समय जिस तेजी से निकल रहा है उसे देखकर भविष्य की योजनायें बनाने से बेहतर है कि वर्तमान को इस तरह से सुसज्जित किया जाये कि भविष्य स्वतः ही बेहतर बन जाए. इस वर्ष के पहले तक लोगों में आपाधापी देखने को मिलती थी, भौतिक वस्तुओं के प्रति एक तरह की तृष्णा दिखाई पड़ती थी, संसाधनों के प्रति अजीब सा मोह देखने को मिलता था. इसी सबके बीच अचानक से कोरोना बीमारी ने आकर कुछ महीनों के लिए सबकुछ रोक सा दिया. न केवल नागरिक, न केवल बाजार बल्कि वे सार्वजनिक प्रतिष्ठान, वे संस्थाएँ, वे सेवाएँ जो किसी भी व्यक्ति ने कभी बंद नहीं देखीं थीं वे भी महीनों के हिसाब से बंद रहीं. इस बंदी के बीच जब लोगों को अपने परिजनों के बीच रहने का अवसर मिला और उनको भी जिन्हें परिजनों से दूर रहने का कष्ट समझ आया, सभी ने परिवार की, रिश्तों की, संबंधों की अहमियत को समझा. यहाँ एक बात, वे सभी लोग भले ही इसे गंभीरता से न ले रहे हों मगर उन्होंने इसकी गंभीरता को समझने की कोशिश अवश्य की.
ऐसी स्थिति देखने के बाद लगा कि शायद जब देश, यहाँ के नागरिक कोरोना के संकट से वापस आयेंगे तो शायद उस ज़िन्दगी को ज्यादा पसंद करेंगे जहाँ भौतिक संसाधन से ज्यादा मानवीयता पर जोर दिया जाये. शायद ऐसे लोग दिखावे की दुनिया से बाहर निकल कर अपनत्व की दुनिया को बसाने-सजाने का प्रयास करेंगे. यह लग रहा था कि लोग आपसी विद्वेष को भुलाते हुए आपसी समन्वय बनाये रखने की कोशिश करेंगे. अब जबकि अनलॉक हुए भी कई माह बीत गए हैं, लगता है कि कोरोनाकाल के समय हुए लॉकडाउन में इस तरह की समझ को विकसित करना या फिर ऐसी समझ विकसित होने का दिखावा करना इन्सान की मजबूरी थी. वह अभी भी इस समय से कुछ सीख नहीं सका है. आज जैसे ही उसे घर से बाहर आने का अवसर मिला, जैसे ही उसे लॉकडाउन के प्रतिबंधों से मुक्त होने का अवसर मिला उसने वही रंग दिखाने शुरू कर दिए जो कोरोनाकाल के पूर्व थे.
इससे तो यही लगता है कि इन्सान वर्तमान को देखते हुए भी सुधरने के, सुधार करने के मूड में नहीं है. वह आने वाले कल के लिए इस कदर परेशान है कि अपने आज को खराब कर रहा है. देखा जाये तो कोरोनाकाल का लॉकडाउन का समय ऐसा था जबकि इन्सान बहुत कुछ सीख सकता था. उसे समझ जाना चाहिए था कि भौतिक संसाधनों का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि भावनात्मक संबंधों का. लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद कोई टीवी, कार, लैपटॉप, मोबाइल, एसी, फ्रिज आदि लेने के लिए नहीं दौड़ा था बल्कि खाद्य-सामग्री जुटाने में निकल पड़ा था. उसने प्रशासन से पास बनवाने के लिए जद्दोजहद की तो अपने लोगों को घर वापस लाने के लिए न कि भौतिक संसाधन जुटाने के लिए. यदि इसके बाद भी इन्सान समझना नहीं चाहता है तो वह नितांत मूर्ख है और स्वयं ही उस रास्ते की तरफ बढ़ रहा है जहाँ का अंत विनाश है, एकाकीपन है.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (20-12-2020) को "जीवन का अनमोल उपहार" (चर्चा अंक- 3921) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
20/12/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
कुछ नहीं बदला जो जैसा है वैसा ही रहा..
जवाब देंहटाएंहम कुछ और ज्यादा भयावह देखने योग्य हो गए हैं...
प्रभावशाली सामयिक आलेख - - आत्म मंथन की ओर ले जाता सा। सुन्दर सृजन।
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