि आने वाले दस वर्षों में इसके द्वारा दुश्मन के मिसाइल-ड्रोन हमलों का जवाब देने, साइबर हमलों को निष्प्रभावी बनाने, हैकिंग के खतरों को दूर करने आदि का कार्य पूर्ण क्षमता के साथ किया जाना सम्भव हो सकेगा. अब जबकि सुदर्शन चक्र जैसा सुरक्षा तंत्र अपने प्रभावी रूप में कार्य करने के लिए व्यावहारिक रूप धारण कर चुका है तो निश्चित ही यह अत्याधुनिक तकनीक, सशक्त सुरक्षा प्रणाली के द्वारा भारतीय सामरिक ढाँचे का प्रमुख आधार बनेगा.


17 अगस्त 2025

फिल्म शोले उम्र में हमसे दो वर्ष छोटी है

इस समय उम्र में हमसे दो वर्ष छोटी फिल्म 'शोले' की चर्चा चारों तरफ बनी हुई है. इसका कारण सभी को ज्ञात है. इस फिल्म के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला, इसकी तमाम वे जानकारियाँ भी निकल कर सामने आईं जो आम दर्शकों तक, पाठकों तक नहीं पहुँच पाती हैं.

 

'शोले' हमारी भी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. कितनी-कितनी बार देख चुके, इसकी गिनती नहीं; कितनी-कितनी बार देख सकते हैं, इसका भी आकलन नहीं. यहाँ फिल्म की अनावश्यक चर्चा (अनावश्यक इसलिए क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो आपको पता न हो) करने के पहले बरसों पहले की अपने मित्र पुनीत बिसारिया की बात को यहाँ रखना चाहेंगे.....

 

बहुत साल पहले (अब तो समय भी याद नहीं) पुनीत ने एक दिन फोन करके कहा कि 'कुमारेन्द्र फिल्मों पर लिखना शुरू करो.' उस समय पुनीत ने फिल्मों पर लिखना शुरू ही किया था. उन्होंने आगे कहा कि 'साहित्य और फिल्मों का साथ हमेशा से रहा है, इस पर काम करना, लिखना शुरू करो.' हमने अपने परिचित अंदाज में हँसते (ठहाका मारते) हुए कहा कि 'यार तुम लिख तो रहे हो, हमें काहे जबरन परेशान करते हो. हम लिखने लगे तो तुम्हारा नाम कट जायेगा.' पुनीत भी अपनी शैली में हँसे और बोले कि 'आप जैसे मित्र के लिए नाम कटता हो तो कट जाए.'

 

बहरहाल, पुनीत पूरी तन्मयता से इस क्षेत्र में लगे रहे और आज उनका पर्याप्त नाम इस क्षेत्र में है. हम तो बीच में जुगाली जैसा कुछ-कुछ करने लगते हैं और यदा-कदा मिलती वाह-वाह से ही प्रसन्न हो लेते हैं. (हालाँकि पुनीत हमारे इसी व्यवहार, रवैये से नाराज भी हो जाते हैं. वैसे नाराज तो बहुत से मित्र हो जाते हैं, पर क्या करें अंदाज है अपना कि बदलता नहीं.) वैसे आश्चर्य करने वाली बात आप सबको बता दें कि महाविद्यालय में एम.ए. के विद्यार्थियों को एक प्रश्न-पत्र के रूप में सिनेमा पर ज्ञान हम ही देते हैं. (ये और बात है कि कुछ लोग 'असमर्थ' हैं जो ये देख नहीं पाते.)

 



खैर, दो-चार पंक्तियाँ शोले पर.... वो ये कि अभी तक कि तमाम सारी देखी-अनदेखी फिल्मों के बीच यही एकमात्र फिल्म ऐसी लगी जिसमें सभी पात्र अमरत्व पा गए. इन पात्रों ने भले एक-दो संवाद बोले, भले दो-चार मिनट को परदे पर आये मगर अमर हो गए.

 

"सूरमा भोपाली हम ऐसेही नहीं हैं."

"हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं."

"हमने आपका नमक खाया है सरदार."

"होली कब है?"

"तुम्हारा नाम क्या है बसंती?"

 

ऐसे बहुत से संवादों के बीच सांभा, मौसी, कालिया, अहमद, रहीम चाचा सहित बहुत सारे किरदार आज भी हम सबके दिलों में बसे हुए हैं. शुरूआती असफलता के बाद भी हताशा में न घिरकर फिल्म चलती रही और फिर रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनाती रही. इस सफलता के बीच 'शोले' के हिस्से में एक अजब तरह की असफलता भी आई. वो ये कि फिल्म फेयर की लगभग सभी केटेगरी में नॉमिनेट होने पर भी जबरदस्त सफलता के बाद भी मात्र एक पुरस्कार (एडिटिंग का) ही प्राप्त कर सकी.

 

इस फिल्म की सफलता से एक बात सीखने लायक है कि असफलता से निराश नहीं होना है, लगातार आगे बढ़ता रहना है. दूसरे यह कि जबरदस्त सफलता भी सम्मान-पुरस्कार दिलवाने का पैमाना नहीं है.


13 अगस्त 2025

बदलाव एवं उपलब्धियों भरी सुखद यात्रा

देश के गौरवशाली इतिहास की छत्रछाया में अमृतकाल जैसी अवधारणा संग स्वतंत्रता का उत्सव जोर-शोर से मनाया जा रहा है. यह समय गौरव करने का इसलिए भी है क्योंकि वैश्विक पटल से अनेकानेक सभ्यताएँ लुप्त हो गईं किन्तु भारतीय संस्कृति, सभ्यता तमाम चोटों, आघातों को सहने के बाद भी अपनी वैभवशाली गाथा को साथ लिए आगे बढ़ रही है. बहुत से लोगों के लिए इसे भले राजनैतिक कदम, सरकारी एजेंडा कहा जाता हो मगर स्वतंत्रता के उत्सव को उमंग-उत्साह के साथ ही मनाये जाने की आवश्यकता है. यह एक तरफ जहाँ हमारी प्राचीन वैभवशाली संस्कृति, सभ्यता से परिचय कराता है वहीं वर्तमान युवा पीढ़ी को हमारे वीर-वीरांगनाओं का वह बलिदान याद करवाता है, जिसके चलते आज ऐसे उत्सव मना रहे हैं.

 

स्वतंत्रता के इन वर्षों में बहुत सी उपलब्धियाँ हैं जिनका सुखद एहसास रोम-रोम को पुलकित कर देता है. बावजूद बहुत सारी उपलब्धियों के आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो गुलामी के दिनों को, अंग्रेजों के शासन को सही ठहराते हैं. ऐसे में सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि क्या वाकई देश ने आज़ादी से अब तक कुछ पाया नहीं है? क्या अभी तक की यात्रा में किसी तरह की कोई उपलब्धि हासिल नहीं हुई है? विगत उपलब्धियों, अनुपलब्धियों को यदि पूर्वाग्रह मुक्त होकर समग्र रूप में देखें तो हम लोगों को निराशा नहीं होगी. यह सबसे बड़ी उपलब्धि कही जाएगी कि जब देश स्वतंत्र हुआ तब देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर निर्भर थी. आज स्थिति यह है कि कृषिप्रधान कहे जाने के बाद भी देश का आर्थिक ढाँचा अकेले कृषि आधारित नहीं है, अन्य क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है. वर्तमान में अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 27 प्रतिशत, सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 54 प्रतिशत है.

 



शिक्षा के बिना उन्नति, विकास की कल्पना करना संभव नहीं. नालंदा, तक्षशिला जैसे शैक्षणिक संस्थानों के नष्ट कर दिए जाने के बाद महसूस हो रहा था कि शायद देश का शैक्षणिक विकास बहुत देर में हो. इस आशंका को विगत वर्षों की यात्रा में गलत सिद्ध किया गया है. प्राथमिक क्षेत्र से लेकर उच्च शिक्षा और शोध क्षेत्र तक देश में पर्याप्त विकास हुआ है. आज़ादी के समय देश में साक्षरता दर लगभग 18.3 प्रतिशत थी जो वर्तमान में लगभग 78 प्रतिशत है. चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में 1950 में देश में केवल 28 मेडिकल कॉलेज थे. नेशनल मेडिकल काउंसिल के अनुसार 2024-25 में 766 मेडिकल कॉलेज हैं, इनमें से 423 सरकारी और 343 निजी मेडिकल कॉलेज हैं. क्या इसे विकास या उपलब्धियों के रूप में नहीं देखा जायेगा? इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबन्ध संस्थान, कृषि संस्थान, उच्च शैक्षणिक संस्थानों ने भी संख्यात्मक, गुणात्मक रूप में पर्याप्त विकास किया है.

 

आज़ादी के बाद से लगातार अनेकानेक क्षेत्रों में विकास और बदलाव होते रहे हैं. तकनीक के मामले में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले. किसी समय दूरसंचार माध्यम की अपनी सीमितता थी वहीं आज इस क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. समाज में गिने-चुने लोगों के घरों में बेसिक फोन की सुविधा हुआ करती थी जो आज हर हाथ में मोबाइल के रूप में परिवर्तित हो गई है. इंटरनेट सुविधा, उसकी स्पीड के द्वारा न केवल धरती पर वरन अन्तरिक्ष क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव देखने को मिले. ज्ञान-विज्ञान में भी देश में हुए बदलाव प्रत्येक नागरिक को गौरवान्वित कर सकते हैं. किसी समय में सेटेलाईट भेजे जाने के लिए हम दूसरे देशों की तकनीक पर निर्भर हुआ करते थे जबकि आज हमारे केंद्र अन्य देशों को यह सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं. परमाणु परीक्षण, टेस्ट ट्यूब बेबी, मंगल ग्रह का अभियान, अन्तरिक्ष स्टेशन पर किसी भारतीय का जाना, बुलेट ट्रेन की तैयारी, ओलम्पिक में पदक जीतना, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 का हटना आदि वे स्थितियाँ हैं जिनको उपलब्धि के रूप में ही स्वीकारा जाता है.

 

कहते हैं न कि सफ़ेद पटल पर एक छोटा सा काला बिंदु भी बहुत दूर से चमकता है, कुछ ऐसा हाल इन उपलब्धियों का है, लोगों की मानसिकता का है. ये सच है कि तकनीकी विकास के दौर में हमारे यहाँ सामाजिक विकास में गिरावट देखने को मिली है. साक्षरता का स्तर बढ़ा है मगर स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में अंतर भी बढ़ा है, महिलाओं-बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ बढ़ी हैं. एक तरफ हमें अन्तरिक्ष में अपने कदम रखे हैं तो दूसरी तरफ हमने अपनी ही धरती को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया है. कृषि, खाद्यान्न के मामले में हम यदि आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं तो हम जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं रख सके हैं. हमारा आर्थिक ढाँचा वैशिक स्थितियों को देखते हुए बहुत सुदृढ़ है मगर लगातार होते घोटालों को हम नहीं रोक सके हैं. मोबाइल, इंटरनेट क्रांति ने समूचे विश्व को एक ग्राम की तरह बना दिया है मगर आपसी भाईचारे-सौहार्द्र को हम मजबूत नहीं कर सके हैं, उसमें अश्लीलता की, अपराध की दीमक लगा दी है.

 

ऐसे कुछ और पहलू भी हैं, जिनके आधार पर बहुत सारे लोग देश की वास्तविक उपलब्धियों को विस्मृत कर जाते हैं. वे भूल जाते हैं हमारी लोकतान्त्रिक शक्ति को जहाँ अंतिम पायदान के व्यक्ति तक को भी अवसर उपलब्ध हैं. ये और बात है कि संवैधानिक नियमों की आड़ में यहाँ एक निर्दलीय विधायक भी मुख्यमंत्री बन जाता है मगर यही संवैधानिक खूबसूरती भी है कि कोई ऑटो चलाने वाला, आदिवासी समाज से आने वाला, अत्यंत पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाला भी जनप्रतिनिधि बन कर सदन में पहुँचता है, देश का प्रथम नागरिक बनता है. निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विगत वर्षों की भदलाव भरी यात्रा सुखद रही है, उपलब्धियों भरी रही है. इस यात्रा में यदा-कदा मिलते झटकों को भी सफ़र का हिस्सा समझते हुए उनको स्वीकार करना होगा, उनका भी एहसास करते हुए आगे बढ़ना होगा.