चर्चित लोकगायिका मैथिली ठाकुर को भाजपा की सदस्यता
लेने के अगले दिन ही बिहार विधानसभा चुनाव में अलीनगर सीट से प्रत्याशी बनाया गया.
उनको प्रत्याशी बनाये जाने को लेकर अनेक तरह के तर्क-वितर्क शुरू हो गए. कोई उनकी
उम्र को लेकर टिप्पणी कर रहा है, कोई राज्यसभा में भेजे जाने की बात कर रहा है. किसी के द्वारा उनके
राजनैतिक अनुभवशून्यता का उदाहरण दिया जा रहा है तो किसी के द्वारा इसे कला के
प्रति अन्याय बताया जा रहा है. सदस्यता लेने के अगले दिन ही प्रत्याशी बनाये जाने
को जहाँ पैराशूट प्रत्याशी से तुलना की जा रही है वहीं स्थानीय प्रतिनिधियों के
साथ पक्षपात करना बताया जा रहा है. इन तमाम सारी चर्चाओं के बीच मैथिली ठाकुर के
चरित्र हनन करने सम्बन्धी तमाम मीम्स, चुटकुले सोशल मीडिया कुत्सित
मानसिकता वालों द्वारा फैलाये जाने लगे.
इन चर्चाओं के सापेक्ष कुछ बातों पर ध्यान देना ही
होगा. किसी व्यक्ति के राजनैतिक रूप से अनुभवहीन होने के तात्पर्य यह तो कतई नहीं
है कि वह राजनीति में असफल हो जायेगा. वह समाजहित में, जनहित में कार्य नहीं कर सकेगा. देखा
जाये तो ये सारी बातें मैथिली की उम्र, कला, अनुभवहीनता आदि के कारण नहीं उपजी हैं बल्कि इनके पीछे भाजपा द्वारा
स्थानीय कार्यकर्ताओं को, जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा करना
है. यह सही हो सकता है कि किसी नए व्यक्ति को पार्टी का सदस्य बनने के अगले दिन ही
प्रत्याशी बनाकर उन तमाम पुराने कार्यकर्ताओं, नेताओं की
उपेक्षा ही है जो विगत लम्बे समय से अपनी प्रत्याशिता की राह बना रहे थे.
एकबारगी मान भी लिया जाये कि यह भाजपा का गलत कदम है
कि एकदम नए व्यक्ति को पुराने कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों पर प्रभावी बना दिया गया तो क्या इस बात पर ही
किसी भले व्यक्ति को, कलाकार को सक्रिय राजनीति में नहीं
उतरने दिया जाना चाहिए? राजनैतिक क्षेत्र को लेकर समाज की
विडम्बना यही हो गई है कि एक तरफ लोग राजनीति के गन्दी होने की चर्चा अनेकानेक
मंचों से करते हैं मगर उसी के सापेक्ष भले, योग्य व्यक्तियों
को सक्रिय राजनीति में देखना भी नहीं चाहते. राजनीति गन्दी है, संसद डाकुओं-लुटेरों से भर गई है, संविधान में हमारा विश्वास नहीं जैसे जुमले
आये दिन सुनने को मिल जाते हैं. कविता का मंच हो, साहित्य-विमर्श हो या धारावाहिक-फ़िल्मी कार्यक्रम हो सभी में राजनीति को
बेकार बताया जाता है. आज राजनीति को गाली देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना जाता
है; खुद को जागरूक
बुद्धिजीवी समझना होता है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वर्तमान
में बहुतायत जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों से मुकरते जा रहे हैं. राजनीति में
पदार्पण करने वाला अत्यंत अल्पसमय में ही बलशाली होकर सामने आ जाता है. कई-कई
अपराधों में लिप्त लोग भी माननीय की श्रेणी में शामिल होकर जनता के समक्ष रोब
झाड़ते दिखाई देते हैं. राजनीति की वर्तमान व्यवस्था को दोष देने के पूर्व यदि हम
अपने क्रियाकलापों, अपनी
जागरूकता पर निगाह डालें तो हम ही सबसे बड़े दोषी नजर आयेंगे. हमारे देश की संसद और
तमाम विधानसभाओं में एक निश्चित समयान्तराल के बाद चुनाव होता है. चुनाव का
निर्धारित समय किसी लिहाज से टाला नहीं जा सकता है और सदन की निर्धारित सीटों को
अपने निश्चित समय पर भरा ही जाना है. ऐसे में यदि अच्छे लोग उन्हें भरने को आगे
नहीं आयेंगे तो जो भी सामने आयेगा वही आने वाले निर्धारित समय के लिए सदन का
निर्वाचित सदस्य होगा. ऐसी स्थिति में दोष हमारा ही है कि हमने स्वयं अपने को
अच्छा माना भी है और राजनीति से पीछे खींचा भी है.
देश, प्रदेश को संचालित करने वाली सबसे अहम् प्रक्रिया को, सबसे महत्त्वपूर्ण कदम राजनीति को आज उससे दूर होते जा रहे प्रबुद्ध वर्ग
ने नाकारा साबित करवा दिया है. राजनीति को सबसे निकृष्ट कोटि का काम सिद्ध करवा
दिया है. इसी कारण गली-चौराहे-नुक्कड़ पर खड़े लोग राजनीतिक चर्चा में तो संलिप्त
दिखाई पड़ जाते हैं, उसकी अच्छाइयों से ज्यादा उसमें बुराइयों
को खोजने का काम करते हैं, उसमें सक्रिय ईमानदार लोगों से
अधिक उसमें सक्रिय भ्रष्ट-माफिया लोगों की अधिक चर्चा करते हैं. इसका दुष्परिणाम
ये होता है कि राजनीति के नकारात्मक प्रचार का एक से बढ़ते हुए अनेक तक चला जाता है
और समाज की एक सोच ये बनती चली जाती है कि वर्तमान में राजनीति से अधिक घटिया,
अधिक बुरी कोई चीज नहीं. राजनीति से प्रबुद्धजनों के मोह-भंग ने,
राजनीति के प्रति होते नकारात्मक प्रचार ने, राजनीति
के प्रति अपनी भावी पीढ़ी को प्रेरित न कर पाने ने राजनीति के विरुद्ध नकारात्मक
माहौल बना दिया है.
आज प्रत्येक मतदाता राजनीति पर बड़ी लम्बी-लम्बी
चर्चा करने का दम रखता है मगर अपनी संतानों को राजनीति में आने को प्रेरित नहीं
करता. उसके द्वारा राजनीति में आती गिरावट पर चिंता व्यक्त की जाती है मगर उसके
उसमें सुधार के लिए भावी पीढ़ी को आगे नहीं किया जाता. ऐसे लोगों की बातों में
राजनीति की गिरावट दिखती है मगर इनके मन में बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के लुभावने
पैकेज के सपने सजे होते हैं. इस तरह की चर्चाओं के चलते ही अच्छे लोग न राजनीति
में आते हैं न ही चुनावों में उतरते हैं. इस तरह की स्थिति के धीरे-धीरे बढ़ने से
भले लोग राजनीति से, चुनावी
मैदान से बाहर हैं और अपराधी किस्म के लोग राजनीति में प्रवेश करते जा रहे हैं. राजनीति
में आती जा रही गंदगी सिर्फ बातें करने से, अनावश्यक बहस
करने से दूर नहीं होने वाली. यदि इसे साफ़ करना है, राजनीतिक
गंदगी को मिटाना है तो राजनीति की बातें नहीं वरन राजनीति करनी होगी. आज के लिए न
सही, कल के लिए; अपने लिए न सही, अपनी भावी पीढ़ी के लिए लोगों को जागना होगा.
हाँ, मैथिली ठाकुर जैसे लोगों का राजनीति में, चुनावों
में उतरना सुखद संकेत है लेकिन ऐसे व्यक्तियों को और राजनैतिक दलों को इस बात का
ध्यान देना चाहिए कि ऐसे भले लोग, स्वच्छ छवि के लोग, कलाकार आदि पहले कुछ वर्ष जनता के बीच गुजारें, जनहित के कार्यों में
अपना समय दें. इससे जहाँ नागरिकों के बीच उनकी छवि पुष्ट तो होगी ही, अपने दल में भी उनके प्रति एक विश्वास पैदा होगा.
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