25 अक्टूबर 2025

हिंसात्मक गतिविधियों से भरा समाज

ये किसी तरह के समाज का निर्माण कर लिया हम लोगों ने? सुबह आँख खुलने से लेकर रात सोने तक कहीं न कहीं से हिंसात्मक खबरों का आना लगा ही रहता है. इन खबरों का केन्द्र देश ही नहीं रहता है बल्कि विश्व स्तर पर चारों तरफ से इसी तरह की खबरें सुनाई पड़ती हैं. कहीं दो व्यक्ति आपस में लड़ने में लगे हैं, कहीं दो परिवारों के बीच कलह मची हुई है, कहीं दो राज्यों के बीच विवाद की स्थिति है तो कहीं दो देशों में युद्ध चल रहा है. ऐसा लगता है जैसे समाज में चारों तरफ अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि का समावेश बना हुआ है. सद्भाव, सहजता, शांति, धैर्य आदि को जैसे भुला ही दिया गया है. पारिवारिक सम्बन्धों में, रक्त-सम्बन्धियों में विभेद इस स्तर तक है कि एक-दूसरे की जान तक ले ली जा रही है. समाज की इकाई एक व्यक्ति के दायरे से बाहर निकल कर देखें तो एक देश के रूप में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. विस्तारवाद की नीति के चलते, अपने वर्चस्व को, प्रभुता को थोपने की नीयत के चलते जहाँ बड़े-बड़े देशों द्वारा छोटे-छोटे देशों को किसी न किसी रूप में अपने कब्जे में किये जाने की मानसिकता काम करती है, वहीं महाशक्तियाँ अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे को नियंत्रित करने की नीतियाँ निर्धारित करती हैं.

 

समाज की वर्तमान स्थिति यह है कि यहाँ प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा से अधिक बैर, वैमनष्यता, हिंसा आदि दिखाई दे रही है. क्या कभी इस पर विचार किया गया कि आखिर ऐसा क्या है इंसानी स्वभाव के मूल में कि उसे सदियों से प्रेम, सौहार्द्र का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है मगर वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है? आये दिन खबरें मिलती हैं मासूम बच्चियों के साथ दुराचार की, उनकी हत्या की. आये दिन देखने में आ रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर हमले किये जा रहे हैं, उनकी जान ले ली जा रही है. लगभग नित्यप्रति की खबर बनी हुई है किसी की हत्या, कहीं लूट, कहीं अपहरण, कहीं मारपीट. इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए. गम्भीरता से विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से समझ आता है कि हिंसा, अत्याचार, क्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल है. कोई व्यक्ति वह चाहे आम नागरिक हो या फिर अधिकार प्राप्त व्यक्ति, सभी के मन में कहीं न कहीं एक तरह का हिंसात्मक भाव-बोध छिपा होता है. आम नागरिक अपने इसी भाव-बोध के वशीभूत अपने आस-पड़ोस में हिंसात्मक गतिविधियाँ करता है तो वही किसी तानाशाही मानसिकता वाला राष्ट्राध्यक्ष विस्तारवादी मानसिकता के चलते अपने आसपास के देशों के प्रति नकारात्मक भाव रखता है.

 

यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि आदिमानव से महामानव बनने की होड़ में लगे इंसान को लगातार प्रेम, दया, करुणा आदि का पाठ पढ़ाया जाता रहा है. उसे समझाया जाता रहा है कि हिंसा गलत है, वह चाहे जीव पर हो, निर्जीव पर हो, पेड़-पौधों पर हो. इंसान को कदम-कदम पर सीख दी गई कि उसे आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. आपसी वैमनष्यता से उसे दूर रहना चाहिए. उसे कभी नहीं सिखाया गया कि कैसे हिंसा करनी है. उसे किसी ने नहीं सिखाया कि कैसे दूसरे से बैर भावना रखनी है. उसे किसी भी तरीके से नहीं बताया गया कि सामने वाले की हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो पाठ उसे सदियों से पढ़ाया जाता रहा, शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा, परिवार द्वारा पढ़ाया जाता रहा, समाज द्वारा पढ़ाया जाता रहा इंसान उसी पाठ को कायदे से नहीं सीख पाया. इसके सापेक्ष जिस पाठ को किसी ने नहीं सिखाया, जिसे सिखाने के सम्बन्ध में कोई संस्थान नहीं है वे कार्य उसने न केवल भली-भांति सीख रखे हैं वरन वह उन्हें तीव्रता के साथ करने भी लगा है. ऐसा लगता है जैसे उसने अपने आसपास तनावपूर्ण माहौल वाली दुनिया बनाने का ही संकल्प ले रखा है.

 

इस तरह की दुनिया में जहाँ सब कुछ स्वार्थ पर आधारित होने लगा है; जहाँ व्यक्तियों की, देशों की प्रतिष्ठा का आधार अधिकार, उसका आर्थिक स्तर, शक्ति प्रदर्शन आदि होने लगा हो वहाँ आपस में खाई बनना स्वाभाविक है. वैश्विक परिदृश्य में दो देशों के बीच विगत कई वर्षों से चल रहे युद्ध, संघर्ष इसके सशक्त उदाहरण हैं. यदा-कदा संघर्ष विराम के नाम पर चंद दिनों की शांति भले ही देखने को मिल जाए, भले ही कोई अपनी पीठ स्वयं ही थपथपा ले किन्तु तनाव, संघर्ष, हमला आदि पुनः अपनी तीव्रता के साथ आरम्भ हो जाते हैं. नागरिकों के हितार्थ लिए जाने वाले निर्णय अचानक से भुला दिए जाते हैं. ऐसी स्थिति न केवल चिंतनीय है बल्कि भयावह भी है.

 

सामाजिक रूप से कितने भी प्रयास किये जाएँ किन्तु इंसानों का मूल स्वभाव बदले बिना शांति सम्भावना की स्थिति अब संभव नहीं लगती है. वर्तमान समाज इतने खाँचों में विभक्त हो चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा उचित होगा. प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैं, अपने आदर्श हैं, अपने विचार हैं, अपनी विचारधारा है. सबकी विचारधारा, सबके आदर्श दूसरे की विचारधारा, आदर्श से श्रेष्ठ हैं. ऐसे में श्रेष्ठता, हीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर हावी हो रहा है. समझने वाली बात है जब आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो रही हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है. सरकार, प्रशासन, समाज, व्यक्ति सबके सब असहाय बने खुद पर हमला होते देख रहे हैं.

 


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