विश्वास एक ऐसा
शब्द है जिसका स्थान बहुत मुश्किल से बना पाता है किन्तु उसके टूटने में एक पल भी
नहीं लगता है. आज विश्वास को लेकर बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं किन्तु उनके प्रति
लोगों में खुद ही विश्वास देखने को नहीं मिलता है. इसके लिए किसी भी रूप में
एकपक्षीय अवधारणा काम नहीं करती है बल्कि इसके प्रति गंभीरता, संवेदनशीलता के लिए दोनों पक्षों का
ईमानदार होना आवश्यक है. विश्वास के लिए एक-दूसरे के प्रति किसी भी रूप में शंका
का, लेशमात्र भी संदेह का कोई अवसर नहीं होना चाहिए. यदि ऐसा
होता है तो समझिये कि उस जगह पर, उन दो व्यक्तियों के बीच
में किसी भी रूप में विश्वास तो है ही नहीं, विश्वास कभी था
भी नहीं.
बात समझने योग्य
ही है, न कि समझाने
योग्य. इसका एहसास किया जाना चाहिए कि व्यक्ति किस तरह दूसरे पर विश्वास कर रहा है
और किस तरह दूसरे के मन में अपने प्रति विश्वास जगा रहा है. ऐसी स्थितियाँ बहुत हद
तक सामने आती हैं जबकि व्यक्ति चाहता है कि सब उस पर विश्वास करें किन्तु वह कहीं
न कहीं दूसरे के प्रति शंकालु बना रहता है. यह किसी भी रूप में सकारात्मक नहीं है.
विश्वास के लिए दोनों पक्षों का समान रूप से एक-दूसरे के प्रति समर्पित होना
अनिवार्य जैसा ही है. बिना इसके विश्वास के लिए विश्वासपरक भावना पैदा नहीं की जा
सकती है.
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