06 नवंबर 2024

भारतीय सन्दर्भ में डोनाल्ड ट्रंप की जीत

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने जीत हासिल की. उन्होंने अपनी प्रतिद्वन्द्वी कमला हैरिस को पराजित किया. राष्ट्रपति पद की जीत के लिए आवश्यक 270 इलेक्टोरल वोट के आँकड़े को पार करते हुए इस जीत को हासिल किया. इस जीत से उन्होंने अमेरिका में 132 वर्ष पूर्व हुए राष्ट्रपति चुनाव परिणाम की बराबरी कर ली है. दरअसल ट्रंप 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति थे जो 2020 में हुए अगले राष्ट्रपति चुनाव में हार गए थे. इस हार के बाद वे अब 2024 में पुनः विजयी हुए हैं. अमेरिका में ऐसा 132 साल बाद हुआ है जब कोई व्यक्ति दूसरी बार राष्ट्रपति बना हो मगर उसने चुनाव लगातार न जीता हो. डोनाल्ड ट्रंप के पहले ग्रोवर क्लीवलैंड 1884 में और फिर 1892 में राष्ट्रपति बने थे.

 

डोनाल्ड ट्रंप की जीत को लेकर भारत में अलग-अलग कयास लगाए जा रहे थे. उनकी जीत से भारतीय शेयर बाजार पर भी प्रभाव पड़ता दिखा है. इसका एक कारण है कि अमेरिकी चुनाव भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं. भारत का व्यापार अमेरिका के साथ वैश्विक स्तर पर अपना महत्त्व रखता है. भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंधों की दृष्टि से देखा जाये तो दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2021-2022 में 119.42 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हुआ था, जबकि इसके पूर्व 2020-21 में यह 80.51 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था. इस व्यापारिक संबंधों का प्रभाव निश्चित रूप से सकारात्मक ही होगा. ट्रंप के आने का सबसे ज्यादा फायदा उन उद्योगों को होने वाला है जो निर्यात से जुड़े हैं. इसमें चाहे मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियाँ हों या इन कम्पनियों के उत्पादों को बाहर भेजने वाली कोई तीसरी कम्पनी. आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार ऑटोमोबाइल, मशीनरी, टेक्सटाइल और कैमिकल आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें निर्यातकों को बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद है. ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है कि ट्रंप की नीतियाँ अमेरिकी कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं. इस कारण से भी भारत-अमेरिका के बीच पारस्परिक सह-संबंधों में जबरदस्त सुधार देखने को मिल सकते हैं.

 



भारतीय निर्यात को महत्वपूर्ण लाभ मिलने की उम्मीद के साथ-साथ ट्रंप द्वारा पूर्व में चीनी उत्पादों पर हाई टैरिफ लगाए जाने का सकारात्मक असर भारतीय व्यापारिक नीति में दिखाई पड़ सकता है. ट्रंप ने चीन से आने वाले सोलर पैनल, वॉशिंग मशीन, स्टील और एल्युमीनियम समेत अनेक उत्पादों पर टैरिफ्स लगाए थे. इससे अमेरिका में उनका निर्यात बहुत मुश्किल हो गया था. वहाँ की कम्पनियाँ इन उत्पादों की माँग की आपूर्ति के लिए दूसरे विकल्पों की ओर देखने लगी थीं. इन विकल्पों में एक नाम भारत का भी शामिल था. ऐसा माना जा रहा है कि वर्तमान जीत के बाद भी ट्रंप का रवैया या नजरिया चीन के प्रति कोई खास बदलने वाला नहीं है. यदि ऐसा रहा तो निश्चित ही माल की आपूर्ति के लिए वहाँ की कम्पनियों को दूसरे देशों को विकल्प के रूप में स्वीकारना होगा. ऐसी स्थिति में भारत की मैन्युफैक्चरिंग क्षमता और अमेरिका के साथ इसके संबंध देश को चीन का विकल्प बनने के लिए प्रबल दावेदार बनाते हैं. इससे अमेरिकी बाजार में ऑटो पार्ट, सौर उपकरण और रासायनिक उत्पाद आदि भारतीय निर्माताओं को स्थान मिल सकता है.

 

निर्यातक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता मिलने की एक उम्मीद के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग और रक्षा क्षेत्र में ट्रंप की नीतियों का लाभ भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में तेजी ला सकता है. अमेरिकी इन क्षेत्रों को मजबूत बनाने के लिए भारतीय रक्षा कम्पनियों के साथ बेहतर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं. भारत-अमेरिका के बीच रक्षा और सैन्य सहयोग पिछले कुछ वर्षों में मजबूत हुआ है. क्वाड समूह के द्वारा इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के प्रभाव को कम करने सम्बन्धी कदम उठाया था. ट्रंप के पिछले कार्यकाल में हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर क्षेत्र में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड समूह के द्वारा सुरक्षा साझेदारी को मजबूत किया गया था.  ऐसी स्थिति में वर्तमान में ट्रंप प्रशासन के नेतृत्व में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग को बेहतर तथा मजबूत बनाये जाने की प्रबल सम्भावना है.

 

इन व्यापारिक, रक्षा सम्बन्धी मामलों के साथ-साथ ऐसा माना जा रहा है कि ट्रंप की जीत से रूस-यूक्रेन युद्ध में शांति आने की सम्भावना है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप लगातार यह कहते नजर आये हैं उनके जीतने का सुखद परिणाम रूस-यूक्रेन युद्ध रुकने के रूप में सामने आएगा. यद्यपि अमेरिका और भारत की नीति एवं वैचारिक रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर अलग-अलग रही है किन्तु जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी कई मंचों पर कहते नजर आये हैं कि ये युद्ध का समय नहीं है, ऐसे में संभव है कि ट्रंप की पहल से यह युद्ध रुक जाये. युद्ध का रुकना भारतीय सन्दर्भों में भी लाभकारी है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ-साथ ट्रंप बांग्लादेश मामले में भी वहाँ हिन्दुओं पर हो रही हिंसा का विरोध करते रहे हैं. ऐसे में जबकि माना जा रहा है कि बांग्लादेश की वर्तमान अंतरिम सरकार में अमेरिका का हस्तक्षेप बना हुआ है. ऐसे में ट्रंप के आने से एक उम्मीद यह भी है कि बांग्लादेश के हालात और वहाँ हिन्दुओं की हालत में सुधार होगा. यदि ऐसा होता है तो यह भी निश्चित रूप से भारत के लिए लाभकारी होगा.

30 अक्तूबर 2024

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो, यह वाक्य सुन्दरसार्थक और मनोहारी प्रतीत होता है. चारों ओर दियों की जगमगमोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाशरंग-बिरंगी आतिशबाजीरोशनियों के साथ फूटते पटाखे आदि अद्भुत छटा का प्रदर्शन करते हैं. बच्चोंयुवाओंबुजुर्गोंपुरुषों-महिलाओं का स्वाभाविक रूप हर्षोल्लासित होना दिखाई देता है. सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते नजर आते हैं. नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता का वातावरण स्थापित करते हैं. दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना का संचार करता है. घरों की साफ-सफाईलोगों से मिलना-जुलनामिठाई-पकवान का बनना आदि-आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है.

 

भारतीय संस्कृति में पर्वों, त्यौहारों का महत्व हमेशा से रहा है. यहाँ की अनुपम वैविध्यपूर्ण संस्कृति में प्रकृति के अन्तर्गत मनमोहक ऋतुओं की तरह से विविध पर्व-त्यौहार भी हैं. इन त्यौहारों की विशेषता यह है कि इन्हें धार्मिकता के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है. ये पर्व धार्मिक संदेशों के मध्य से सामाजिक सरोकारों की, सामाजिक संदर्भों की, समरसता की, सौहार्द्र की, भाईचारे की भी प्रतिस्थापना करते हैं. इसका उद्देश्य यही है कि इनके द्वारा सामाजिकता का विकास हो, सामाजिक सरोकारों की भी स्थापना होती रहे. दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करना, उत्सव के दिन सभी से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है.

 



वर्तमान में स्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ है. सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व अब चकाचौंध के वशीभूत होता जा रहा है. भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, औद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली के बीच दीपावली का उद्देश्य सेल्युलाइड दुनिया के पीछे संकुचित, भयभीत खड़ा दिखाई देता है. इस आभासी दुनिया का दुष्परिणाम है कि अब आकाश को छूने के लिए उड़ते रॉकेट को देखकर बच्चों की तालियाँ, खिलखिलाती हँसी नहीं दिखती वरन् मोबाइल के पीछे सेल्फी लेने वाले हाव-भाव दिखाई पड़ते हैं. कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता में हमारे रिश्ते-नाते, हमारे सामाजिक सरोकार भी तिरोहित हुए हैं. मिठाई के पैकेट स्वयं को तुच्छ और गरिमाहीन सा महसूस करने लगते हैं जब किसी ब्रांडेड कम्पनी की चाकलेट का डिब्बा खुलकर मुँह चिढ़ाने लगता है. बच्चों के हाथों में झूमती रंगीन फुलझड़ी एकाएक मद्विम पड़ जाती है जैसे ही उसके सामने कोई विदेशी आतिशबाजी अपने अस्तित्व का विस्तार करने लगती है. मँहगे से मँहगे संसाधनों का उपयोग करके हम दीपावली नहीं मनाते हैं बल्कि अपने आसपास के वातावरण में अपनी सत्तात्मक स्थिति को स्थापित करने का कार्य करते हैं. इस तरह की सोच के कारण समाज से समरसता और भाईचारे जैसी स्थितियों का विलोपन होता जा रहा है. सौहार्द्र को भी बाजारीकरण का रंग चढ़ जाता है; सद्भावना भी झिलमिलाती पॉलीपैक में बिकने लगती है; भाईचारा भी किसी यूज एण्ड थ्रो जैसी बोतल मे चमकदार पेय पदार्थ सा चमकने लगता है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो?

 

नैराश्य के इस वातावरण के बाद भी; कृत्रिम चकाचौंध के बीच भी; दीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है. हमें भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भी, सामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो करना ही है. बाजारीकरण में गुम सी हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो हमें जागृत करता है कुछ करने को; एक प्रकार के आवरण को गिराने को; असामाजिकता को मिटाने को; सामाजिक सरोकारों की स्थापना को. इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा. भारीभरकम खर्चों के बीच, मँहगी से मँहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियाँ देखकर ही अपनी दीपावली मना रहे होंगे. उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण कर रहे होंगे. यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह को, अपनी उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त में, तन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना पड़े; हमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का एहसास होता रहे; अपनी खुशी से दूसरे बच्चों में, और लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे.

 

हमें दीपमालिके के स्वागत में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आँगन तक ही नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है. उजाले की एक सकारात्मक किरण ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती है, बस हम ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह से, उमंग से परिवर्तन का, समरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें. आप स्वयं एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर हो उठेगा. 

19 अक्तूबर 2024

पढ़ने की आदत

1. वॉरेन बफेट अपनी अत्यधिक पढ़ने की आदतों के लिए जाने जाते हैं। वह अपने दिन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा विभिन्न सामग्रियों को पढ़ने में बिताते हैं, जिनमें वार्षिक रिपोर्ट, व्यावसायिक समाचार पत्र और विभिन्न विषयों, विशेष रूप से निवेश और व्यवसाय प्रबंधन पर किताबें शामिल हैं।


2. ओपरा विन्फ्रे एक शौकीन पाठक हैं और उनका एक प्रसिद्ध पुस्तक क्लब है जहां वह अपने दर्शकों के साथ पुस्तकों की सिफारिश करती हैं और उन पर चर्चा करती हैं। वह अपनी सफलता का श्रेय पढ़कर लगातार सीखने की आदत को देती हैं।


3. एलोन मस्क को छोटी उम्र से ही एक शौकीन पाठक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने साक्षात्कारों में उल्लेख किया है कि वह एक बच्चे के रूप में प्रतिदिन 10 घंटे पढ़ते थे। वह अक्सर अपने व्यापक ज्ञान का श्रेय अपनी व्यापक पढ़ने की आदतों को देते हैं।


4. बिल गेट्स एक शौकीन पाठक के रूप में जाने जाते हैं और अक्सर अपने ब्लॉग गेट्स नोट्स के माध्यम से अपनी पढ़ने की सिफारिशें साझा करते हैं। वह प्रौद्योगिकी और विज्ञान के बारे में गैर-काल्पनिक पुस्तकों से लेकर उपन्यासों और जीवनियों तक, कई प्रकार की सामग्री पढ़ता है।




5. फेसबुक की सीओओ शेरिल सैंडबर्ग अपनी अनुशासित पढ़ने की आदतों के लिए जानी जाती हैं। वह हर दिन पढ़ने के लिए समय निकालती है और अक्सर अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पढ़ी गई किताबों से अंतर्दृष्टि साझा करती देखी जाती है।


6. फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने हर दो हफ्ते में एक किताब पढ़ना एक व्यक्तिगत चुनौती बना दी है। वह सालाना अपनी पढ़ने की सूची साझा करते हैं और अक्सर किताबों के उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा करते हैं।


7. माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला कविता और साहित्य के प्रति अपने प्रेम के लिए जाने जाते हैं। वह अक्सर साहित्य से सीखे गए पाठों को अपनी नेतृत्व शैली और निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करते हैं।


8. पेप्सिको की पूर्व सीईओ इंद्रा नूयी एक उत्साही पाठक हैं, जिन्होंने अपनी नेतृत्व शैली और व्यवसाय के प्रति दृष्टिकोण को आकार देने का श्रेय पुस्तकों को दिया है। वह अक्सर अपने कर्मचारियों और साथियों को निरंतर सीखने और विकास को बढ़ावा देने के तरीके के रूप में किताबों की सिफारिश करती है।


ये व्यक्ति व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास के साथ-साथ अपने दृष्टिकोण और ज्ञान के आधार को व्यापक बनाने के लिए एक आदत के रूप में पढ़ने के महत्व को प्रदर्शित करते हैं।


पढ़ने की आदत कभी भी खराब, बुरी नहीं मानी जा सकती. एक बार आप भी इस आदत को अपनाकर देखें.  यद्यपि हम भी ऐसी आदत का शिकार हैं तथापि ऐसे बड़े-बड़े नामों वाले समूह का हिस्सा न बनने के कारण अपने बारे में यहाँ नहीं, कभी और सही। 


(उक्त जानकारी सोशल मीडिया पर अपने मित्र की प्रोफाइल से साभार) 

16 अक्तूबर 2024

बाज़ार के हाथों में संचालित पर्व-त्यौहार

भारतीय समाज सदैव से पर्वों, त्योहारों, आयोजनों के उल्लास में रँगा-बसा दिखाई देता है. विगत कुछ समय से देखने में आ रहा है कि जैसे किसी त्यौहार का, पर्व का आना होता है वैसे ही बाज़ार केन्द्रित अनेक शक्तियाँ अपने-अपने स्तर से सक्रिय हो जाती हैं. पर्वों, त्योहारों के सन्दर्भ में बाजार में देखने वाली सक्रियता का न तो पर्वों से कोई लेना-देना होता है और न ही त्योहारों की पावनता से. बाज़ार का उद्देश्य किसी न किसी रूप में इंसानी दिल-दिमाग पर अपना नियंत्रण रखना होता है. ऐसे में सवाल स्वयं से ही उठता है कि क्या इंसान बाजार के हाथों की कठपुतली बन चुका हैये ऐसा सवाल है जो आये दिन हर उस व्यक्ति के मन में कौंधता होगा जो संवेदनशील होगा. स्थिति यह है कि ऐसे आयोजनों में आवश्यकता की छोटी से छोटी वस्तु से लेकर जीवन का बड़े से बड़ा पल बाज़ार के द्वारा संचालित होने लगा है. सुबह जागने से लेकर सोने तक की समस्त गतिविधियों पर बाज़ार अपना नियंत्रण किये बैठा है. सुबह जागने के बाद उसे किन-किन पोषक तत्त्वों से भरे टूथपेस्ट की जरूरत है किस तरह के कपड़े उसके स्वास्थ्य का बेहतर ख्याल रख सकते हैं, सुबह के नाश्तेदोपहर के भोजन, कार्यक्षेत्र की स्थितिबच्चों का स्कूलगृहणियों का काम-काज आदि सब कुछ बाज़ार के द्वारा ही पूरा होता दिखाई देता है. 

 

विडम्बना ये है कि बाज़ार स्वयं चलकर घर के भीतर आ चुका है. टीवीसमाचार-पत्रपत्रिकाओं के सहारेहाथ में बराबर चलते मोबाइल के सहारे बाज़ार ने घर के साथ-साथ इंसान के दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया है. घर से बाहर निकलते ही सड़क किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्सगली-मोहल्ले के कोने में झाँकते छोटे-छोटे से बैनरखम्बोंदीवारों पर चिपके पोस्टरजगह-जगह बँटते पैम्पलेट हर समय इंसान को बाज़ार की कैद में होने का आभास करवाते हैं. हर एक पल के लिए बाज़ार ने कुछ न कुछ व्यवस्था कर रखी है. इंसान ख़ुशी के क्षणों में जी रहा है या ग़म साझा कर रहा हैबाज़ार ने इसके लिए भी इंतजाम कर रखे हैं. जन्मदिनशादीवैवाहिक वर्षगाँठपर्व-त्यौहार या फिर कोई भी आयोजन हो, विज्ञापनों के द्वारा इंसान को सम्मोहित कर लिया जाता है. कुछ करते हुए दाग लग जाएँ तो दाग अच्छे हैं. कुछ अच्छा होने पर कुछ मीठा हो जाये. भले ही टेढ़ा लगे पर मेरा सा लगे. कितना भी बड़ा डर हो पर उसके आगे जीत का एहसास दिखे. त्यौहार में पारंपरिक मिष्ठान बने या न बने पर कुछ मीठा हो जाये का विकल्प बाज़ार ने इंसान के सामने परोस रखा है.

 

इस बाजारीकरण की सबसे ख़राब स्थिति यह है कि इंसान कब उत्पादों का उपयोग करते-करते खुद ही उत्पाद बन गया उसे खबर ही नहीं हुई. शादी-विवाह जैसा विशुद्ध पारिवारिक और पवित्र संस्कार बाज़ार के हवाले हो गया. अब विवाह संस्कार परिजनों के हाथों से नहीं बल्कि बाजार के हाथों से संचालित होने लगा है. बाजार बताने लगा है कि दूल्हा-दुल्हन को कैसे तैयार होना है. बाज़ार बता रहा है कि पूरे आयोजन में कैसे और किस तरह से फोटोशूट किया जाना है. करवाचौथ जैसा पावन पर्व विशुद्ध रूप से बाजार का शिकार होकर दाम्पत्य जीवन में प्रविष्ट हो चुका है. बाज़ार द्वारा निर्धारित उपहार जब पत्नी को दिया जायेगा, बाज़ार सज्जित परिधान जब पहने जाएँगे तभी इस उपवास का उचित फल मिलेगा, इस तरह के सन्देश बाज़ार घर-घर में पहुँचाने में सफल हो गया है. पर्वों, त्योहारों के आते ही वाहन खरीदने के लाभ बताये जाते हैं. बाज़ार ही बताता है कि कौन सी मिठाई खिलाई जाए तो रिश्ते मजबूत होते हैं. परिजनों के एकसाथ मिलकर खुशियाँ मनाने में कौन सा रंग, कौन सा पेंट घर को चमकाएगा, ये भी बाज़ार निर्धारित कर रहा है. परिवार, संस्कार, संस्कृति से सम्बंधित वे सभी आयोजन जिनसे व्यक्ति का भावनात्मक जुड़ाव हैसबको बाज़ार ने अपने कब्जे में ले रखा है.

 

बाज़ार ने न केवल शालीनता के दायरे को पार किया बल्कि अनावश्यक रूप से घर-परिवारों में आर्थिक बोझ को भी बढ़ाया है. महँगे होते जाते आयोजनअत्यंत भव्यता बिखेरती साज-सज्जासामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से बर्बाद किया जाता धन आदि किसी भी रूप में किसी एक व्यक्ति की सकारात्मक सोच नहीं है. इसके पीछे पूरी तरह से नियोजित ढंग से बाज़ार अपना काम कर रहा है. उसका काम अपने उत्पाद को बेचना मात्र है. इस प्रक्रिया में स्वयं इंसान ही उत्पाद बनकर उभरने लगा है. वह बिना सोचे-विचारे बस इन कृत्यों को मशीनी ढंग से करने में लगा है. वह स्वयं ही नहीं समझ पा रहा है कि इन कृत्यों को करने में उसे ख़ुशी मिल रही है या फिर वह बाज़ार के हाथों में नाच रहा है?  

13 अक्तूबर 2024

शोध-आलेखों में सन्दर्भ लेखन

अकादमिक क्षेत्र में लेखन का बहुत महत्त्व है. वर्तमान में अनेक नीतियों के चलते न केवल शोधार्थियों के लिए बल्कि प्राध्यापकों के लिए भी लेखन महत्त्वपूर्ण हो गया है. जहाँ शोधार्थियों के शोध-कार्य हेतु शोधपरक लेखन को अनिवार्य जैसा किया गया है वहीं उच्च शिक्षा क्षेत्र से सम्बंधित प्राध्यापकों के लिए शोधपरक लेखन को उनकी अकादमिक योग्यता से जोड़ दिया गया है. शोध कर रहे विद्यार्थियों के लिए तो अपने शोध ग्रन्थ को लिखते समय उनसे अपेक्षा ही की जाती थी कि वे शोधपरक आलेख लिखेंगे. अब प्राध्यापक वर्ग के लिए भी एक तरह की अनिवार्यता लगा दी गई है कि वे अपनी अकादमिक प्रोन्नति हेतु स्वयं भी शोधपरक लेखन हेतु तत्पर रहेंगे. शोधपरक लेखन को, उसके प्रकाशन को प्राध्यापक वर्ग हेतु उनके मूल्यांकन से जोड़ दिया गया है. अब इनकी अकादमिक प्रोन्नति हेतु, उनकी अकादमिक योग्यता के लिए एपीआई के लिए लेखन को, शोधपरक लेखन को वरीयता दी जा रही है.

 

आलेख और शोध-आलेख में बहुत बड़ा अंतर नहीं है. इसे मात्र इतने से परिचयात्मक रूप में समझा जा सकता है कि जिस आलेख के साथ सन्दर्भ जुड़े हुए हैं, उसे शोध-आलेख कहते हैं. इसका सीधा सा अर्थ है कि उस आलेख में अपनी बात को प्रामाणिक ढंग से कहा गया है अथवा किसी तरह की शोध का उल्लेख किया गया है. इसके अलावा सन्दर्भ रहने पर आलेख विश्वसनीय बन जाता है. किसी आलेख में सन्दर्भों का होना उस लेखक के शोध कार्य को भी प्रमाणित करते हुए विश्वसनीय बनाता है. इसके साथ-साथ आलेख में सन्दर्भों का होना लेखक की लेखकीय योग्यता को, उसकी क्षमता को, प्रतिभा को, मेहनत को भी प्रदर्शित करता है.

 



सन्दर्भों के होने की स्थिति के साथ-साथ अक्सर न केवल शोधार्थियों में बल्कि प्राध्यापकों में भी इसे लेकर संशय की स्थिति रहती है कि उनके द्वारा सन्दर्भों का उल्लेख कहाँ किया जाये, किस तरह किया जाये? ये समस्या अब और जटिल होती समझ आने लगी है जबकि शोध कार्यों को लेकर, शोध-प्रबंधों को लेकर, शोध-आलेखों को लेकर लगातार एकसमान नीति पर जोर दिया जाने लगा है. शोध-आलेख के साथ सन्दर्भ लिखने के कुछ अलग-अलग तरीके लेखकों द्वारा प्रयोग में लाये जाते रहे हैं. कुछ लेखक आलेख में यथास्थान सन्दर्भों का उल्लेख करते हैं. ऐसा करने पर पाठकों के लिए अवरोध उत्पन्न होता है. इस अवरोध का बचाव करने के लिए सन्दर्भों को शोध-आलेख के अंत में अथवा प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे दिए जाने की व्यवस्था को एकसमान रूप से स्वीकार किया गया. ऐसे सन्दर्भ जो प्रत्येक पृष्ठ पर नीचे दिए जाते हैं, उन्हें पाद-टिप्पणी/फुटनोट (Footnote) कहते हैं और जो सन्दर्भ आलेख के अन्त में एक ही जगह दिए जाते हैं उनको अन्त-टिप्पणी/एंडनोट (Endnote) कहते हैं. शोध-आलेखों की प्रमाणिकता, महत्ता के लिए इस तरह के दो सन्दर्भों में से किसी एक सन्दर्भ का होना आवश्यक है. बिना सन्दर्भ के लिखे गए लेख को शोध-आलेख के रूप में मान्यता नहीं मिलती है. ऐसे आलेख की कोई विश्वसनीयता भी नहीं होती है.

 

किसी भी शोध-आलेख में सन्दर्भों को कई जगहों से एकत्र किया जाता है. कई सन्दर्भ पुस्तकों से लिए जाते हैं तो बहुत से सन्दर्भों को शोध-पत्रिकाओं से लिया जाता है. वर्तमान में इंटरनेट का बहुतायत उपयोग होने के कारण से अनेक वेबसाइट भी सामग्री संग्रहण के काम आती हैं. शोध-आलेखों में उनका भी सन्दर्भ देना आवश्यक होता है. ऐसी स्थिति में कई बार शोधार्थियों के समक्ष, लेखकों के समक्ष, प्राध्यापकों के समक्ष समस्या आती है कि इन विभिन्न माध्यमों से एकत्र किये गए सन्दर्भों का उल्लेख कैसे किया जाये? एकरूपता की दृष्टि से भी ये आवश्यक हो जाता है कि शोध-आलेख में सन्दर्भों को एकसमान रूप से लिखा जाये.

 

यहाँ पुस्तकों, शोध-पत्रिकाओं, इंटरनेट पर उपलब्ध वेबसाइट से ली गई सामग्री, आँकड़ों आदि के सन्दर्भ को लिखने का ढंग कुछ इस प्रकार से अपनाया जा सकता है. यदि सन्दर्भ पुस्तक से लिए गए हैं तो उनके लिखने का तरीका इस प्रकार होगा. सबसे पहले पुस्तक के लेखक का नाम लिखा जायेगा, इसमें भी उपनाम पहले लिखा जायेगा फिर नाम. इसके बाद पुस्तक के प्रकाशन का वर्ष लिखा जाता है. प्रकाशन वर्ष लिखने के बाद बोल्ड फॉर्मेट में पुस्तक का नाम दिया जायेगा. इसके पश्चात् पुस्तक के प्रकाशन का स्थान और फिर पुस्तक के प्रकाशक का नाम आता है. सन्दर्भ लिखने के क्रम में सबसे अंत में पृष्ठ संख्या लिखना होता है. इसे इस उदाहरण से और आसानी से समझा जा सकता है.

सेंगर, कुमारेन्द्र सिंह (डॉ.), 2009, पत्रकारिता के सन्दर्भ, उरई (उ.प्र.), बुन्देलखण्ड प्रकाशन, पृ. 97

 

पुस्तकों के साथ-साथ शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों से भी सामग्री को लिया जाता है. ऐसे में इनका सन्दर्भ देने में क्रम कुछ इस तरह से रखते हैं. पुस्तक की तरह ही यहाँ सबसे पहले लेखक का नाम लिखा जाता है, इसमें भी उपनाम को पहले लिखते हैं फिर लेखक का नाम, इसके बाद आलेख के प्रकाशन का वर्ष लिखा जाता है. प्रकाशन वर्ष लिखने के बाद सम्बंधित आलेख का शीर्षक लिखा जाता है, जिससे सामग्री को लिया गया है. जिस पत्र, पत्रिका अथवा संकलन में वह आलेख प्रकाशित है उसका नाम वोल्ड फॉर्मेट में लिखा जाता है. इसके बाद पत्रिका की अंक संख्या, पत्रिका प्रकाशक का नाम और फिर पत्रिका के प्रकाशन का स्थान लिखा जाता है. क्रम लिखने में सबसे अंत में पृष्ठ संख्या लिखते हैं. इसे निम्न उदाहरण से सहजता से समझा जा सकता है.

सेंगर, कुमारेन्द्र सिंह (डॉ.), 2010, वृन्दावन लाला वर्मा के साहित्य में सौन्दर्य-बोधमेनिफेस्टो (शोधपत्रिका), Vol.II, अंक- 2, समाज अध्ययन केन्द्र, उरई, पृ. 94.

 

वर्तमान दौर में तकनीक के उपयोग से इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में शोध-सामग्री को बहुत सी वेबसाइट से भी एकत्र किया जाता है. वेबसाइट से ली गई सामग्री का सन्दर्भ भी देना चाहिए. इससे शोध-आलेख की प्रमाणिकता बनी रहती है. इसके लिए सबसे पहले इस वेबसाइट की लिंक, जिसे यूआरएल कहा जाता है उसे लिखा जाता है, इसके बाद जिस तारीख को सम्बंधित वेबसाइट से सामग्री को लिया गया उसे लिखना होगा है. उदाहरण के लिए निम्नवत को देख सकते है.

https://dastawez.blogspot.com/2022/02/blog-post_28.html (दिनांक 19-09-2023 को देखा गया.)

 

हिन्दी भाषा के शोध-आलेखों के लिए पिछले कुछ समय से सर्वमान्य रूप में सन्दर्भों को इस रूप में लिखा जा रहा है, स्वीकारा जा रहा है. बावजूद इसके शोधार्थी और प्राध्यापकगण अपने-अपने क्षेत्र, शैक्षणिक संस्थान के नियमानुसार इसकी जाँच करके ही अपने शोध-आलेखों में सन्दर्भ लेखन करें.

 

ये आलेख सूचना, जानकारी मात्र के लिए है.