30 जून 2020

उच्च शिक्षा की बीमार हालत में ऑनलाइन शिक्षण की कवायद

चीनी वायरस कोरोना के चलते मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया. इसके ठीक पहले सभी तरह की शैक्षणिक संस्थाओं को बंद करवा दिया गया था. शैक्षणिक संस्थान अभी भी बंद हैं और आज दिए गए दिशा निर्देशों के अनुसार यह बंदी 31 जुलाई तक रहेगी. यह व्यवस्था आरम्भ से ही इसलिए की गई थी जिससे कि बच्चों को कोरोना संक्रमण से बचाया जा सके. सरकारों द्वारा जिस समय से शैक्षणिक संस्थाओं के बंद किये जाने के निर्देश दिए गए थे, उसी समय से क्षेत्रीय स्तर पर, स्थानीय स्तर पर ऑनलाइन कार्य करने का माहौल बनाया जाने लगा था. इसके लिए उच्च शिक्षा से सम्बंधित संस्थानों को भी दवाब में लेने का प्रयास किया गया. यह सही है कि कोरोना काल में सभी को सरकार की सहायता के लिए आगे आना चाहिए मगर इसके लिए भी स्वैच्छिक स्थिति रहती हो ज्यादा सही रहता.


उच्च शिक्षा संस्थाओं में जिस समय लॉकडाउन का पहला चरण आरम्भ हुआ उस समय विश्वविद्यालयीन परीक्षाओं का सञ्चालन हो रहा था. उस समय वैसे भी महाविद्यालयों में किसी तरह का कोई कार्य नहीं होता है. मार्च और अप्रैल परीक्षाओं में गुजर जाता है. इसके बाद मूल्यांकन का दौर आरम्भ होता है. यह भी एक अकेले विश्वविद्यालय में संपन्न नहीं होता है और न ही एक विश्वविद्यालय के सभी प्राध्यापकों के द्वारा संपन्न होता है. इसमें भी अनेक संस्थाओं के प्राध्यापकों द्वारा कार्य किया जाता है. इस प्रक्रिया के चलने, परिणाम घोषित करने के चरणों के दौर में ही ग्रीष्मकालीन अवकाश आरम्भ हो जाता है, जो 30 जून तक रहता है. यदि इस पूरी व्यवस्था पर दृष्टि डाली जाये तो इन दो-तीन माहों में किसी भी तरह का अध्यापन कार्य संपन्न नहीं होता है. हाँ, शिक्षण कार्य उन संस्थानों में संपन्न होता रहता है जहाँ सेमेस्टर सिस्टम है अथवा बीएड, एमएड जैसे पाठ्यक्रमों की पढ़ाई हो रही है. इनके अलावा किसी अन्य तरह की संस्थाओं पर ऑनलाइन अध्यापन का अनावश्यक दवाब बनाया जाना कहाँ तक सही है, समझ से परे है.


अब जबकि जुलाई में सभी तरह के शैक्षणिक संस्थाओं के बंद रखने के आदेश भी आ गए हैं, इसके बाद भी स्थानीय अथवा क्षेत्रीय स्तर पर ऑनलाइन शिक्षण की बात की जा रही है. चलिए, एकबारगी इस व्यवस्था के साथ खड़े होने की कोशिश भी की जाये तो यहाँ क्षेत्रीय स्तर की समस्याओं को समझना भी आवश्यक होता है. बहुत से विद्यार्थी पिछड़े क्षेत्रों से आते हैं, जहाँ आज भी इंटरनेट की सुविधा सही से नहीं पहुंची है. इसके अलावा तमाम महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या ऑफलाइन आने को ही तैयार नहीं दिखती है, वहाँ ऑनलाइन पढ़ाई एक स्वप्न ही समझ आता है.

उक्त के अतिरिक्त यदि व्यावहारिक समस्या की तरफ ध्यान दिया जाये तो सरकारें बताये, प्रशासन बताये, स्थानीय अथवा क्षेत्रीय अधिकारी इस पर अपनी राय व्यक्त करें कि आखिर क्या महाविद्यालय के शिक्षक को ऑनलाइन अध्यापन के लिए किसी तरह का मंच उपलब्ध है? क्या शैक्षणिक संस्थाओं में अथवा सरकार की तरफ से विभागवार किसी तरह की इंटरनेट सुविधा, कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है? ऐसा न होने की स्थिति में किसी प्राध्यापक द्वारा ऑनलाइन शिक्षण के लिए किस मंच का उपयोग किया जायेगा? किस तरह से वह ऑनलाइन सामग्री को प्रसारित करेगा?

इस सम्बन्ध में एक विशेष तथ्य की तरफ सबको ध्यान देना होगा कि निजी क्षेत्रों के महाविद्यालयों पर सरकार को इतना अधिक अविश्वास है कि उनमें से ज्यादातर में से कई वर्षों से परीक्षा केन्द्र नहीं बनाये जा रहे हैं. इन्हीं की तरफ से आती तमाम शिकायतों के बाद ही सभी संस्थानों में कैमरों की निगाह में परीक्षाओं का सञ्चालन किया जा रहा है. सरकारों ने, शिक्षा सम्बन्धी प्रशासन ने कभी विचार किया है कि इन संस्थानों में ऑनलाइन शिक्षण कार्य का सञ्चालन किस तरह होगा? उसके लिए सरकार के पास कोई ठोस कार्य-प्रणाली है? 

कोरोना संकट इसी वर्ष उत्पन्न हुआ है मगर सरकारों द्वारा उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के लिए जो काम किये जाते रहे हैं वे कागजी ज्यादा रहे हैं. उच्च शिक्षा संस्थानों में सुधार के प्रयास भी हवाहवाई रहे हैं. नैक मूल्यांकन, एपीआई जैसी जैसी व्यवस्था लागू करने के बाद भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं किया जा सका है. अनावश्यक रूप से शोध-कार्यों का दवाब, यूजीसी में पंजीकृत शोध-पत्रिकाओं में शोध-पत्र प्रकाशन के जबरिया दवाब ने शोध कार्य को, प्रकाशन को भी व्यापार बना डाला है. केन्द्र सरकार द्वारा और न ही प्रदेश सरकारों द्वारा इस तरफ किसी भी तरह का ठोस, सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया है. अब दो-चार भ्रष्ट शिक्षकों के कारण सम्पूर्ण प्रदेश के शिक्षकों के कागजातों के मूल्यांकन करने की कवायद भी इसी कोरोना काल में करवाई जानी है. सीधे-सीधे दिखाई पड़ता है कि सरकारों द्वारा, शैक्षिक प्रशासन द्वारा कहीं भी सकारात्मक रूप से काम करने की प्रवृत्ति दिखाई नहीं पड़ती है. सभी जगहों पर महज कागजी खानापूर्ति और उसके नाम पर धन-उगाही का खेल खेला जाने लगता है. कुछ इसी तरह का काम मानदेय प्रवक्ताओं के विनियमितीकरण को लेकर वर्षों तक खेला जाता रहा.

किसी भी प्राध्यापक को शिक्षण कार्य से समस्या नहीं है. आखिर उसकी नियुक्ति अध्यापन के लिए ही हुई है. इसके सापेक्ष यह सोचना कि सरकार उसे बैठे-बैठे का वेतन दे रही है गलत होगा. सरकार पहले उस मंच को, आधार को मजबूत बनाये जिसके द्वारा ऑनलाइन शिक्षण कार्य करना है, पहले उस व्यवस्था को सुरक्षित बनाये जिसके द्वारा एक अध्यापक को अपना डाटा ऑनलाइन अपलोड करना है. आज के तकनीक भरे इस दौर में भी तमाम सारे मंच डाटा चोरी के मामले में संदिग्ध बने हुए हैं. ऐसे में किसी प्राध्यापक की मेहनत से तैयार की गई शिक्षण सामग्री चोरी होती है, वह कल के दिन किसी दूसरे के नाम से प्रकाशित नजर आती है तो इसके लिए जिम्मेवार कौन होगा? इस समूची प्रक्रिया में लगने वाले उपकरण का, इंटरनेट व्यय का भार किसके द्वारा उठाया जायेगा? समूची व्यवस्था के नियमित रहने की जिम्मेवारी किसकी होगी? सरकार, प्रशासन इस बारे में विचार करे उसके बाद ही कोई कदम उठाने सम्बन्धी आदेश, निर्देश निर्गत करे.

.
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

6 टिप्‍पणियां:

  1. बदलते परिवेश में बदलना तो होगा ... कैसे बदलाव आएँ, कैसे सार्थक होंगे ये सोचना ज़रूरी है सरकार के लिए ... अच्छा आलेख ...

    जवाब देंहटाएं
  2. शिक्ष व्यवस्था तो हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही है।

    जवाब देंहटाएं
  3. शिक्षा के स्वरूप में जो बदलाव आया है उसके लिए शिक्षकों को तैयार ही नहीं किया गया। विशेषकर सरकारी स्कूल और सामान्य विषयों के कॉलेज के शिक्षक। कोरोनाकाल में पढ़ाई में कुछ महीने का व्यवधान आ गया फिर भी ऑनलाइन पढ़ाई को रोक देनी चाहिए। अब जब लॉकडाउन ख़त्म हो रहा है तो तमाम शिक्षकों को एक महीने की ट्रेनिंग सरकारी ख़र्च पर करवानी चाहिए ताकि ऑनलाइन पढ़ाई का सिलसिला सामान्य दिनों में भी चलता रहे।

    जवाब देंहटाएं