सुबह की गरमागरम चाय पी लेने के बाद जब मोबाइल खोला तो मालूम चला कि आज अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस है. चाय के बहुत बड़े चिलमची होने के बाद भी अक्सर इस दिन को भूल जाते हैं. ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि अब चाय हमारी जीवन-शैली में ऐसे शामिल हो गई है, जैसे साँस लेना. न हम साँस लेना याद रखते हैं, न भूलते हैं. कुछ ऐसा ही चाय को लेकर है. हँसी-मजाक के दौर में हम अक्सर सबसे यही कहते हैं कि यदि किसी को अपनी कोई समस्या सुलझानी हो, कोई रुका काम करवाना हो तो हमारा नाम लेकर, दो कप चाय चढ़ा दिया करे, जब हम मिलें तो हमें पिला दिया करे. ऐसा करने से सारे बिगड़े काम बन जाते हैं.
बहरहाल, चाय दिवस के बारे में जैसे ही जानकारी हुई तो
बहुत सी बातें याद आने लगीं. चाय से जुड़ी बहुत सी कहानियाँ हमारे साथ जुड़ी हुई
हैं. इसके पीछे का कारण यह है कि हमारे सभी परिचितों को हमारा चाय शौक बहुत अच्छे
से पता है. हमारा एक दोस्त तो आज भी कहता है कि कभी यदि गलती से ज्यादा चाय बन
जाये तो परेशान न हो, बस कुमारेन्द्र को बुला लो. ये चाय का
बल्क कंज्यूमर है. ऐसा सच भी है. कॉलेज टाइम में अक्सर चाय को लेकर शर्त जैसी
अघोषित स्थिति बनी रहती थी. एक-एक बैठकी में दस-बीस गिलास चाय ऐसे गटक ली जाती थी
जैसे हवा गटक रहे हों. गरम चाय पीने की आदत शुरू से ही थी मगर इस आदत में वृद्धि
हॉस्टल में रहने के दौरान हो गई. उन दिनों बहुत सीमित जेबखर्च मिला करता था. चाय
की तलब घनघोर रहती थी. उस पर विपदा ये कि कभी अकेले चाय पीना होता नहीं था. दो-चार
यार-दोस्त संग रहते ही थे. तब आर्थिक समस्या से निपटने के दौर में एक रास्ता खोजने
की कोशिश की जाती कि जो सबसे अंत में चाय पिएगा, वही भुगतान करेगा. ऐसे में जल्दी-जल्दी चाय पीने की आदत भी बन गई. हालाँकि
इस नियम का कोई गज़ट पास तो हुआ नहीं था कि ऐसा होना ही होना है, बस तफरी के लिए, हाहा-हीही के लिए यह भी मौज होती रहती थी.
चाय का ही कमाल
कहा जायेगा कि उसने हॉस्टल में हमें बड़े भाई जैसे रिश्ते से भी परिचित करवाया.
पहली साल थी हॉस्टल में. अभी कुछ महीने ही हुए थे हमको. चूँकि चाय के जबरदस्त
शौक़ीन होने के कारण हम हॉस्टल में अपने कमरे में चाय का पूरा इंतजाम किये रहते थे.
उन्हीं दिनों हमसे एक साल आगे अक्षय भाईसाहब का हॉस्टल में आना हुआ. वे भी खूब चाय
पिया करते थे. चाय की महक उड़ती हुई ऊपर की विंग से नीचे की विंग तक पहुँची. अपने
साथ-साथ हम भाईसाहब के लिए भी चाय बनाने लगे. उस चाय से बना बड़े-छोटे भाई का
रिश्ता आज भी उसी जिन्दादिली से चल रहा है. भाईसाहब के साथ-साथ फिर तो चाय की
चुस्कियों में और भी लोग शामिल होते चले गए.
समय के साथ
यार-दोस्त अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त होते चले गए, हम भी अपनी दुनिया में खोते चले गए. इसी सब में चाय तो पी जाती रही मगर
चाय की महफ़िलें ख़त्म हो गईं. हॉस्टल टाइम में कभी लल्ला, जगदीश के यहाँ की चाय की घंटों के हिसाब से लगती महफ़िलें, कभी देर रात सखा-विलास के ढाबों पर चाय की
चुस्की बीच कहानियों का जन्म, कभी रेलवे स्टेशन
की चाय के साथ बनते-बिगड़ते सपने आदि-आदि पीछे छूट गए. चाय का स्वाद तभी है जब
यारों की महफ़िल हो, ठहाके हों, गप्पबाजी हो. चाय स्वाद भी तभी देती है जबकि हाथ में चाय का प्याला हो, गिलास हो और उसकी चुस्की के साथ कोई न कोई कहानी
हो. चाय की वही पुरानी महफ़िल फिर गुलज़ार करने की कोशिश है.
अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस भी होता है यह तो हमें भी पता नहीं था। मैं भी चाय की चूजी हूँ। चाय कमजोरी है अपनी। आपने तो बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुत कर चाय का जायका ही दुगुना कर दिया है
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