मोबाइल को किसी भी सदी का सबसे बड़ा अविष्कार
माना जाना चाहिए. मोबाइल ने ही एक साधे, सब सधे की अवधारणा को पूरा किया है. बातचीत के लिए बनाये गए इस यंत्र ने अपने
तंत्र में इतना कुछ समेट लिया है कि कई बार तो समझ ही नहीं आता है कि इसका उपयोग
किसके लिए प्रमुखता से किया जाता है? खुद मोबाइल कम्पनियाँ
भी अब बातचीत को प्राथमिकता में रखने के बजाय कैमरे को प्राथमिकता में रख रही हैं.
पहले ऐसा नहीं था क्योंकि तब मोबाइल का नशा न था. मोबाइल से फोटो निकालने का फैशन
न था. जरा-जरा सी बात पर सेल्फी लेने का चलन न था.
एक दिन अचानक से बाजार की धरती पर सेल्फी का
अवतरण हुआ. सेल्फी ने एकदम से मोबाइलयुक्त व्यक्तियों का चाल-चलन ही बदल दिया. अब
किसी का सेल्फी-प्रेम किसी से भी छिपा नहीं रहा. अब हालत ये है कि किसी सभा में जा
रहे हो तो पहले सेल्फी डाल दो. किसी पर्यटन स्थल पर घूमने गए हो तो सेल्फी डाल दो.
बस में, ट्रेन में, हवाई जहाज में,
साइकिल में, पैदल कहीं भी किसी रूप में हो
पहले सेल्फी डाल दो फिर आगे बढ़ो. सेल्फी प्रेम सर्वोपरि हो, बस
ये ध्यान रखा जाये. अब लोग अपनी गतिविधियों की फोटो आसानी से ले तो लेते हैं.
इस सेल्फी के नशे ने बहुतों के दिमाग को विक्षिप्त सा कर दिया. मोबाइल हाथ में हो तो कई बार ऐसे दिमागी असंतुलन वाले भूल जाते हैं कि कहाँ सेल्फी लेनी है कहाँ नहीं. लोग भूल जाते हैं कि शोक सभाओं में, श्रद्धांजलि कार्यक्रमों में सेल्फी प्रेम प्रदर्शन अशालीन माना जाता है पर उन्हें कहाँ इसका भान. लोग तो सेल्फी लेने का मौका ताकते रहते हैं. मोबाइल के आने ने क्रांति की नई परिभाषा लिखी, यह तो समझ आया मगर उसके साथ आये कैमरे और उस कैमरे से पैदा सेल्फी नामक नशा संवेदनहीनता, बेशरमाई, अशालीनता भी लिख देगा, सोचा नहीं था.
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