30 सितंबर 2025

अंतर्मन का रावण मारें

विजयादशमी का पर्व पूरे जोश-उत्साह के साथ मनाया जाता है. रावण का पुतला जलाया जाता है. सांकेतिक रूप से सन्देश देने के लिए प्रतिवर्ष बुराईअत्याचार के प्रतीक को सत्य और न्याय के प्रतीक के हाथों मरवाया जाता है इसके बाद भी समाज में असत्यहिंसाअत्याचारबुराई बढ़ती जाती है. साल-दर-साल रावण का पुतला फूँकने के बाद भी समाज से न तो बुराई दूर हो सकी और न ही असत्य को हराया जा सका है. देखा जाये तो विजयादशमी का पावन पर्व आज सिर्फ सांकेतिक पर्व बनकर रह गया है. इंसानी बस्तियों में छद्म रावण कोछद्म अत्याचार को समाप्त करके लोग अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. दरअसल समाज व्यक्तियों का समुच्चय है. व्यक्तियों के बिना समाज का कोई आधार ही नहीं. समाज की समस्त अच्छाइयाँ-बुराइयाँ उसके नागरिकों पर ही निर्भर करती हैं. इसके बाद भी नागरिकों में समाज के प्रति कर्तव्य-बोध जागृत नहीं हो रहा है. समाज के प्रतिसमाज की इकाइयों के प्रतिसमाज के विभिन्न विषयों के प्रति नागरिक-बोध लगातार समाप्त होता जा रहा है. इसी के चलते समाज में विसंगतियाँ तेजी से बढ़ रही हैं. आलम ये है कि नित्य-प्रति एक-दो नहीं सैकड़ों घटनाएँ हमारे सामने आती हैं जो समाज की विसंगतियों को दृष्टिगत करती हैं.

 

प्रत्येक वर्ष पूरे देश में प्रत्येक नगर में, कस्बे में रावण को जलाने का कार्य किया जाता है, इसके बाद भी देश भर में रावण के विविध रूप अपना सिर उठाये घूमते दिखते हैं. कहीं आतंकवाद के रूप में, कहीं हिंसा के रूप में; कहीं जातिवाद के रूप में, कहीं क्षेत्रवाद के रूप में; कहीं भ्रष्टाचार के रूप में, कहीं रिश्वतखोरी के रूप में. यही वे स्थितियाँ हैं जो समझाती हैं कि आत्मा अमर-अजर है. यदि वाकई देह की मौत के साथ-साथ आत्मा की भी मृत्यु हो जाती तो जिस समय राम ने रावण को मारा था उसी समय उसी वास्तविक मौत हो गई होती. वह अपने विविध रूपों के साथ प्रत्येक कालखण्ड में अराजकता की स्थिति को पैदा नहीं कर रहा होता. आत्मा की अमरता के कारण ही रावण प्रत्येक वर्ष अपना रूप बदल कर हमारे सामने आ खड़ा होता है और हम हैं कि विजयादशमी को उसके पुतले को जलाकर इस मृगमारीचिका में प्रसन्न रहते हैं कि हमने रावण को मार गिराया है. वास्तविकता में रावण किसी भी वर्ष मरता नहीं है बल्कि वह तो साल-दर-साल और भी विकराल रूप धारण कर लेता है; साल-दर-साल अपार विध्वंसक शक्तियों को ग्रहण करके अपनी विनाशलीला को फैलाता रहता है.

 



सुनने में बुरा भले लगे मगर कहीं न कहीं हम सभी में किसी न किसी रूप में एक रावण उपस्थित रहता है. इसका मूल कारण ये है कि प्रत्येक इन्सान की मूल प्रवृत्ति पाशविक है. उसे परिवारसमाजसंस्थानों आदि में स्नेहप्रेमभाईचारा आदि सिखाया जाता है जबकि हिंसाअत्याचारबुराई आदि कहीं भी सिखाई नहीं जाती है. ये सब दुर्गुण उसके भीतर जन्म के साथ ही समाहित रहते हैं जो वातावरणपरिस्थिति के अनुसार अपना विस्तार कर लेते हैं. यही कारण है कि इन्सान को इन्सान बनाये रखने के जतन लगातार किये जाते रहते हैंइसके बाद भी वो मौका पड़ते ही अपना पाशविक रूप दिखा ही देता है. कभी परिवार के साथ विद्रोह करकेकभी समाज में उपद्रव करके. कभी अपने सहयोगियों के साथ दुर्व्यवहार करके तो कभी किसी अनजान के साथ धोखाधड़ी करके. यहाँ मंतव्य यह सिद्ध करने का कतई नहीं है कि सभी इन्सान इसी मूल रूप में समाज में विचरण करते रहते हैं वरन ये दर्शाने का है कि बहुतायत इंसानों की मूल फितरत इसी तरह की रहती है.

 

अपनी इसी मूल फितरत के चलते समाज में महिलाओं के साथ छेड़खानी कीबच्चियों के साथ दुराचार कीबुजुर्गों के साथ अत्याचार कीवरिष्ठजनों के साथ अमानवीयता की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं. जरा-जरा सी बात पर धैर्य खोकर एक-दूसरे के साथ हाथापाई कर बैठनाहत्या जैसे जघन्य अपराध का हो जानासामने वाले को नीचा दिखाने के लिए उसके परिजनों के साथ दुर्व्यवहार कर बैठनास्वार्थ में लिप्त होकर किसी अन्य की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना आदि इसी का दुष्परिणाम है. ये सब इंसानों के भीतर बसे रावण के चलते है जो अक्सर अपनी दुष्प्रवृतियों के कारण जन्म ले लेता है. अपनी अतृप्त लालसाओं को पूरा करने के लिए गलत रास्तों पर चलने को धकेलता है. यही वो अंदरूनी रावण है जो अकारण किसी और से बदला लेने की कोशिश में लगा रहता है. इसके चलते ही समाज में हिंसाअत्याचारअनाचारअविश्वास का माहौल बना हुआ है. अविश्वास इस कदर कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भय लगने लगा है, आपसी रिश्तों में संदिग्ध वातावरण पनपने लगा है.

 

हममें से कोई नहीं चाहता होगा कि समाज मेंपरिवार में अत्याचार-अनाचार बढ़े. इसके बाद भी ये सबकुछ हमारे बीच हो रहा हैहमारे परिवार में हो रहा हैहमारे समाज में हो रहा है. हमारी ही बेटियों के साथ दुराचार हो रहा है. हमारे ही किसी अपने की हत्या की जा रही है. हमारे ही किसी अपने का अपहरण किया जा रहा है. करने वाले भी कहीं न कहीं हम सब हैंहमारे अपने हैं. ऐसे में बेहतर हो कि हम लोग रावण के बाहरी पुतले को मारने के साथ-साथ आंतरिक रावण को भी मारने का काम करें. हमें संकल्प लेना पड़ेगा कि देश में फैले विकृतियों के रावणों को जलाने का, मारने का कार्य करें. अपने आपको चारित्रिक शुचिता की शक्ति से सँवारें ताकि गली-गली, कूचे-कूचे में घूम-टहल रहे रावणों को मार सकें. तब हम वास्तविक समाज का निर्माण कर सकेंगेवास्तविक इन्सान का निर्माण कर सकेंगेवास्तविक रामराज्य की संकल्पना स्थापित कर सकेंगे.


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