उस दौर में जबकि जीवनशैली एकदम सामान्य थी, न बहुत तामझाम, न बहुत चमक-धमक, न बहुत शोर-शराबा, उस समय कोई भी नई चीज अजूबा सी दिखाई पड़ती थी. आप लोगों से इस बारे में एक बार कायनेटिक होंडा स्कूटर के बारे में अपना मजेदार अनुभव शेयर कर ही चुके हैं. उस समय बचपना भी था जो आज के बच्चों की तरह नहीं था. उन दिनों के लोग, समाज, आसपास का परिवेश भी एकदम पारिवारिक हुआ करता था. खैर, बात इसकी नहीं, यहाँ आज बात एक अजूबे से पेन की. जी हाँ, पेन मगर फाउंटेन पेन नहीं बल्कि एक बॉल पेन की.
उन दिनों फाउंटेन पेन से ही लिखना हो रहा था. यदि बॉल पेन मिलता था तो एक शार्प का बॉल पेन आया करता था, पूरी बॉडी पारदर्शी होती थी और उस पर नीले रंग का ढक्कन लगा हुआ करता था. इसके अलावा एक और बॉल पेन का उपयोग हमें करने की याद है जो रंगीन (कोई एक रंग का) बॉडी का हुआ करता था. एक पेन कभी-कभी चाचा या पिताजी का, घर में उपयोग कर लेते थे, शायद Jotter पेन था. यह पेन ऊपर से क्लिक करके खुलता और बंद होता था. इनके अलावा बाजार में और भी अच्छे बॉल पेन हुआ करते थे मगर उन दिनों इतना जेबखर्च भी नहीं मिलता था कि हम खुद कोई पेन खरीद सकें. इसके लिए घर पर निर्भरता बनी हुई थी. ऐसे में बॉल पेन की माँग होने पर इन्हीं दो पेन की सहायता से आपूर्ति की जाती थी.
शायद कक्षा छह में होंगे, एक दिन हमारे मित्र अभिनव ने एक बॉल पेन दिखाया जो अभी तक हमारे द्वारा उपयोग किये गए पेन से एकदम अलग. खिलते हुए रंग में (था ये भी एक ही रंग का) बॉल पेन मगर उसमें कोई ढक्कन नहीं, न खींच कर खोलने के लिए, न चूड़ीदार. इसके ऊपर आमतौर पर देखी जाने वाली क्लिक बटन भी नहीं थी, जिसे चटर-पटर करके रिफिल निकाली जा सके, लिखा जा सके. इसमें ऊपर एक बटन जिसे दबाने से वह वहीं बने छेद में फँस जाती और रिफिल निकल आती. बाद में उसी को दबाने से रिफिल अन्दर चली जाती अर्थात पेन बंद हो जाता. यह बहुत अजूबा सा नहीं लगा. अजूबा इसमें रिफिल डालने-निकालने वाला सिस्टम लगा.
इस पेन में कहीं से भी ऐसी जगह नहीं दिख रही थी जिसे खोलकर उसमें से रिफिल निकाली जा सके, रिफिल डाली जा सके. यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी. अभिनव ने कहा कि ये बताओ कि इसमें रिफिल कहाँ से डलेगी? पेन के मामले में हम बचपन से ही नशेबाज जैसी स्थिति में रहे हैं. उससे कहा कि बस पाँच मिनट को पेन हमारे हवाले करो, अभी इसकी पूरी साइंस तुम्हारे सामने रखते हैं. ये तो मालूम था कि रिफिल इसमें डली है तो कहीं का कहीं से डाली ही गई होगी. उस समय तक हमारा सामना यूज़ एंड थ्रो पेन से नहीं पड़ा था, इसलिए ये समझते थे कि पेन फेंका नहीं जायेगा.
उस अजूबा से पेन को हमने अपने हाथ में लिया. दो-चार बार इधर-उधर पलता. दो-चार बार उसकी क्लिक बटन को दबाया. इसी में समझ आ गया कि इसमें रिफिल कहाँ से डाली जाएगी. बस एक झटके में उस क्लिक बटन के उस हिस्से को जो छेद में फँसता था, अँगूठे से दबाकर ऊपर खींच दिया. क्लिक बटन बाहर और उसी से रिफिल डालने की जगह बन गई. शायद कम्फर्ट कंपनी का बॉल पेन था वह. उस पेन के बाद उसके बहुत से पेन उसी तरह के निकले, खूब सारे पेन धीरे-धीरे करके इकट्ठे भी कर लिए गए जो समय के साथ काल-कलवित हो गए. एक बॉल पेन बचा रह गया जो बॉल पेन, फाउंटेन पेन की सफाई के दौरान मिला. उसे देखकर वे दिन फिर याद आ गए.
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जवाब देंहटाएंक़लम के हर प्रकार का उपयोग हम कर चुके हैं। सबसे पसंद वाला था ऊपर से क्लिक करते और लीड नीचे आ जाता। न इंक फैलने का डर न अचानक ख़त्म होने का डर। कॉलेज में नोट्स बनाने में सबसे उपयोगी होता था एक ही क़लम में चार रंग का रिफिल। अतीत को याद दिलाती पोस्ट, बड़ा अच्छा पढ़कर।
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