खूब लड़ी मर्दानी
वो तो झाँसी वाली रानी थी, ये
कविता आज भी रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी सुनाती है। वास्तव में अंग्रेजों
के सामने घुटने न टेक, मैं
अपनी झाँसी नहीं दूँगी का घोष कर रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा
दिए। वाराणासी में जन्मी मणिकर्णिका के रानी लक्ष्मीबाई बनने की गाथा भी उनके
कार्यों की तरह अविस्मरणीय है। रानी लक्ष्मीबाई कही जाने वाली मनु का जन्म 19
नवम्बर 1835 को काशी में एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में
हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपन्त ताम्बे और माता का नाम भागीरथी बाई था। मोरोपन्त
मराठा बाजीराव की सेवा करते थे। उनके पारिवारिक संरक्षण में ही मनु ने बचपन में ही
शस्त्र और शास्त्र, दोनों की
ही शिक्षा ली। इस दौरान लोग उन्हें प्यार से ‘छबीली’ के नाम से भी पुकारने लगे।
पन्द्रह वर्ष की
आयु में, सन 1850 में मणिकर्णिका का विवाह झाँसी के महाराजा
गंगाधर राव के साथ हुआ। यहीं आने के बाद वे मनु या मणिकर्णिका से झाँसी की रानी बन
गयी। विवाह पश्चात उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। ये शायद दैवीय विधान कहा जाये या
कि नियति का खेल कि विवाह के एक वर्ष पश्चात लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया
जिसकी चार माह पश्चात ही मृत्यु हो गयी। इस दुख के सदमे के कारण राजा अस्वस्थ रहने
लगे। इसी के चलते बाद में 21 नवम्बर
1853 को राजा गंगाधर राव का
निधन हो गया। एक तरफ झाँसी शोक में डूबी थी और दूसरी तरफ अंग्रेज उसे हड़पने का मन
बनाये थे। इसीलिए अंग्रेजों द्वारा चाल चलते हुए रानी लक्ष्मीबाई द्वारा 20
नवम्बर 1853 को गोद लिए बालक दामोदर राव को रानी लक्ष्मीबाई का
वारिस मानने से इंकार कर दिया।
अंग्रेजों ने
झाँसी पर चढ़ाई कर दी। रानी ने भी ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए अंग्रेजों को सा़फ
कह दिया ‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी’। उधर 1857 के विद्रोहियों ने सदर बा़जार स्थित किले पर कब़्जा
कर लिया। अपनी मौत से भागते हुए झाँसी में मौजूद सभी अंग्रे़जों ने झाँसी के मुख्य
किले में शरण ली। इस संघर्ष में 61 अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा गया। 6 जून से 8 जून 1857 तक चले इस संघर्ष में कैप्टन डनलप, लेफ्टिनेण्ट टेलर और कैप्टन गॉर्डन मारे
गये। कैप्टन स्कीन ने बचे हुए अंग्रे़ज सैनिकों सहित विद्रोहियों के सामने
आत्मसमर्पण कर दिया। इस घटना के बाद 12 जून 1857 को रानी
लक्ष्मीबाई ने एक बार फिर झाँसी राज्य का प्रशासन संभाला।
अंग्रेज अपनी हार
को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। उनका जनरल ह्यूरो़ज आखिरकार बदला लेने की नीयत से 21
मार्च 1858 को झाँसी आ पहुँचा। यहाँ 21 मार्च से 3 अप्रैल उसका रानी के
साथ घनघोर युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम पर पहुँच गया था किन्तु रानी को जीत सुनिश्चित
नहीं दिख रही थी। उनके कुछ अपने लोगों ने विश्वासघात करके अंग्रेजों को अवसर दे
दिया। अपने सलाहकारों की सलाह से रानी लक्ष्मीबाई 03 अप्रैल 1858 को आधी रात के बाद अपने अतिनिकट और विश्वस्त सैनिकों के साथ कालपी की ओर रवाना
हुई। अंग्रेज सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर वे हाथ नहीं आयीं।
कालपी से युद्ध की
स्थिति में ही रानी ग्वालियर पहुंची। यहाँ के किले पर कब्जा करने के बाद उनका
युद्ध अंग्रेजों से फिर शुरू हुआ। यहाँ भी रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रे़जी
सेना को पीछे हटना पड़ा। युद्ध के विषम क्षणों में रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक
पुत्र को अपनी पीठ पर बाँध कर किले से कूद पड़ी। उनको पकड़ने की नीयत से जनरल
ह्यूरो़ज स्वयं युद्धभूमि में डटा हुआ था। अंग्रेजों को लगातार परास्त करती रानी
ने जब सोनरेखा नाले को पार करना चाहा तो दुर्भाग्यवश उनका घोड़ा इस नाले को पार
नहीं कर सका। वह वहीं अड़ा रहा। उसी समय पीछे से एक अंग्रे़ज सैनिक ने रानी पर
तलवार से हमला कर दिया। इस हमले में उनको गम्भीर चोट आई। इस कारण मात्र 23 वर्ष की आयु में 18 जून 1858 को वे वीरगति को प्राप्त हुई। कहते हैं उनके सैनिक साथी उनको घायलावस्था में
बाबा गंगादास की कुटिया में ले गये। यहीं रानी लक्ष्मीबाई का प्राणान्त हुआ था।
इसी स्थान पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
अल्पायु में वे
संघर्ष की चेतना ना केवल बुन्देलखण्ड में जगा गईं बल्कि महिलाओं को भी जगा गईं।
रानी का बलिदान अमर है और बरसों तक सभी को आलोकित करता रहेगा।
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