टोक्यो ओलम्पिक आरम्भ हो चुके हैं. भारत की झोली
में पहला पदक आ भी गया है. ओलम्पिक के शुरू होते ही सोशल मीडिया पर, ओलम्पिक के दीवानों के दिल-दिमाग में सिर्फ और सिर्फ ओलम्पिक खेल ही छाये
हुए हैं. इस दीवानगी में उस समय और वृद्धि हो जाया करती है जबकि अपने तिरंगे को
लहराते हुये देखते हैं. जब भी मीडिया में, सोशल मीडिया में
किसी खिलाड़ी को तिरंगे के साथ देखते हैं तो अपने आपमें ही गर्व का एहसास होने लगता
है. इस सुखद एहसास के साथ दिल-दिमाग में ओलम्पिक खेलने का जोश, उसका उत्साह भी उमड़ने-घुमड़ने लगता है. जो लोग खेलों के दीवाने हैं, शौक़ीन हैं, खिलाड़ी हैं वे निश्चित ही कल्पना-लोक
में अपने आपको ओलम्पिक खेलों के बीच खड़ा पाते होंगे.
अब पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या नहीं मगर
हमारे साथ बहुत जबरदस्त तरीके से होता है. खेलों का आयोजन अपने आपमें रोमांच भरता
है और उस पर भी यदि बात ओलम्पिक की हो तो कहने ही क्या. हालाँकि एशियाई खेलों को
लेकर भी एक अलग तरह का उत्साह रहता है मगर जिस तरह का जोश ओलम्पिक के आयोजन के समय
खुद में नजर आने लगता है, उसकी बात ही निराली है. ओलम्पिक
खेल, ओलम्पिक के पाँच गोलों का प्रतीक चिन्ह और उस पर तिरंगा
ध्वज का लहराना रोम-रोम में जोश, ऊर्जा का संचार कर देता है.
घर पर स्क्रीन के सामने बैठने के बाद भी यही लगता है जैसे उस सम्बंधित प्रतियोगिता
में हम स्वयं भाग ले रहे हैं.
इस सुखद एहसास के पीछे का एक कारण हमारा खुद में
खिलाड़ी होना भी है. कॉलेज में खेल-खेल में ही एथलेटिक्स में उतर आये थे, जिसके चलते पाँच हजार मीटर और दस हजार मीटर दौड़ के साथ-साथ भाला फेंक में
भी सहभागिता होने लगी. स्नातक के अंतिम वर्ष में एथलेटिक्स टीम के कप्तान का
दायित्व हमें सौंपा गया. जिस समय हमें इस दायित्व से अवगत कराया गया उस समय इसमें
हमें कुछ विशेष समझ नहीं आया मगर जिस दिन कॉलेज में एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं का
आरम्भ हुआ उस दिन गर्व की अनुभूति हुई. प्रतियोगिताओं के आरम्भ होने के पहले एथलेटिक्स
की विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लेने वाले पचास के करीब खिलाड़ियों को खेल भावना का
निर्वहन करने सम्बन्धी शपथ का दिलवाया जाना आज भी रोमांच से भर देता है. इस रोमांच
का कारण एक तरफ इतनी बड़ी टीम का कप्तान होना तो था ही उससे ज्यादा रोमांच था
तिरंगे की छाँव में खड़े होकर शपथ दिलवाना.
ये और बात है कि खेलों की तरफ कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया, उसी क्षेत्र में कैरियर बनाने जैसा कुछ विचार नहीं किया. आज भले ही हम किसी खेल में देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं मगर स्क्रीन पर खेलते खिलाड़ी को देखकर खुद के खेलने का एहसास होता है, तिरंगे के साथ जोश-ऊर्जा में दिखाई देते खिलाड़ियों में अपने होने का एहसास होता है. ये एहसास तिरंगे का है, ये एहसास खेल का है, ये एहसास खेल भावना का है.
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खेल में मेरी विशेष रुचि नहीं है क्योंकि मिडिल स्कूल के बाद कभी खेल में हिस्सा नहीं ली। खेल जब अपने अंतिम मुक़ाम पर होता है तब देखना थोड़ा अच्छा लगता है; चाहे जीत जिसकी भी हो। ओलम्पिक में भारत की जीत से गौरवान्वित महसूस की। कहीं भी जब तिरंगा लहराता है तो अपने आप उससे जुड़ाव महसूस होता है। आपकी खेल भावना बनी रहे, शुभकामनाएँ।
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