18 जनवरी 2025

मीडिया की आड़ में महाकुम्भ की नौटंकी

मीडिया में जिस तरह से असंवेदनशील लोग घुस चुके हैं, उससे विषयों का लगातार क्षरण हो रहा है. हर हाथ में स्मार्ट फोन का कैमरा, इंटरनेट, सोशल मीडिया का मंच होने से सभी को किसी न किसी मीडिया मंच का मालिक बना रखा है. जहाँ मन हुआ मुँह उठाकर घुस गए. इसी मुँह उठाकर घुसने की प्रवृत्ति के कारण विषयों का गाम्भीर्य गायब होता जा रहा है. इसका उदाहरण प्रयागराज में चल रहा पावन महाकुम्भ है. जिसे देखो वो मुँह उठाये खुद को स्वयंभू मीडिया चैनल घोषित करके गम्भीरता से इतर बस दो कौड़ी की रील बना-बना ठेलने में लगा है. किसी को माला बेचती युवती की आँखें दिख रही हैं, किसी को IIT वाला बाबा दिख रहा है, किसी को स्त्री-सौन्दर्य आकर्षित करने में लगा है.

 



मोबाइल के सहारे क्रांति करते कथित मीडिया व्यक्तियों को शायद जानकारी नहीं होगी कि महाकुम्भ किसे कहते हैं? नागा बाबा कौन हैं? अखाड़ों का वास्तविक अर्थ क्या है? पूरे महाकुम्भ में मात्र कुछ दिन ही विशेष स्नान क्यों होते हैं? त्रिवेणी में तीसरी नदी कहाँ है? और भी बहुत सी महत्त्वपूर्ण जानकारी इन कम-दिमाग वालों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं. इनको बस ये पता करना है कि किस युवती की आँखें ज्यादा मोहक हैं? कौन सी युवती सर्वाधिक मोहक साध्वी है? देह के आकर्षण में खोये ये बददिमाग कथित मीडियामैन महाकुम्भ में भी सिर्फ रील बनाने का 'माल' खोज रहे हैं. इनको महाकुम्भ की गहराई से कोई मतलब नहीं. महाकुम्भ के भावार्थ से कोई लेना-देना नहीं. प्रयागराज की गम्भीरता का कोई मोल नहीं? त्रिवेणी के अलौकिक सौन्दर्य का कोई महत्त्व नहीं.

 


08 जनवरी 2025

सोशल मीडिया की कैद में बच्चे

इंटरनेट के युग में कुछ समय पहले तक सोशल मीडिया जैसे शब्द की अवधारणा नहीं थी. समय के साथ जैसे-जैसे इंटरनेट तकनीक ने विकास-गति को पकड़ा, अनेक नए-नए शब्द जुड़ते चले गए. सोशल मीडिया ऐसे ही शब्दों में से एक है. आज स्थिति यह है कि लोगों का अधिकतम समय सोशल मीडिया पर बीत रहा है. ऐसा शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि किसी दिन एक ऐसा मंच उपलब्ध होगा जिसके माध्यम से अपने मित्रों से बातचीत की जा सकेगी, जहाँ से अपने मन की खरीददारी भी हो सकेगी. पढ़ने-लिखने का माध्यम भी यह मंच बनेगा. आज सोशल मीडिया दुनिया भर के लोगों से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण मंच बना हुआ है. इस महत्त्वपूर्ण मंच के सुखद पहलुओं के बीच एक दुखद पहलू यह भी सामने आया कि सोशल मीडिया की गिरफ्त में बच्चे बहुतायत में हैं. उनके द्वारा दिन का बहुत सारा समय सोशल मीडिया पर गुजारा जा रहा है.

 

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ पीडियाट्रिक रिसर्च की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग 88 प्रतिशत बच्चे सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं. इनमें से लगभग 81 प्रतिशत व्हाट्सएप का और लगभग 55 प्रतिशत फेसबुक का उपयोग कर रहे हैं. देश में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार सोशल मीडिया, ऑनलाइन गेमिंग आदि का उपयोग करने वाले बच्चे नौ से सत्रह वर्ष की उम्र के हैं, जो प्रतिदिन तीन घंटे से अधिक समय यहाँ बिताते हैं. डिजिटल युग में तेजी से उभरते इन आँकड़ों को सुखद तो नहीं कहा जा सकता है. ऐसे में जबकि कोरोनाकाल की ऑनलाइन शैक्षिक व्यवस्था के बाद से लगभग प्रत्येक बच्चे के हाथ में स्मार्टफोन, इंटरनेट की सुविधा सहज रूप में उपलब्ध है तो उसका सोशल मीडिया पर आना भी सहज ही है. सोशल मीडिया पर आने की सहजता और सोशल मीडिया का नियंत्रण मुक्त होना निश्चित रूप में बाल-मन, किशोर-मन के लिए घातक है. ऑनलाइन शिक्षा की आड़ में वे क्या देख रहे हैं, किस वेबसाइट पर जा रहे हैं इसे देखना-समझना आवश्यक है. इंटरनेट की दुनिया में मनोरंजन के नाम पर जिस तरह से ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म ने अपना अशालीन रंग दिखलाया है उसका नकारात्मक असर बच्चों परकिशोरों पर देखने को मिल रहा है. ओटीटी की वेबसीरीज की अश्लीलता को, गालियों को, अश्लील भाव-भंगिमा को सोशल मीडिया में तैरती बहुतायत रील्स में देखा जा सकता है. गालियों, अश्लील बातचीत को लेकर समाज में जिस तरह की शर्मलिहाज बना हुआ थावह लगभग समाप्त हो गया है. इसके चलते इनके स्वभाव में, दैनिक-चर्या में फूहड़ता, अश्लीलता, हिंसा, क्रूरता आदि दिखने लगी है.

 



बच्चों के सोशल मीडिया पर बढ़ते चलन को देखते हुए पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया में सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग प्रतिबंधित करने सम्बन्धी एक विधेयक पारित किया गया. इस विधेयक के आने के बाद ऑस्ट्रेलिया के सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चे फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक आदि जैसे सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे. इस विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि सोशल मीडिया कम्पनियाँ बच्चों को सोशल मीडिया इस्तेमाल पर रोक नहीं लगा पाती हैं तो उन पर भारी जुर्माना लगाया जायेगा. ऐसा वैश्विक रूप में किसी देश द्वारा पहली बार किया गया है. इस विधेयक के पारित होने के बाद बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग को प्रतिबंधित किये जाने सम्बन्धी बहस भी छिड़ी. सैद्धांतिक रूप में यह कदम भले ही सार्थक लगता हो मगर व्यावहारिक रूप में इसे अमल में लाना मुश्किल ही है. आखिर किसी सोशल मीडिया कम्पनी-एजेंसी द्वारा यह कैसे निर्धारित किया जायेगा कि सम्बंधित सोशल मीडिया मंच का इस्तेमाल सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चे द्वारा नहीं किया जा रहा है? तकनीकी ज्ञान में पूर्णतः सक्षम आज के सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए छद्म नाम, जन्मतिथि आदि के द्वारा सोलह वर्ष से अधिक का होने में कितना समय लगेगा.

 

ऐसे में यदि समाज, सरकार वाकई इसे लेकर गम्भीर है कि बच्चों का बहुतायत समय सोशल मीडिया पर गुजर रहा है तो उसे किसी विधेयक जैसी सैद्धांतिक स्थिति के साथ-साथ कुछ व्यावहारिक कदमों को भी उठाना होगा. स्मार्टफोन की पैरेंटल कंट्रोल सुविधा को और सशक्त करना होगा. इसके द्वारा अभिभावकों को भी अपने बच्चों के स्मार्टफोन में तमाम वेबसाइट को, सोशल मीडिया मंचों को प्रतिबंधित करना होगा. इसके साथ-साथ बच्चों को सोशल मीडिया से, इंटरनेट से होने वाले नुकसान के बारे में भी समझाया जाना होगा. आपराधिक दुनिया की जानकारी देते हुए उनके डिजिटल अरेस्ट, साइबर क्राइम, चाइल्ड पोर्नोग्राफी आदि जैसी नकारात्मकता से भी परिचित करवाना होगा. जरा-जरा सी बात को, घटना को सोशल मीडिया पर अपलोड करने, अपने दोस्तों, परिजनों के साथ शेयर करने की हानियों से परिचित करवाना होगा. उनकी इस प्रवृत्ति को रोकने का कार्य भी करना होगा. इसके साथ-साथ बच्चों को सोशल मीडिया की आभासी दुनिया से इतर वास्तविक दुनिया की तरफ ले जाना होगा. उनको परिवार के साथ अधिक से अधिक समय बिताने को प्रोत्साहित करना होगा. मोबाइल, कम्प्यूटर, ऑनलाइन गेमिंग के स्थान पर मैदानों में खेलने को वरीयता देनी होगी. इस तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का कम से कम उपयोग करने का कदम उठाना होगा. शिक्षा, संस्कारों को मोबाइल, कम्प्यूटर के स्थान पर परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा, शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से दिए जाने का कार्य पुनः करना होगा. पारिवारिक वातावरण को सकारात्मक, संस्कारित बनाते हुए बच्चों को सोशल मीडिया के चंगुल से मुक्त करवाया जा सकता है.

 


05 जनवरी 2025

अपराध के व्यामोह में युवा पीढ़ी

विगत कुछ समय में बच्चों, किशोरों से संदर्भित जिस तरह की घटनाएँ सामने आई हैं, उनको देखकर ऐसा महसूस हो रहा है कि भले ही समाज में विकास का क्रम बना हुआ है मगर नैतिकता में, सामाजिकता में निरंतर गिरावट आ रही है. सामाजिक और नैतिक रूप से इस पीढ़ी को उस तरह से अनुशासित नहीं किया जा सका है, जैसी कि समाज में अपेक्षा होती है. इस पीढ़ी को नैतिक रूप से वैसा जिम्मेवार नहीं बनाया गया है जैसा कि किसी इंसान के लिए अपेक्षित होता है. सामाजिकता के नाम पर भी यह पीढ़ी संज्ञा-शून्य ही नजर आती है. ऐसा नहीं है कि वर्तमान समय के समस्त बच्चों, किशोरों के सन्दर्भ में ये सही है मगर बहुतायत में इस पीढ़ी के साथ यही समस्या बनी हुई है. उसके लिए नैतिकता, सामाजिकता से कहीं अधिक बड़ी बात उनका अपना मनोरंजन, अपना पैशन हो गया है. इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार बैठे होते हैं, बिना ये जाने-समझे कि उनका एक गलत कदम किसी की जान भी ले सकता है.

 

इस तरह से भाव-विहीन होती जा रही पीढ़ी के किशोरों, बच्चों द्वारा की गई हरकतों की संख्या उँगलियों में गिने जाने से बहुत आगे निकल चुकी है. बीते दिनों पुणे का केस देशव्यापी चर्चा का विषय बना हुआ था जहाँ एक किशोर की तेज रफ़्तार कार से दो व्यक्तियों की मृत्यु हो गई. यहाँ गौरतलब ये है कि उस किशोर को जरा सा भी भय समाज का अथवा अपने परिवार का नहीं था कि उसके द्वारा नशे में कार को तेज रफ़्तार से चलाया जा रहा है, जबकि वह खुद नाबालिग है और अभी उसका कार ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं बना है. ऐसी गैर-कानूनी स्थिति से उस लड़के के भयभीत न होने की स्थिति उस समय स्पष्ट हो गई जबकि वह अपने अमीर पिता के रसूख के चलते न केवल जमानत पर रिहा हो गया बल्कि मेडिकल टेस्ट में भी एल्कोहल न होना पाया गया. इससे भी बड़ी बात ये हुई कि अदालत द्वारा उसको तीन सौ शब्दों का निबंध लेखन, कुछ दिनों यातायात पुलिस के साथ नियम-कानून सीखने का काम सजा के तौर पर मिला. एक और घटना के रूप में उत्तराखंड के एक स्कूल की घटना का जिक्र करना भी यहाँ आवश्यक हो जाता है जहाँ पर एक लड़के द्वारा अपनी ही कक्षा की चौदह वर्ष की लड़की का अश्लील वीडियो बनाकर वायरल कर दिया गया. बदनामी के डर से उस लड़की ने आत्महत्या कर ली. इस मामले में अदालत द्वारा उस लड़के को इस आधार पर जमानत नहीं दी गई क्योंकि अदालत ने उसे अनुशासनहीन माना और जमानत पर उसकी रिहाई को समाज के लिए खतरा बताया




ऐसी यही दो घटनाएँ ही नहीं हैं बल्कि लगभग रोज ही इस तरह की घटनाएँ हमारे आसपास हो रही हैं. यदि इन घटनाओं के मूल में देखें तो स्पष्ट रूप से समझ में आएगा कि जिस तरह की जीवन-शैली वर्तमान में होती जा रही है, उससे परिवार में, समाज में एक-दूसरे के लिए अब समय ही नहीं रह गया है. संयुक्त परिवारों के बिखरने के साथ-साथ सामाजिक ढाँचे में हुए विघटन ने भी अपने पड़ोसियों से संबंधों में मधुरता का, दायित्व का लोप करवा दिया है. इसके चलते भी मोहल्ले में, आसपास के घरों में बच्चों पर ध्यान दिए जाने की सामाजिकता समाप्त ही हो चुकी है. सामाजिक विकास के क्रम में अब जबकि ये पढ़ाया जाने लगा हो कि अभिभावक और बच्चे अब दोस्त हैं, बचपन की गोद में खेलते बच्चों को भी उनके स्टेटस का, उनकी इज्जत-बेइज्जती का पाठ सिखाया जाने लगा हो तो स्वाभाविक सी बात है कि बच्चों में, किशोरों में खुद में एक तरह का जिम्मेवार होने का भाव जागने लगता है. देखा जाये तो यह भाव-बोध उनको एक तरह की नकारात्मकता की तरफ ले जाता है. यही कारण है कि कम उम्र में नशे का शिकार हो जाना, तेज रफ़्तार से वाहन चलाना, शारीरिक संबंधों का बनाया जाना, रोमांचकता के लिए जीवन को खतरे में डालना, अपने शौक और थ्रिल के लिए आपराधिक कृत्य में संलिप्त हो जाना आदि सहजता से समाज में दिखने लगा है.

 

दरअसल कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान जिस तरह शिक्षा के लिए मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट को बच्चों के लिए अनिवार्य सा बना दिया गया था, वह लॉकडाउन की समाप्ति के बाद यथावत बना हुआ है. इसका सुखद परिणाम सामने भले ही न आया हो मगर अनेकानेक स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ मानसिक समस्याओं ने, सामाजिक समस्याओं ने, आपराधिक घटनाओं ने अवश्य ही जन्म ले लिया है. चौबीस घंटे इंटरनेट की, मोबाइल की उपलब्धता ने बच्चों, किशोरों को अपनी उम्र से पहले ही युवा कर दिया है. इसके इनके स्वभाव में, दैनिक-चर्या में फूहड़ता, अश्लीलता, हिंसा, हैवानियत, नृशंसता, क्रूरता आदि का समावेश होता जा रहा है. इसकी दुखद परिणति हिंसक, आपराधिक घटनाओं के रूप में हम सभी आये दिन देख रहे हैं. समाज को जल्द से जल्द इस पर विचार करते हुए संस्कारित, सामाजिक वातावरण का निर्माण अपने ही परिवार से करना पड़ेगा. इस तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का कम से कम उपयोग करने का कदम उठाना होगा. शिक्षा, संस्कारों को मोबाइल, कम्प्यूटर के स्थान पर परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा, शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से दिए जाने का कार्य पुनः करना होगा.

 


01 जनवरी 2025

संकल्प लें परिवार बचाने का

पूरे हर्ष-उल्लास के साथ जिस वर्ष का स्वागत किया गया था, वो वर्ष हम सबसे विदा ले चुका है. अनेक खट्टी-मीठी घटनाओं, हँसाती-रुलाती यादों के साथ वह वर्ष भी इतिहास बन गया है. नया वर्ष अनेकानेक संभावनाएँ, आशाएँ, योजनाएँ आदि लेकर पूरे हर्षोल्लास से हम सबके जीवन में प्रवेश कर चुका है. पुराने को अलविदा और नए के स्वागत के बीच की बारीक रेखा पर बहुतायत लोगों द्वारा गए वर्ष में अपने उपलब्धियों, नाकामियों का स्मरण किया जायेगा, उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जायेगा. इसी तरह से नव वर्ष के लिए बहुत सारे संकल्प, नवीन कार्य मन-मष्तिष्क में बन-बिगड़ रहे होंगे.

 

नव-वर्ष के लिए संकल्पों का निर्धारण करना व्यक्ति के मनोभावों का एक हिस्सा रहा है. उसके द्वारा अपने व्यवहार, अपनी कार्य-क्षमता, अपनी जीवन-शैली, अपनी आदत आदि को लेकर किसी न किसी नए संकल्प का निर्माण करके उसी के सादृश्य कार्य करते रहने का वादा खुद से किया जाता है. इस बार भी बहुत सारे संकल्प किये गए होंगे, बहुत से कार्यों को संपन्न किये जाने का आश्वासन खुद से किया गया होगा. आइये, इस बार हम सभी लोग मिलकर परिवार को बचाने का, परिवार के पुनर्निर्माण का, परिवार के सशक्तिकरण का संकल्प लें. संभव है कि इस संकल्प प्रस्ताव को उतनी गंभीरता से विचारार्थ न लिया जाये, जितनी गंभीरता की आवश्यकता आज परिवार बचाने को लेकर होनी चाहिए. पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जल-वायु आदि को बचाने की मुहिम चलाते-चलाते समाज बेटियों को बचाने की स्थिति में आ गया है. एक पल को विचार करिए कि क्या कभी सोचा गया था कि ‘बेटी बचाओ’ जैसा नारा समाज में देना पड़ेगा? इसी के साथ सोचिए कि वर्तमान स्थितियाँ ऐसी नहीं बन चुकी हैं कि कल को ‘परिवार बचाओ जैसी मुहिम भी चलानी पड़ेगी?

 

वर्तमान परिदृश्य में रोजमर्रा में बेटियों के यौन-शोषण की खबरें लगातार सामने आ रही हैं. अनेकानेक घटनाओं में परिवार के सदस्य ही संलिप्त पाए जा रहे हैं. बचपन एकाकी, गुमसुम होने के साथ-साथ शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से कमजोर होता जा रहा है. खेलने-कूदने की उम्र में उसका भी हताश-निराश होना दिख रहा है. नंबर-गेम के चलते उसके मन-मष्तिष्क पर एक तरह का दबाव बना ही रहता है. इसके चलते एकाधिक घटनाओं में बच्चों के द्वारा भी गलत कदम उठा लिए जाने का कृत्य सुनाई पड़ता है. चिंता ये दिखाई पड़ती है कि आज के बच्चे हिंसात्मक प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं. खेलकूद के दौरानस्कूल में आपसी प्रतिद्वंद्विता के समयकिसी भी बात पर एक-दूसरे से झगड़ जाना बचपन की आम प्रवृत्ति है. ऐसा न केवल दोस्तों में वरन सगे भाई-बहिनों के बीच भी देखने को मिलता है. अब स्थिति इस स्वाभाविक, बाल-सुलभ झगड़े से कहीं आगे पहुँच चुकी है. अब बालमन हत्यारी हिंसात्मक प्रवृत्ति का होता जा रहा है.

 

युवाओं का हाल भी सशक्त अथवा सहज नहीं कहा जा सकता है. जरा-जरा सी बात पर अवसाद में घिर जाना उनके लिए आम बात होती जा रही है. नशे की गिरफ्त में चले जाना, आपराधिक कृत्यों की तरफ मुड़ जाना, आत्महत्या कर लेना आदि ऐसे युवाओं का अंतिम लक्ष्य होता जा रहा है. दरअसल समाज ने आधुनिक बनने की कोशिश में पहनावारहन-सहनशालीनतासंस्कृतिभाषारिश्तोंमर्यादा आदि तक को दरकिनार करने से परहेज नहीं किया है. आधुनिक संस्कारों में घुलमिल जाने की चकाचौंध में हमारे परिवारों की दिव्यता कहीं गायब ही हो गई है. युवाओं की जोशपूर्ण मस्ती के बीच परिवार के बुजुर्गों का व्यक्तित्व सिमटने सा लगा है. पश्चिमी सभ्यतासंस्कारों को अपनाने की कोशिशों में हमें अपने मूल को नहीं भूलना चाहिए. बुजुर्गों की अहमियत को विस्मृत नहीं करना चाहिए. हम बुजुर्गों के प्रति अनभिज्ञता जैसा भाव अपनाने लगे हैं, इससे भी पारिवारिकता पर संकट दिखाई देने लगा है.

 

ऐसी स्थितियों में परिवार के सभी सदस्यों को एकाकी परिवार के स्थान पर संयुक्त रूप में रहने पर विचार करना होगा. वर्तमान समय में जबकि आर्थिक स्थितियाँ इन्सान को बुरी तरह से अकेलेपन की तरफ धकेलने में लगी हैं तब न सही संयुक्त परिवार की तरह किन्तु हफ्ते-दस दिन में बुजुर्गों, बच्चों के साथ दोस्ताना माहौल में रहने का प्रयास किया जा सकता है. घर के छोटे-छोटे कामों में उनको शामिल किया जाना चाहिए जिससे उनके अन्दर सामूहिकता की भावना जगेउनमे कार्य करने के प्रति रुचि बढ़े. नए वर्ष में कोई भी संकल्प लें मगर साथ में परिवार को एकजुट रखने का, परिवार को बनाये रखने का, बचाए रखने का भी संकल्प लेना होगा. इससे पहले कि हमारे परिवार के बीच में अकेलेपन का भयावह साया किसी सदस्य को अपनी गिरफ्त में लेकिसी बच्चे को अवसाद की तरफ ले जायेकिसी युवा को अपराध की तरफ धकेलेहम सबको एकजुटता की आवश्यकता है. हम सभी को सहयोग कीअपनत्व की महफ़िल सजाकर अपने लोगों को अपने लोगों के बीच उपस्थित करना होगा. एक-दूसरे से करते हैं प्यार हम, एक-दूसरे के लिए बेक़रार हम या फिर साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जायेगा... आदि गीतों की पंक्तियाँ स्मृति में बसाकर सबको एकसाथ गाना-गुनगुनाना होगा.

30 दिसंबर 2024

रामलला हम आ गए हैं, मंदिर वहीं बना गए हैं

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद से ही मन में अभिलाषा थी श्रीराम जन्मभूमि मंदिर जाने की, रामलला के दर्शन करने की. इसके पीछे किसी तरह के भक्तिभाव से ज्यादा अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों, राष्ट्रीय भाव-बोध के संवाहक के दर्शन करने का भाव था. भीड़-भाड़ के दौरान उत्पन्न होने वाली अनेकानेक दिक्कतों से बचने के लिए ही प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन अयोध्या जाने का कार्यक्रम नहीं बनाया था. बहरहाल, लगभग एक वर्ष की समयावधि में ही रामलला के दर्शन करने का अवसर स्वतः ही सामने आ गया. छोटे भाइयों की व्यापारिक-व्यावसायिक मीटिंग का केन्द्र अयोध्या होने पर उनके द्वारा साथ चलने का स्नेहिल प्रस्ताव सामने रखा गया, जिसे बिना एक पल की देरी किये हमने लपक लिया. वर्ष 2024 के निपट अंतिम दिनों में बिना किसी पूर्व-योजना के अयोध्या धाम पहुँचना हो गया.

 





29 दिसम्बर की शाम को अयोध्या धाम में प्रवेश करने के बाद छोटे भाई तो अपनी व्यावसायिक मीटिंग के लिए निकल गए, हम चल दिए रामलला के दर्शन की इच्छा लिए, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर देखने की इच्छा में. समय का तारतम्य कुछ ऐसा रहा कि रामलला के दर्शन तो आज नहीं हो सके मगर वहाँ से सम्बंधित तमाम सारी जानकारियाँ एकत्र कर ली गईं, ताकि अगली सुबह पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार यहाँ आने पर किसी तरह की दिक्कत न हो. रात को नौ बजे के बाद भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु, दर्शनार्थी मंदिर परिसर में नजर आ रहे थे. अगले दिन सुबह-सुबह श्रीराम जन्मभूमि मंदिर प्रांगण में रामलला के दर्शन हेतु पहुँचना हो गया. आरम्भिक औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हम लोगों के कदम आगे की तरफ चल पड़े.

 

श्रीराम जन्मभूमि प्रांगण में आने के बाद कदम-कदम पर न चाहते हुए भी आँखें सजल हो उठतीं. हर कदम पर याद आता वो दौर जब कारसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. कैसे तुष्टिकरण की राजनीति ने अनेकानेक कारसेवकों को मौत की नींद सुला दिया था. मंदिर की तरफ़ बढ़ता हर कदम याद दिलाता कि किस तरह के कष्ट-अपमान सहने के बाद ये गर्व का क्षण देखने को मिला है. श्रीराम मंदिर विरोधी बात-बात पर बाबरी ढाँचे के ध्वंस को महज राजनीति बताते और कटाक्ष करते. ऐसे ही दौर में जबकि रामलला को एक टेंट की छाया उपलब्ध कराई जा रही थी, श्रीराम मंदिर के, रामलला के दर्शन हेतु अयोध्या जाना हुआ था. तत्कालीन प्रदेश सरकार की व्यवस्था इस तरह से थी जैसे रामलला के दर्शन के स्थान पर कोई अपराध करने आ गए हों. सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिसकर्मियों का व्यवहार, उनकी बातचीत, भाषा-शैली को कोई भी सामान्य व्यक्ति सुनना पसंद नहीं करेगा. उनके अन्दर ऐसा भाव था ही नहीं कि उनके सामने खड़ा व्यक्ति, रामलला के दर्शन करने को आया श्रद्धालु किसी भी तरह की सामान्य जानकारी ही माँग रहा है, न कि किसी तरह का अपराध कर रहा है.

 





सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस कर्मियों की अतिवादिता, अहंकार, अभद्र कार्य-शैली के चलते किसी दिन उस तंग गली के भीतर से टेंट में विराजमान रामलला के दर्शन हेतु पहुँचने को नकार दिया था. उन पुलिस कर्मियों के कथित अहंकार के ऊपर श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का गर्वीला भाव प्रचंड रूप में हावी था. उनके व्यवहार, भाषा-शैली के बाद वहीं तुरंत ही उनके अधिकारियों के समक्ष एक जिद को पकड़ लिया. उनसे स्पष्ट भाषा में कहा कि अब उसी दिन रामलला के दर्शन करने आयेंगे जबकि हम हैलीकॉप्टर से उतरेंगे और आप लोग हमारी सुरक्षा व्यवस्था में होंगे या फिर उस दिन आयेंगे जब श्रीराम जन्मभूमि मंदिर बन जायेगा. उस दिन अपनी जिद में रामलला के दर्शन किये बिना वापस लौट आए थे मगर मन में एक विश्वास था कि किसी न किसी दिन हम मंदिर के भीतर पहुँचकर रामलला के दर्शन करेंगे. उन तंग, सँकरी गलियों के स्थान पर चौड़ी, चमचमाती सड़कें हजारों-हजार श्रद्धालुओं को सहज भाव से आगे चलते रहने का स्थान उपलब्ध करवा रही थीं. किसी दिन पूरे अहंकारी भाव में तैनात खाकी सेना अब पूरे आदर-भाव के साथ एक-एक जानकारी देने को तत्पर थी. बात-बात पर सर-सर की अनुगूँज, हँसते-मुस्कुराते हुए हजारों की भीड़ को आगे का रास्ता बनाती सुरक्षा व्यवस्था से लग रहा था कि आज हिन्दू वास्तविक रूप में अपनी संस्कृति के प्रांगण में है.

 

उस सुसज्जित, भव्य प्रांगण में खड़े होकर स्मरण हो आया वो दौर जब छात्र-जीवन में कंठ से स्वर गूँजता था

रामलला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायेंगे”

बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का”


उस समय में जबकि रामलला के दर्शन करने के बाद सुरक्षा व्यवस्था की औपचारिता से बाहर निकले तो खुद को उसी प्रांगण के साथ समाविष्ट करने का भाव जागा. मोबाइल, कैमरे के द्वारा पावन परिसर को सदैव के लिए सुरक्षित कर लेने का भाव जागा. ऐसी स्थिति में भाव-व्हिवल मन-संवेदन, आँखों की नमी और कैमरे में सामंजस्य बिठाना कठिन हो रहा था. दोनों का समन्वय न बन पाने से ज़्यादा मुश्किल हो रहा था ख़ुद का उस पावन भूमि के साथ तादाम्य स्थापित कर पाना. बहरहाल, “तारीख़ नहीं बतायेंगे” जैसी कटुक्ति सुनने के दौर को सहने के बाद अब स्वतः ही “रामलला हम आ गए हैं, मंदिर वहीं बना गए हैं” की गर्वोक्ति निकलनी स्वाभाविक थी और हजारों की भीड़ के बीच स्वतः प्रस्फुटित हुई भी.

 

जय श्रीराम