20 फ़रवरी 2025

दिल्ली मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण में आम आदमी पार्टी की अनुपस्थिति

आज, 20 फरवरी 2025 को दिल्ली विधानसभा के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह रामलीला मैदान में आयोजित किया गया. पिछले 26 सालों से विपक्षी गलियारे में टहलने वाली भाजपा को उसकी मेहनत और विचारधारा के कारण दिल्ली के मतदाताओं ने इस बार बहुमत के साथ सरकार बनाने का अवसर दिया. भाजपा की तरफ से पहली बार विधायक बनी रेखा गुप्ता ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की. इससे पहले वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा कुछ सीटों के अंतर से सरकार बनाने से चूक गई थी. इसी मौके का फायदा उठाकर कांग्रेस ने अन्ना आन्दोलन के दौरान रहे उसके धुर विरोधी आम आदमी पार्टी, अरविन्द केजरीवाल टीम को समर्थन देकर सरकार बनाने का अवसर दे दिया था. इस अवसर का फायदा उठाते हुए आम आदमी पार्टी ने अगले दो चुनावों में प्रचंड बहुमत से सरकार तो बनाई मगर दिल्ली के मतदाताओं के दिल में प्रचंड रूप में अपना स्थान नहीं बना सके.

 



तमाम सारी मुफ्त की योजनाओं, विरोधी दलों पर आरोपों की बौछारों, स्वयं को एकमात्र ईमानदार सिद्ध करने की मानसिकता के बाद भी इस वर्ष के चुनावों में मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को नकारते हुए भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया. आम आदमी पार्टी या कहें कि केजरीवाल के पिछले कार्यकाल जिस तरह से गुजरे उसके अनुसार वे केन्द्र सरकार के प्रताड़ित व्यक्ति जैसे खुद को साबित करने की कोशिश में लगे रहे. अनाप-शनाप बयानबाजी, अनर्गल आरोपों के चलते उनकी और पार्टी की छवि लगातार गिरती रही. ये गिरावट आज मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण समारोह के दौरान भी देखने को मिली. आम आदमी पार्टी, अरविन्द केजरीवाल की तरफ से कोई भी इस समारोह में उपथित न हुआ. देखा जाये तो यह राजनैतिक गरिमा की निम्नतम गिरावट है. इससे पूर्व किसी भी शपथ ग्रहण समारोह में विपक्षी दलों के नेताओं का, पूर्व मुख्यमंत्रियों का उपस्थित रहना हुआ करता था.

 

आज की हरकत एक तरह से आम आदमी पार्टी का, अरविन्द केजरीवाल एंड फ्रेंड्स कंपनी का भविष्य भी तय करती सी दिख रही है. लोकतान्त्रिक मूल्यों में, विषयों में जितना महत्त्वपूर्ण कोई नेता होता है, उतना ही महत्त्वपूर्ण एक-एक मतदाता भी होता है. आज की हरकत से कम से कम वे लोग जो वाकई में राजनीति में शुचिता, ईमानदारी, गरिमा आदि देखना पसंद करते हैं, आम आदमी पार्टी से दूर होने की राह चल दिए होंगे. बाकी तो पिछला इतिहास ही आम आदमी पार्टी की कहानी लिखेगा.


15 फ़रवरी 2025

मौत की राह जाते बच्चे

सॉरी मम्मी-पापा, मेरा समय ख़त्म, माता रानी ने मुझे अठारह साल के लिए ही भेजा था. आत्महत्या करने के पूर्व लिखे पत्र में अदिति मिश्रा की ये भावनात्मक पंक्ति हृदय को हिला देने वाली है. जेईई परीक्षा में कम अंक आने से चयनित न होने के कारण निराश अदिति ने ऐसा कदम उठाया. समाज में इस तरह का न तो ये पहला मामला है और निश्चित रूप से अंतिम भी नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों से बच्चों के द्वारा परीक्षाओं में असफल रहने पर, कम अंक आने पर आत्महत्या करने की घटनाएँ सामने आती रहती हैं. आत्महत्या एक ऐसा शब्द है जो झकझोरने के अलावा और कोई भाव पैदा नहीं करता. यह एक शब्द नहीं बल्कि अनेकानेक उथल-पुथल भरी भावनाओं का, विचारों का समुच्चय है. इसके अलावा न जाने कितनी त्रासदी, न जाने कितना कष्ट, न जाने कितने आँसू, न जाने कितने सवाल भी इसमें छिपे होते हैं. ये सवाल उस समय और अधिक हृदय विदारक हो जाते हैं जबकि मौत की नींद सोने वाला हमारा भविष्य होता है, कोई नौनिहाल होता है.

 

प्रथम दृष्टया ऐसी घटनाओं में परीक्षा प्रणाली, नंबर गेम, भारी-भरकम पाठ्य-सामग्री आदि जिम्मेदार लगती है किन्तु यदि गम्भीरता से सम्पूर्ण सामाजिक परिदृश्य का अवलोकन किया जाये तो इसके पीछे वर्तमान सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था का यांत्रिक होना नजर आता है. इस यांत्रिक जीवन-शैली ने बचपनशिक्षाघर, परिवार आदि को प्रभावित किया है. ऐसा लगता है जैसे बचपन की भ्रूण हत्या कर दी गई है. हँसते-खेलते बच्चों की जगह बस्तों का बोझ लादेथके-हारेमुरझाये बच्चे दिखाई देते हैं. शरारतोंशैतानियों की जगह उनके चेहरों पर बड़ों-बुजुर्गों जैसी भाव-भंगिमासोच-विचार दिखाई देता है. उन्मुक्त खेलते बच्चों को कमरों में बंद कर दिया गया है और उनके हाथों में लैपटॉपमोबाइल थमा दिए गए हैं. बच्चे स्मार्टफोन की इंटरनेट दुनिया के कारण समय से पहले ही स्मार्ट हो रहे हैं.

 



यांत्रिक जीवन के लिए अनिवार्य बना दिए धन की आपाधापी में अभिभावकों का संलिप्त रहना उनको अपने ही बच्चों से दूर कर रहा है. उनके लिए भौतिकतावादी संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने को बहुतायत अभिभावकों द्वारा अपनी सफलता मान लिया गया है. तकनीक, भौतिकता की उन्नति को विकास का सूचक मानने का दुष्परिणाम यह हुआ कि अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं ने अनियमित राह पकड़ ली. इस अंधाधुंध दौड़ में उनके द्वारा बच्चों से न सिर्फ अच्छे अंक लाने की जबरदस्ती की जा रही है वरन दूसरे बच्चों से गलाकाट प्रतियोगिता सी करवाई जा रही है. बच्चों में आपसी सहयोग की, समन्वय की भावना विकसित करने के स्थान पर आपस में चिर-प्रतिद्वंद्विता पैदा की जा रही है. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कटुता पैदा की जा रही है. ज्ञान को आपस में बाँटने की जगह उसे अपने में ही कैद करके रखने की मानसिकता विकसित की जा रही है. बच्चों को किसी अन्य विद्यार्थी की असफलता के समय, उसकी आवश्यकता के समय उसकी मदद करने के बजाय उससे दूर रहने, उससे बचने की सलाह दी जा रही है. अपने चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ सफलता प्राप्त करने का शोर, दूसरे से आगे ही आगे बने रहने की होड़, किसी भी कीमत पर सबसे आगे आने और फिर सदैव आगे ही बने रहने का दबाव बच्चों को भीतर से खोखला बना रहा है. यही खोखलापन उनकी असफलता में, असफलता की आशंका में उन्हें सबसे दूर कर देता है. एक पल को विचार करिए कि कुछ अंकों के कारण एक हँसता-खेलता बच्चा सदैव के लिए खामोश हो जाये. विचार करिए उस बच्चे के अन्दर भय का, अविश्वास का वातावरण किस कदर भर गया होगा जो कम अंक आने के भय से दुनिया छोड़ देता है मगर अपने अभिभावक से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है.

 

किसी भी परिवार के लिए उसके किसी भी सदस्य का चले जाना कष्टकारी होता है. ये कष्ट उस समय और भी विभीषक हो जाता है जबकि ऐसा किसी बच्चे के साथ हुआ हो. बच्चों द्वारा असफलता के भय से, कुछ प्रतिशत अंक कम आने से मौत की राह चले जाना समूची व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है. इक्कीसवीं सदी में जहाँ एक तरफ विमर्शों, स्वतंत्रता, फ्री सेक्स, हैप्पी टू ब्लीड, लिव-इन-रिलेशन आदि अतार्किक चर्चाओं में बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक निमग्न रहती है वहाँ बच्चों पर लादे जाने वाले अनावश्यक, अप्रत्यक्ष बोझ को दूर करने के लिए कोई चर्चा नहीं होती है. समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न विषयों में अपनी सक्रियता दिखा रहे समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी इस दिशा में संज्ञाशून्य से दिख रहे हैं. घर से लेकर स्कूल तक, अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक सभी अपनी-अपनी मानसिकता का बोझ बच्चों के मन-मष्तिष्क पर लाद रहे हैं. अपने अतृप्त सपनों को, अपने उस कैरियर को जो वे नहीं बना सके, बच्चों के माध्यम से पूरा करने का जोर लगाये हैं. अपने बच्चों को साक्षर, शिक्षित, संस्कारित बनाये जाने से ज्यादा ध्यान इस तरफ है कि वे कैसे अधिक से अधिक अंकों से सफलता प्राप्त करें. वे बच्चों की शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के स्थान पर उनके मन में अधिकाधिक पैकेज वाली जॉब को पाने का लालच भरने में लगे हैं.

 

ऐसे माहौल में जबकि बच्चे को अपनी परेशानीअपनी निराशाअपनी हताशाअपनी समस्या के निपटारे के लिए कोई रास्ता नहीं दीखता हैकोई अपना नहीं दिखता है तब वह घनघोर रूप से एकाकी महसूस करता हुआ खुद को जीवन समाप्ति की तरफ ले जाता है. अपने बच्चों के बीच बिना बैठेउनके साथ बिना खेलेउनके मनोभावों को बिना बाँटे हम बच्चों को बचाने में लगभग असफल ही रहेंगे. अच्छा हो कि अपना समय हम अपने बच्चों के साथ शेयर करें जिससे हम उनके हँसते-खेलते बचपन में अपना बचपन देख सकें, अपने बच्चों का जीवन सुरक्षित रख सकें.


08 फ़रवरी 2025

नकारात्मक कार्य-शैली का नतीजा आप की हार

सत्ताईस बरसों तक विपक्षी गलियारे में टहलते रहने के बाद भाजपा को दिल्ली विधानसभा का सत्ता सुख प्राप्त हो गया. 70 सीटों वाली दिल्ली में भाजपा ने 48 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया जबकि पिछले बारह सालों से सरकार चला रही आम आदमी पार्टी 22 सीटों में ही सिमट गई. आम आदमी पार्टी का इतनी कम सीटों में सिमट जाना संख्यात्मक रूप से इस कारण आश्चर्यजनक लग रहा है कि अपने पहले चुनाव में ही आम आदमी पार्टी द्वारा चमत्कारिक रूप से 28 सीटें जीत कर अपनी पहचान को साबित किया था. अन्ना आन्दोलन की लहर, लोकपाल बिल बनाये जाने का मुद्दा, भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ पहले चुनाव के चमत्कारिक प्रदर्शन को अद्भुत प्रदर्शन में बदलते हुए 2015 एवं 2020 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने क्रमशः 67 एवं 62 सीटों पर विजय हासिल की थी. केन्द्रीय राजनीति में बेहतर प्रदर्शन करने वाली भाजपा को इन दोनों विधानसभा चुनावों में क्रमशः 03 एवं 08 सीटों से संतोष करना पड़ा था, वहीं कांग्रेस इन दोनों चुनावों में अपना खाता ही नहीं खोल सकी. आश्चर्य की बात है कि तत्कालीन लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दिल्ली की सभी सात सीटों पर विजय हासिल की थी किन्तु विधानसभा में उसका प्रदर्शन एकदम लचर रहा.

 

आम आदमी पार्टी के पहले चुनाव की सफलता को अन्ना आन्दोलन लहर की सहानुभूति का परिणाम मानने वालों को भले ही चुनाव परिणामों की संख्यात्मकता ने गलत साबित किया हो मगर आम आदमी पार्टी खुद को सही साबित करने में विफल ही रही. यही कारण रहा कि दो बार प्रचंड बहुमत से आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सत्ता प्रदान किये जाने के बाद भी अंततः इस बार दिल्ली के मतदाताओं ने उससे किनारा करना ही उचित समझा. वर्तमान 2025 विधानसभा चुनाव परिणामों को आम आदमी पार्टी के समर्थक भले ही सत्ता विरोधी लहर (एंटी इनकम्बेंसी) कह कर खुद को सांत्वना देने का प्रयास करें मगर सत्यता यही है कि पिछले बारह बरसों के अपने कार्यकाल में आम आदमी पार्टी द्वारा अपनी उसी विचारधारा, अपने उन्हीं सिद्धांतों से लगातार दूरी बनाई जाती रही, जिनके सहारे वह सत्ता में आई थी. अपने कार्यों, अपने विचारों, अपनी कार्य-शैली आदि के चलते आम आदमी पार्टी ने और स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह से नकारात्मक माहौल बना रखा था, उससे दिल्ली के मतदाताओं में निराशा उत्पन्न हो चुकी थी. यही कारण रहा कि दिल्ली के मतदाताओं ने भाजपा पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्य-शैली पर भरोसा करते हुए इस बार विधानसभा भाजपा को सौंप दी. दिल्ली के मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए अरविन्द केजरीवाल को भी हराया, मनीष सिसौदिया के साथ-साथ सत्येंद्र जैन और सौरभ भारद्वाज को भी बाहर का रास्ता दिखाया. एक दशक से अधिक समय की कार्य प्रणाली, व्यवहार को देखने के बाद मतदाताओं को न मुफ्त की रेवड़ियाँ पसंद आईं और न ही कट्टर ईमानदार वाली कथित छवि ने प्रभावित किया.

 



आम आदमी पार्टी की हार के पीछे भले ही भाजपा की अपनी तैयारी, रणनीति, मोदी का चेहरा समेत अनेक कारक समाहित माने जा सकते हैं, किन्तु आम आदमी पार्टी और उनके शीर्ष नेताओं के कारनामे भी उसकी हार के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. यह उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जो दल भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से जन्मा हो, जिस राजनैतिक दल के खिलाफ पूरा आन्दोलन छेड़े रहा हो सत्ता में आने के लिए उसी से हाथ मिला लिए. कांग्रेस की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ सैकड़ों पृष्ठों के जो सबूत सार्वजनिक मंच से दिखाए जाते थे, वे अचानक ही गायब हो गए. भ्रष्टाचार विरोध के द्वारा सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने लगे. खुद को कट्टर ईमानदार कहने वाले अरविन्द केजरीवाल भी इससे बच न सके. उनके सहित मनीष सिसौदिया, सत्येंद्र जैन को भ्रष्टाचार के मामलों में जेल जाना पड़ा.

 

नई तरह की साफ-सुथरी, ईमानदार और वैकल्पिक राजनीति का वादा करने वाले केजरीवाल ने तो सिद्धांतों की, ईमानदारी की उस समय धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं जबकि उनको जेल जाना पड़ा. बात-बात पर नैतिकता की दुहाई देने वाले अरविन्द केजरीवाल द्वारा जेल जाने के बाद भी इस्तीफा नहीं दिया गया. इसके बजाय उनके द्वारा जेल से ही सरकार चलाने की ऐसी जिद दिखाई गई जो भारतीय राजनीति में अचम्भित करने वाली घटना थी. भ्रष्टाचार विरोध, नैतिकता की बात करने वाले केजरीवाल ने सत्ता सुख के लिए अनेक राज्यों में उन्हीं दलों, नेताओं के साथ हाथ मिलाया जिनके दामन में भ्रष्टाचार, दंगों, घोटालों आदि के दाग लगे हैं. व्यवस्था परिवर्तन करने, राजनीति का ढंग बदलने की बात करने वाले केजरीवाल और उनके साथी लगातार न केवल भ्रष्टाचार में लिप्त होते चले गए बल्कि काम-काज के मामलों में भी असफल सिद्ध हुए. सरकारी विद्यालयों, चिकित्सालयों, मोहल्ला क्लीनिक, सड़कें, यमुना साफ़-सफाई, बिजली, पानी आदि के मामलों में आम आदमी पार्टी लगातार असफल ही रही. विडम्बना यह रही कि तमाम सारी नाकामियों के बाद भी केजरीवाल द्वारा इनका जिम्मेदार स्वयं को, अपने नेताओं को, अपनी पार्टी को न मानकर दूसरों पर दोषारोपण किया जाता रहा. अलग तरह की राजनीति के नाम पर बिना किसी सबूत के, बिना किसी आधार के बाकी सभी पार्टियों और उनके नेताओं को चोर-बेईमान बताया जाने लगा. इसकी हद तो उस समय हुई जबकि वर्तमान चुनाव से ठीक पहले उन्होंने सीधे-सीधे हरियाणा की भाजपा सरकार पर यमुना के पानी में जहर मिलाने, नागरिकों के नरसंहार की साजिश रचने का अत्यंत गम्भीर आरोप लगा दिया. यह कदम केजरीवाल की गैर-जिम्मेदार राजनीति की सारी सीमाओं का लाँघना था.

 

फिलहाल तो आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं के कारनामों की लम्बी सूची है, उनके कांड भी लम्बे-चौड़े हैं, अमानतुल्लाह खान, ताहिर हुसैन पर दंगों के आरोप तय हो चुके हैं, इस वास्तविकता को न केवल आम आदमी पार्टी के नेताओं ने समझा बल्कि दिल्ली के मतदाताओं ने भी समझा. यही कारण रहा कि दिल्ली में चुनावी मौसम के ठीक बीच में आम आदमी पार्टी के सात विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. यहाँ पार्टी छोड़ने की परम्परा भी पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही शुरू हो गई थी. शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, मयंक गांधी, कुमार विश्वास, कैलाश गहलोत आदि ऐसे नाम हैं जो केजरीवाल की कार्यप्रणाली, उनकी मनमानी से असहमति के चलते पार्टी से बाहर हो गए. इन सब बातों का भी असर चुनाव परिणाम पर पड़ा. मतदाताओं में यह धारणा बन चुकी थी कि अब पार्टी में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.

 

दिल्ली चुनाव में हार के बाद आम आदमी पार्टी के भविष्य पर सवाल उठना बेवजह भी नहीं. क्षेत्रफल की दृष्टि से भले ही दिल्ली छोटा राज्य हो मगर देश की राजधानी होने के कारण वह राजनीति के केन्द्र में रहता है. देश की राजनीति की तरह ही यहाँ की राजनीति भी विचारधारा और पार्टी के मजबूत शीर्षक्रम पर आधारित है. स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति आम आदमी पार्टी के पास नहीं है. आम आदमी पार्टी भले ही स्वयं को कट्टर ईमानदारी, अलग तरह की राजनीति करने वाली, व्यवस्था परिवर्तन करने वाली विचारधारा का पोषण करने वाली बताती रही हो मगर सत्यता यही है कि उसकी कोई विचारधारा नहीं है. उसका जन्म किसी विचारधारा के कारण नहीं बल्कि सत्ता में आने के उद्देश्य से ही हुआ है. आम आदमी पार्टी का गठन करते समय केजरीवाल के स्वयं ही कहा था कि मजबूरी में हम लोगों को राजनीति में उतरना पड़ा. हमें राजनीति नहीं आती है. हम इस देश के आम आदमी हैं जो भ्रष्टाचार और महँगाई से दुखी हैं, उन्हें वैकल्पिक राजनीति देने के लिए आए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए बिना किसी ठोस विचारधारा के उसके विधायकों का वैचारिक दृष्टिकोण से एकजुट बने रहना भी एक चुनौती होगी. दिल्ली की सत्ता में रहते हुए केजरीवाल को अपने विधायकों को सँभाले रखना मुश्किल हो रहा था, अब विपक्ष में रहते हुए उनको साधे रखना आसान नहीं होगा. विचारधारा शून्यता के साथ-साथ शराब घोटाले और शीशमहल जैसे मुद्दों ने पार्टी की कट्टर ईमानदारी छवि पर भी दाग लगाया है. केजरीवाल, सिसौदिया का हारना अन्य प्रदेशों की इकाइयों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा. ऐसे में यदि आम आदमी पार्टी को, केजरीवाल को राजनीति का लम्बा रास्ता तय करना है तो उनको दूसरों पर दोषारोपण करने के स्थान पर अपने गिरेबान में झाँकना होगा. अपने कारनामों पर, अपनी कार्य-शैली पर चिंतन करना होगा. कट्टर ईमानदार, अजेय बने रहने के अहंकारी दम्भ से बाहर निकलना होगा.  


05 फ़रवरी 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव का खेल

दिल्ली विधानसभा चुनाव का मतदान समाप्त होते ही कई एजेंसियों ने अपने एग्जिट पोल जारी किये. कुछ प्रमुख एजेंसियों में से सात ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और दो ने आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार का अनुमान दिखाया है. कांग्रेस को किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया है. देखा जाये तो कांग्रेस पिछले चुनाव से ही दिल्ली में हाशिए पर है. वर्तमान चुनावों का अंतिम परिणाम क्या होगा ये मतगणना के बाद ही स्पष्ट होगा किन्तु दिल्ली विधानसभा चुनाव की स्थिति का आकलन करने के लिए कांग्रेस का भी आकलन करना होगा, बिना इसके विधानसभा चुनावों की सही तस्वीर सामने नहीं आएगी. इसके लिए विगत तीन विधानसभा चुनावों का आकलन करना होगा.

 

दिल्ली विधानसभा 2015 और 2019 के चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस पूरे परिदृश्य से गायब हुई उसे देख कहा जाने लगा कि कांग्रेस का विकल्प आप है. 2013 में आप ने अन्ना आन्दोलन लहर के साथ पहली बार चुनाव में उतरते ही सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा. 70 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा 32 सीटों के साथ पहले स्थान पर, आप 28 सीटों के साथ दूसरे और सत्ताधारी कांग्रेस महज 08 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर आई. भाजपा विरोधी मानसिकता के कारण कांग्रेस ने आप को समर्थन देकर सरकार बनवाई जबकि अन्ना आन्दोलन से जन्मी आप का सबसे बड़ा विरोधी दल कांग्रेस ही बना था.

 



पहली बार में ही अपनी उपस्थिति को इस रूप में देखकर अरविन्द केजरीवाल को भ्रम हो गया कि वे भ्रष्टाचार के नाम पर कहीं भी, कैसी भी जीत, किसी के खिलाफ प्राप्त कर सकते हैं. विधानसभा में भी उनकी जीत कांग्रेस की सशक्त नेता और दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ थी. इसी सोच के चलते महज 49 दिन की सरकार चलाने के बाद केजरीवाल लोकसभा चुनाव की तरफ मुड़ गए. लोकसभा चुनावों के पश्चात् दिल्ली ने 2015 में दोबारा चुनावों का मुँह देखा. दिल्ली विधानसभा 2015 चुनाव परिणाम सोचने वाले थे कि आप या अरविन्द केजरीवाल ने महज 49 दिन में ऐसे कौन से काम कर डाले थे कि 2013 चुनाव में 28 सीटें जीतने वाली आप ने इन चुनावों में 63 सीटें हासिल कीं? यह भी सोचने वाली बात थी कि जिस भाजपा की स्थिति कांग्रेस या शीला दीक्षित के कार्यकाल में बुरी नहीं रही, उसने महज 49 दिन में ऐसे कौन-कौन से गलत कदम उठाए कि उसे मात्र तीन सीट पर सिमटना पड़ा?

 

इन सभी सवालों का जवाब चुनाव परिणामों में ही छिपा हुआ था, जिसे देखकर भी अनदेखा किया गया. 2013 के चुनाव परिणामों के मुकाबले आप को 2015 में सभी सत्तर सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. यह महज संयोग नहीं कहा जायेगा कि कांग्रेस को 2013 के चुनाव के मुकाबले 2015 में दो सीटों, मंगोलपुरी और मतिया महल को छोड़ शेष 68 सीटों पर बहुत ही कम मत मिले. यहाँ कांग्रेस के मतों का कम होना उतना आश्चर्यचकित नहीं करता जितना इस बात के लिए करता है कि बहुत सी सीटों पर यह कमी दो से पाँच गुनी तक रही. इस आँकड़े के परिदृश्य में भाजपा ने 2013 के मुकाबले 2015 में महज 17 सीटों पर कम मत प्राप्त किये. इनमें कुछ सीटों पर यह अंतर सौ मतों से भी कम का रहा. क्या इसे महज संयोग कहकर अनदेखा किया जा सकता है?

 

दरअसल ये पूरा खेल मत-स्थानांतरण का था. मतदाताओं का एक दल से दूसरे दल की तरफ, एक प्रत्याशी से दूसरे प्रत्याशी की तरफ स्विंग कर जाना कोई नई घटना नहीं थी मगर समूची विधानसभा के मतदाताओं का स्विंग कर जाना साधारण घटना नहीं थी. भाजपा या कि मोदी विरोधियों ने एहसास कर लिया कि अन्ना आन्दोलन से मिले समर्थन और उसके बाद 2015 में मतों के ट्रांसफर से भाजपा विरोध में आप को कांग्रेस का विकल्प अथवा उसकी टीम बी बनाया जा सकता है. इसी कारण से दिल्ली में मोदी विरोध में, भाजपा विरोध में सभी दल किसी न किसी रूप में एकजुट बने रहे. इन दलों ने खुलकर मोदी का विरोध किया, भाजपा का विरोध किया मगर आपस में एक-दूसरे का विरोध करने से बचते रहे. अरविन्द केजरीवाल के वे सारे सबूत कहीं गायब हो गए जो शीला दीक्षित के खिलाफ मंचों से दिखाए जाते रहे थे. इस खेल में किसी तरह की कमी नहीं आई बल्कि उसे और मजबूती प्रदान की गई. इसमें केन्द्र सरकार के निर्णयों को आधार बनाकर अनावश्यक विरोध किया गया.

 

इसके बाद भी विधानसभा 2019 में आप अपना पिछला कारनामा दोहराने में असफल रही. 2015 के चुनाव के मुकाबले इस बार मात्र 35 सीटों पर ही ज्यादा मत प्राप्त हुए. भाजपा को 201के मुकाबले 57 सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. कांग्रेस ने कुल 06 सीटों पर अधिक मत प्राप्त किये. इसे भी संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता कि 70 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को मात्र 08 सीटों पर पाँच अंकों में मत प्राप्त हुएउनमें भी महज तीन सीटों में वह बीस हजार या उसके आसपास सिमट गई. ये और बात है कि भाजपा इसके बाद भी महज आठ सीटों पर ही विजय हासिल कर सकी. 

 

आप की बढ़ती सीटों के पीछे भाजपा की कार्यप्रणाली, उसके नेतृत्व की स्थितियाँ भी प्रभावी रही होंगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु इसकी चर्चा किये बिना, परिणामों के आपसी सह-सम्बन्ध को परखे बिना आप को कांग्रेस का विकल्प बता देना अभी जल्दबाजी होगी. आप विशुद्ध रूप से कांग्रेस की टीम बी के रूप में देखी जा सकती है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि जहाँ-जहाँ कांग्रेस चुनावों में पराजित हुई है वहाँ उसके द्वारा ईवीएम पर ऊँगली उठाई गई, केन्द्र सरकार पर आरोप लगाये गए लेकिन दिल्ली के दो विधानसभा चुनावों में शून्य सीटें लाने के बाद भी उसकी तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया. कांग्रेस का विरोध करके जमीन बनाने वाली आम आदमी पार्टी को पहली बार में ही समर्थन देकर सरकार बनवाना, एक भी सीटें न मिलने के बाद भी ईवीएम पर हो-हल्ला न मचाना, एकाएक कांग्रेस के मतों में जबरदस्त गिरावट आना और उसी अनुपात में आम आदमी पार्टी के मतों का बढ़ना इसे कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि अवसरवादी राजनीति सिद्ध करता है.

 


28 जनवरी 2025

हिन्दुओं की आस्था पर फिर आघात

एक तरफ बहुसंख्यक देशवासी प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ की पावनता का एहसास कर रहे हैं वहीं कुछ राजनैतिक पक्ष इसको मलिन बनाने में लगे हैं. महाकुम्भ की पावनता को राजनैतिक रंग देने से राजनैतिक दल, व्यक्तित्व चूक नहीं रहे हैं. इसके आरम्भ होने के पहले से ही भाजपा-विरोधी, हिंदुत्व-विरोधी मानसिकता वालों द्वारा अनर्गल प्रलाप किया जा रहा है. इसी में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के एक बयान ने विवाद पैदा कर दिया है. उन्होंने कहा कि बीजेपी नेताओं के बीच गंगा स्नान की होड़ लगी हुई है, हालांकि इससे कोई गरीबी दूर होने वाली नहीं है. कांग्रेस पार्टी धर्म के नाम पर शोषण को कभी बर्दाश्त नहीं करने वाली. कांग्रेस अध्यक्ष को संभवतः जानकारी नहीं रही होगी कि कांग्रेस के पुराने नेता, जिसमें कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी भी शामिल हैं, कुम्भ में स्नान कर चुके हैं. देखा जाये तो यह बयान राजनैतिक विरोध के साथ-साथ धार्मिक आस्था के विरोध का भी है.  

 



विगत कुछ वर्षों से अनेक राजनैतिक दलों, व्यक्तियों का मुख्य उद्देश्य राजनैतिक विरोध के नाम पर हिंदुत्व पर, हिन्दुओं की आस्था पर चोट करना है. अवसर मिलते ही उनके द्वारा ऐसा कर लिया जाता है. कांग्रेस अध्यक्ष को यदि भाजपा नेताओं के स्नान करने से आपत्ति थी तो उनको किसी अन्य विषय के सन्दर्भ सहित भाजपा की, उनके नेताओं की आलोचना करनी चाहिए थी मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. दरअसल गैर-भाजपाई दलों की दृष्टि में महाकुम्भ हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का केन्द्र होने से ज्यादा भाजपा की राजनीति को सशक्त करने वाला मंच बनता जा रहा है. महाकुम्भ में जिस तरह से हिन्दू आस्था का सैलाब उमड़ रहा है उससे इन दलों को अपने राजनैतिक अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगता समझ आ रहा है. यही कारण है कि अनेक दलों द्वारा लगातार किसी न किसी रूप में महाकुम्भ की आलोचना का अवसर खोजा जा रहा है. यह अवसर खड़गे को भाजपा नेताओं के गंगा स्नान करने के रूप में हाथ लगा.

 

धर्म, गंगा स्नान, महाकुम्भ आदि किसी व्यक्ति की आस्था से जुड़े विषय हैं. पिछले कुछ समय से व्यक्ति की धार्मिक आस्था को, विशेष रूप से हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को रोजगार, आजीविका, अमीरी-गरीबी आदि से जोड़ कर देखा जाने लगा है. इसका जीता-जागता उदाहरण श्रीराम जन्मभूमि मंदिर रहा है. उसे लेकर अनर्गल प्रलाप बराबर बना रहता था. मंदिर के स्थान पर कोई अस्पताल बनवाने की बात करता था, कोई विद्यालय बनाये जाने की वकालत करता था. मंदिर निर्माण को रोजगार से, आजीविका से जोड़कर भी लगातार सवाल उठाये गए. यहाँ सवाल उठाये जाने वालों की नीयत में किसी व्यक्ति का भला करना नहीं, किसी वर्ग-विशेष को लाभ पहुँचाना नहीं वरन हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ करना रहा है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि हिन्दुओं की आस्था पर, उनके धार्मिक स्थलों पर, उनके धार्मिक कृत्यों पर प्रश्न खड़े करते लोगों द्वारा कभी भी किसी अन्य धर्म, मजहब के लिए ऐसे प्रश्न नहीं किये गए. कभी इस पर बयान नहीं दिए गए कि किसी दरगाह, मजार पर चादर चढ़ाने से किसी गरीब के नंगे बदन को वस्त्र नहीं मिल जाता. कभी सवाल नहीं उठाया गया कि मोमबत्तियाँ जलाकर प्रार्थना करने से किसी गरीब के घर रौशनी हो जाती. ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ हिन्दुओं के धार्मिक क्रिया-कलाप ही संचालित होते हों, अन्य धर्मों के क्रिया-कलाप भी यहाँ पूरे उत्साह के साथ संचालित होते हैं, अन्य धर्मों के स्थल यहाँ अपनी पूरी आभा के साथ स्थापित हैं. ऐसी स्थिति होने के बाद भी हिन्दुओं की आस्था पर सवाल उठाना ऐसे लोगों की कुत्सित मानसिकता का परिचायक है.

 



ये बात राजनैतिक लोगों को समझ में नहीं आती है कि धर्म किसी भी व्यक्ति के आंतरिक विश्वास का विषय है. इसके माध्यम से व्यक्ति न केवल स्वयं को सुरक्षित समझता है बल्कि सकारात्मक रूप से प्रभावित भी होता है. वर्तमान में राजनैतिक दलों द्वारा संवैधानिक अनुच्छेदों का कथित रूप से फायदा उठाकर धर्म के द्वारा राजनीति को चमकाया जा रहा है. सार्वजानिक स्थलों पर धार्मिक कृत्यों को समर्थन देना, शैक्षणिक संस्थानों की आड़ में मजहबी शिक्षा प्रदान करना, अल्पसंख्यकों के नाम पर दबाव समूह के रूप में राजनीति करना इन्हीं अनुच्छेदों की आड़ लेकर किया जाने लगता है. समय-समय पर अलग राज्य की माँग, धार्मिक स्थलों का उपयोग राजनीतिक कार्यों के लिए करने जैसे कदम उठाये जाते रहते हैं.

 

जहाँ तक सवाल हिन्दुओं का है तो इस देश में सदैव से ही हिन्दुओं को साम्प्रदायिक घोषित करने का काम किया जाता रहा है. धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के नाम पर बार-बार समाज में हिन्दुओं को बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है. हिन्दुओं को बदनाम करने की आड़ में भारत देश में भगवा आतंकवादहिन्दू आतंकवाद का प्रचार किया जाता रहा है. कुछ इसी तरह की हरकत खड़गे के बयान को कहा जायेगा. ये सोचने-समझने वाली बात है कि धार्मिक कृत्य मनोभावों को, संस्कारों को, पारिवारिक मूल्यों को सहेजने का, पल्लवित-पुष्पित करने का कार्य करते हैं. आस्था में, धार्मिक विश्वास में, कृत्य में कभी भी आर्थिक दृष्टिकोण को हावी नहीं होने दिया गया है. पता नहीं राजनैतिक रूप से खुद को सशक्त समझने वाले लोग धार्मिक, सामाजिक रूप से इतने कंगाल क्यों हो जाते हैं कि वे व्यक्तियों की आस्था, भावना से खेलने का काम करने लगते हैं?