शिक्षा किसी भी मानव को एक न्यायसंगत और समाज के विकास की राष्ट्रीय अवधारणा के
लिए प्रेरित करती है. यह उसे वैश्विक मंच तक ले जाती है. एक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा वैश्विक
मंच पर सामाजिक न्याय, समानता, उन्नति आदि के मार्ग खोलती है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति
का उद्देश्य देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है. आज समूचा विश्व
एक व्यापक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. एक तरफ तकनीक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदि
के द्वारा वैज्ञानिक और तकनीकी विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर डाटा साइंस, कंप्यूटर,
गणित, विज्ञान आदि क्षेत्रों में ऐसे कुशल लोगों की आवश्यकता है जो विभिन्न क्षेत्रों
में विविध विषयों में मानक योग्यता रखते हों. इसी को दृष्टिगत रखते हुए नई शिक्षा नीति
में भारतीय परंपरा, सांस्कृतिक मूल्यों को आधार बनाते हुए इस प्रकार के लक्ष्य शामिल
किए गए हैं जो सभी विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने के साथ-साथ
भाषा, कला, संस्कृति, इतिहास से भी परिचित करा सकें.
वर्तमान शिक्षा नीति के द्वारा तर्कसंगत विचार, कार्य करने की क्षमता, करुणा, सहानुभूति,
वैज्ञानिक चिंतन, रचनात्मक कल्पनाशीलता, नैतिक मूल्य आदि के समावेशी गुणों से ओतप्रोत
इंसान का विकास करना है. इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा अवधारणात्मक हो ना कि रटंत पद्धति
वाली. इसी से अध्ययन-अध्यापन कार्य में भाषा की शक्ति को प्रोत्साहन दिया गया है. उसमें
सीखने के सतत मूल्यांकन पर जोर दिया गया है. सभी पाठ्यक्रमों और शिक्षण शास्त्रों में
स्थानीय संदर्भों की विविधता और सांस्कृतिकता पर विशेष बल दिया गया है. यह कदाचित
सत्य भी है कि कोई व्यक्ति जितनी सहजता से स्थानीय भाषा में, अपनी संस्कृति में किसी ज्ञान को
सीख सकता है, किसी अन्य भाषा में उतनी सहजता से नहीं सीख
सकता है.
शिक्षा के द्वारा ऐसे व्यक्तियों को तैयार किया जाए जो एक से अधिक विशिष्ट क्षेत्रों
में गहन स्तर पर अध्ययन करने में सक्षम हों और जिनमें नैतिक चरित्र, संवैधानिक मूल्यों,
बौद्धिक जिज्ञासा, वैज्ञानिक रचनात्मकता, सेवा की भावना, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान,
कला, मानविकी, भाषा आदि की क्षमताओं को सहेजने की क्षमता भी हो. इसके लिए ऐसे शिक्षा
संस्थान निर्मित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है जो स्थानीय एवं भारतीय भाषाओं
में शिक्षा के कार्यक्रम को बढ़ा सकें. इस बात पर भी बल दिया गया है कि बहु-विषयक शिक्षा व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए
जाएं. शिक्षा नीति के प्रस्ताव में बतलाया गया है कि भारतीय भाषाओं
को समुचित ध्यान और देखभाल नहीं मिल पाई है, जिसके कारण देश ने विगत 50
वर्षों में ही 220 भाषाओं को खो दिया है. यूनेस्को ने 197
भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित कर
दिया है. वे भाषाएँ जिनकी लिपि नहीं है, विलुप्त होने की कगार पर हैं. जनजाति और समुदायों
की भाषा भी विलुप्त हो रही है. भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन हेतु शिक्षा को प्रभावी
माना जा रहा है. इसी कारण से ऐसे पाठ्यक्रमों को विकसित करने पर जोर है, जिनमें भारतीय
भाषाओं, तुलनात्मक साहित्य, सृजनात्मक लेखन, कला, संगीत, दर्शनशास्त्र आदि के कार्यक्रमों
का निर्माण और विकास किया जा सके. स्थानीय संगीत, कला, भाषा आदि के प्रति
विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनको स्थानीय संस्कृति और ज्ञान से परिचित
करवाना भी एक प्रभावी कदम है. इसके व्यावहारिक क्रियान्वयन के लिए शिक्षण संस्थानों
में मातृभाषा, स्थानीय भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग में लाये जाने
पर जोर दिया गया है.
विद्यार्थियों में अपनी संस्कृति के प्रति समझ विकसित करने के लिए स्थानीय पर्यटन,
विरासत, संग्रहालय आदि के प्रति भी जागरूक दृष्टि अपनाये जाने को प्रमुखता दी गई
है. इसके लिए पर्यटन को बढ़ावा दिया गया है. एक भारत श्रेष्ठ भारत योजना के अंतर्गत
देश के 100 स्थलों की पहचान कर
वहाँ विद्यार्थियों को इन क्षेत्रों के बारे में ज्ञानवर्धन करने, उनके ऐतिहासिक, वैज्ञानिक
योगदान, परंपराओं, स्वदेशी साहित्य और ज्ञान आदि का अध्ययन करने के लिए भेजा
जायेगा. यहाँ इस बात पर भी बल दिया गया है कि इन सभी स्थलों के इतिहास, संस्कृति,
ज्ञान आदि का सभी भारतीय भाषाओं और उससे संबंधित स्थानीय कला एवं संरक्षण हेतु दस्तावेजीकरण
किया जाए. इसमें स्थानीय भाषा में बोलना, कहानियाँ सुनाना, कविता पाठ करना, नाटक खेलना,
लोक गायन, लोक नृत्य करना आदि शामिल है.
भाषाई विकास एवं संरक्षण हेतु भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रत्येक
भाषा के लिए अकादमी स्थापित किये जाने का भी प्रस्ताव शिक्षा नीति में रखा गया है.
इसमें प्रत्येक भाषा से श्रेष्ठ विद्वान एवं मूल रूप से वह भाषा बोलने वाले लोग शामिल
करने का विचार है ताकि नवीन अवधारणाओं का सरल किंतु सटीक शब्द-भंडार निर्मित करने
में सहायता मिल सकेगी. इसके अलावा इससे नियमित रूप से नवीनतम शब्दकोश जारी किया जा
सकेगा तथा शब्दकोश और शब्द-भंडार को भी विकसित किया जा सकेगा. इसके लिए भाषाई
विद्वानों के साथ-साथ शिक्षकों और विद्यार्थियों का भी सहयोग लिया जाये. इससे उनके
अपने विषय से संबंधित शब्द-भंडार और शब्दकोश को न केवल निर्मित करवाया जा सकता है
बल्कि उसे लगातार विकसित भी करवाया जा सकता है.
अभी तक देखने में आता रहा है कि न केवल संस्थान का बल्कि शिक्षक और शिक्षार्थी
का उद्देश्य कैसे भी करके अपने पाठ्यक्रम को समाप्त कर लेना भर था. उनका ध्यान
स्थानीय भाषा, बोली अथवा
स्थानीय संस्कृति, इतिहास की जानकारी करना, उसका विकास अथवा संरक्षण करना नहीं होता था. मानविकी, कला, संगीत से लगातार दूर होता जाता विद्यार्थी
सिर्फ और सिर्फ अच्छे अंक लाने के लिए, डिग्री प्राप्त करने
की दिशा में ही दौड़ता रहता था. यह स्थिति उसे तनावग्रस्त करती जा रही थी. इसका
दुष्परिणाम समाज में युवाओं का अवसाद में चले जाने, नशे का
शिकार होने, निराशा-हताशा के चलते आत्महत्या करने के रूप में
सामने आ रहा था. नई शिक्षा नीति में जिस तरह से पाठ्यक्रम में विज्ञान, कला, मानविकी, संगीत, संस्कृति, इतिहास आदि का समावेशी और वातावरण
अनुकूलित स्वरूप निर्मित किया गया है, इससे विद्यार्थियों के
समग्र विकास की दिशा का बहुत हद तक निर्धारण संभव है.
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