अकसर कहने-सुनने में आता है कि अँधेरे में परछाई भी साथ छोड़ देती है। इसका सीधा सा अर्थ इस बात से लगाया जाता है कि लोग मुश्किल समय में, किसी कठिनाई में साथ छोड़ देते हैं। ऐसा सत्य भी है मगर यही अंतिम सत्य नहीं है। कठिनाई में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो लोगों की ताकत बनकर उनके साथ हमेशा खड़े रहते हैं। जहाँ तक परछाई का अँधेरे में साथ छोड़ने का अर्थ है या किसी व्यक्ति का मुश्किल में साथ न देने का विषय है तो उस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। समझना चाहिए कि क्या किसी व्यक्ति की परछाई उसका अपना निर्माण है या परिस्थिति का निर्माण है? यह भी समझने की बात है कि कोई भी परछाई कब उसके साथ रहती है? परछाई अँधेरे में साथ छोड़ देती है या रोशनी में ही बनती है, ये दो बिन्दु मनन करने योग्य हैं।
किसी भी व्यक्ति को समझना चाहिए कि उसके साथ परछाई की अवधारणा कभी किसी स्थिति में नहीं रही है। परछाई की अवधारणा को स्वीकारने का अर्थ ही है कि अपनी ही ऐसी छवि को स्वीकारना जो परिस्थिति के चलते उत्पन्न होती है। जो परिस्थितिजन्य है उसके उसी अनुरूप साथ रहने, साथ छोड़ देने की मानसिकता बन जाती है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी जीव, जन्तु, वस्तु की परछाई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखती है। वह अपनी मूल की नकल मात्र होती है जो रोशनी का साथ पाकर पैदा होती है। मूल की नकल होने के कारण उसकी किसी भी तरह की स्वतन्त्र गतिविधि भी नहीं होती है। उसकी समस्त क्रियाविधि, सभी क्रियाकलाप मूल की नकल मात्र होते हैं। ऐसे में कल्पना कैसे कर ली जाती है कि परछाई सदैव साथ देगी।
यहाँ हर किसी को परछाई की नहीं मित्र की, सहयोगी की, हमसफर की, हमराज की अवधारणा को पुष्ट करना चाहिए। जो परछाई बनकर साथ आएगा, वो परिस्थिति के अनुकूल ही अपना व्यवहार करेगा। इसके उलट जो हमारा मित्र, सहयोगी होगा वो हमारा अपना ही एक रूप होता है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे मित्र, सहयोगी परिस्थिति से नहीं बल्कि स्वतः, स्वस्फूर्त प्रेरणा से साथ रहते हैं। ऐसे लोग परछाई नहीं बल्कि हमारा ही रूप होते हैं जो हमारी भावनाओं को, संवेदनाओं को समझते हैं। इनके लिए रोशनी का, अँधेरे का कोई अलग अर्थ नहीं होता है। यही लोग हैं जो न सुख देखकर साथ आते हैं न दुख देखकर साथ छोड़ जाते हैं।
स्पष्ट है कि हमें परछाई बनाने, बनने से बचना चाहिए। इसके उलट यदि हम प्रतिरूप बनते, बनाते हैं, छवि बनते, बनाते हैं तो कष्ट, समस्या, परेशानी, दुख में कोई हमें छोड़ कर जाएगा और न ही ऐसी स्थिति में हम किसी को छोड़ सकेंगे।
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वंदेमातरम्
ज़िंदगी के सबक यूँ नहीं सीखे जा सकते । एक एक बारीकी से सीखना पड़ता है । आपने बहुत ही ख़ूबसूरती से बयां कर दिया सब कुछ । शानदार पोस्ट । परछाई से वास्तविकता तक , यही जीवन सार है ।।
जवाब देंहटाएंपरिस्थिति के अनुसार जीवन का मापदंड बनता बदलता है। साया तो सदैव साथ रहता है बस अँधेरे उजाले का फ़र्क़ है। हमारे संबंध भी ऐसे ही हैं; कभी साथ कभी दूर। बस सकारात्मकता बनी रहनी चाहिए। चिन्तन मनन हेतु उत्तम आलेख।
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