अक्सर हम मित्रों
के बीच प्रेम, प्यार, इश्क को लेकर चर्चा छिड़ जाती है. चर्चा तो इन शब्दों पर न जाने कब से
चलती चली आ रही है किन्तु इसका कोई निष्कर्ष निकलता नहीं दिखाई दिया. प्रेम, प्यार जैसे विषय पर जितने लोग उससे कहीं ज्यादा बातें देखने को मिलती
हैं. एक ऐसा देश जहाँ प्रेम के प्रतीक राधा-कृष्ण की पूजा होती है वहाँ प्रेम के
नाम पर बहुत बड़ा संशय बना हुआ है. खैर, बात इस पर बाद में, जैसी कि पोस्ट का आरम्भ किया था दोस्तों की चर्चा से तो बात वहीं.
दोस्तों की चर्चा इस विषय पर इसलिए भी होती है क्योंकि हमारा इस विषय पर बहुत अलग
नजरिया है. देखा जाये तो प्रेम, प्यार पर अलग दृष्टि से ही
सोचने की आवश्यकता है. हम दोस्तों के बीच भी अक्सर यही बिंदु उभर कर सामने आता है.
यदि इस विषय पर और
कोई बात न करते हुए प्यार शब्द को ही देखें तो इसके मायने रिश्तों के अनुसार बदलते
भी रहते हैं. यदि एक व्यक्ति कहे कि उसे अपने पिता से प्यार है तो इसके सन्दर्भ
अलग होंगे. वही व्यक्ति कहे कि उसे अपनी माँ से प्रेम है तो इसके सन्दर्भ भी अलग
हो सकते हैं. इसी तरह यदि वही व्यक्ति कहे कि उसे अपने भाई से, बहिन से, बाबा, दादी, नाना, नानी आदि-आदि से
प्रेम है तो इसमें सबके लिए एक स्पष्ट सा नजरिया दिखेगा किन्तु जैसे ही वही व्यक्त
कहे कि उसे अपनी सहकर्मी से प्रेम है या उसे अपने साथ में पढ़ने वाले/वाली से प्रेम
है तो सुनने वाले की मानसिकता में तुरंत बदलाव दिखाई देगा. ऐसा क्यों? यदि अभी तक विभिन्न रिश्तों, संबंधों में प्रेम
किसी तरह से संशय का विषय नहीं बना था तो सहकर्मी या फिर सहपाठी के नाम पर प्रेम
शब्द ने अर्थ कैसे बदल लिया?
असल में प्रेम को
संबंधों के साथ, रिश्तों
के नाम पर बाँट दिया गया है. यही कारण है कि प्रेम का अर्थ शारीरिक संबंधों से, विवाह से लगाया जाने लगा है. ऐसा माना जाने लगता है कि दो व्यक्तियों में
उसी स्थिति में प्यार या प्रेम को स्वीकार्यता है जबकि वे स्त्री-पुरुष न हों. यदि
ऐसा स्त्री और पुरुष के बीच पाया जाता है तो वो अनैतिक होता है. दोस्तों के बीच की
चर्चाओं में इस विषय पर बहुत अलग तरीके से सोचने को, बात
करने को मिलता है. देखा जाये तो समाज में अभी भी प्यार के नाम पर बहुत ही संकुचित
मानसिकता पाई जाती है. इसे लेकर व्यापक दृष्टिकोण के लिए जरूरी है कि इस विषय पर
खुलकर बातचीत हो. समाज में प्रेम के नाम पर जिस तरह की खाँचेबंदी है वह इसे बदनाम
करने के और कुछ नहीं कर रही है. अत्यंत पवित्र अवधारणा, पावन
परंपरा को संकुचित मानसिकता ने गन्दा कर रखा है.
इक्कीसवीं सदी
बदलाव की सदी है, बहुत कुछ बदल भी रहा है मगर प्रेम के प्रति बनी संकुचित मानसिकता
में बदलाव नहीं दिखाई दिया है. प्रेम के रूपों में बदलाव आ गया है मगर उसके प्रति
बनी धारणा में बदलाव नहीं आया है. तमाम बदलावों, परिवर्तनों के बीच जब तक प्यार, प्रेम को समझने की दशा में, उसके प्रति सोच में बदलाव नहीं आता है तब तक इस विषय के प्रति सोच ऐसे ही
संकुचित बनी रहेगी.
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