आज
मोदी जी को मन की बात में सुना. उनकी तमाम
बातों के बीच घर में रहते हुए अपने बचपन में जाने की बात सुनी. उन्हीं बातों में
उनका एक विचार भी सामने आया कि अपने घर के बड़े-बुजुर्गों की बातों को मोबाइल में
रिकॉर्ड करें. उनके समय की बातों को, उनके बचपन की बातों को उनसे पूछें, उसे
रिकॉर्ड करें. इस सम्बन्ध में उनका कहना था कि ये रिकॉर्डिंग पारिवारिक धरोहर
बनेगी. सुन कर उनके इस विचार पर स्वागत करने का मन किया मगर साथ ही बहुत हँसी आई. आज
के दौर में जबकि बहुतायत परिवार बुजुर्गों को ही धरोहर नहीं मानते हैं तब उनकी
आवाज़ को, उनके संस्मरणों को कैसे धरोहर मान कर सँभालेगा, ये विचारणीय है.
आज
के दौर में बुजुर्ग लोग बच्चों को बिगाड़ने वाले समझ आने लगे हैं. कहाँ आज के
बच्चे, जो दिन भर 4G की बातें करते हैं, तकनीकी में खेलते
हैं, मोबाइल और लैपटॉप उनके साथी हैं और कहाँ इस दौर के बुजुर्ग जिनके पास तकनीकी
के नाम पर बस रेडियो या फिर टीवी है. उनके पास खेलने के लिए गुट्टे, झूले, दौड़भाग
और खेत-खलिहान हैं, थ्रिल के लिए परियों की वे कहानियाँ हैं जिन पर आज कोई विश्वास
नहीं करता है. आज की पीढ़ी के लिए ये भी कोई अनुभव है कि उनके बाबा-दादी को पढ़ने के
लिए कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. आज की पीढ़ी के लिए ये निपट झूठ है कि महज
कुछ सैकड़ा रुपए में पूरा परिवार अपना जीवन-यापन कर लेता था. इस पीढ़ी की समझ से परे
है कि जितने रुपये में आज एक पिज्जा नहीं आता है, कुछ चटपटा खाने को नहीं मिलता है
उतने पैसों में पूरा घर चल जाता था.
असल
में आज के एकल परिवार, नाभिकीय परिवार में बुजुर्गों के प्रति अनादर ही बढ़ा है.
परिवार की संकल्पना में पति-पत्नी के साथ एक या दो बच्चे शामिल हैं. किसी तरह के
अन्य रिश्तों का तारतम्य उस स्थिति में बनता है जबकि वहाँ से किसी तरह का लाभ हो
अन्यथा की स्थिति में ऐसा संभव नहीं होता. आधुनिकता की दौड़ में जबसे परिवारों की
स्थिति में बदलाव हुआ है उसके बाद से परिवार में पत्नी के परिजनों का, उसके पक्ष
का प्रभाव ज्यादा हुआ है. इसके पीछे भी बहुत बड़ा सामाजिक परिदृश्य है. इसे महज इस
आलेख के सन्दर्भ में निर्धारित न किया जाये बल्कि अपने आसपास के माहौल के द्वारा
इसे सुनिश्चित करने का कार्य करें.
यह
एक सामान्य सी स्थिति देखने को मिलती है कि किसी भी परिवार को अपना दामाद बहुत
पसंद आता है क्योंकि वह उस परिवार की बेटी को उसी समय लेकर उपस्थित हो जाता है
जैसे ही उसे बुलाया जाता है. इसी के सन्दर्भ में उसी परिवार का बेटा नाकारा हो
जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी के बुलाये जाने पर उसे तत्काल उसके मायके ले जाता
है. यदि किसी दूसरे परिवार का बेटा लायक है तो आपका बेटा नालायक कैसे? इस तरह के
बहुत से उदाहरण हैं जो धीरे-धीरे परिवार में स्थापित होते जा रहे हैं. इनसे
परिवारों की संकल्पना पर प्रहार हुआ है. इसे पढ़ने की नहीं वरन खुद देखने-समझने की
आवश्यकता है.
आज
के इस कोरोना काल में खुद को विचार करना होगा कि हम अपने परिवार के किन बुजुर्गों
का ध्यान रख रहे हैं? हमें इसका भी स्मरण करना होगा कि हमारे लिए किन बुजुर्गों की
बातों की अहमियत है? हमें इस पर भी विचार करना होगा कि इस दौर में हम अपने बच्चों
को अपने परिवार के किन बुजुर्गों से मिलवा रहे हैं, कितनी देर को मिलवा रहे हैं?
मन की बात में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए कहना आसान होगा मगर उनकी बातों
को व्यावहारिक रूप में अमल में लाना बहुत मुश्किल काम है. आज परिवारों की संकल्पना
में बदलाव हुआ है, उसकी मान्यता में बदलाव हुआ है, उसकी अवधारणा में परिवर्तन हुआ
है. ऐसे में बुजुर्गों के प्रति नई पीढ़ी की सोच बदली न होगी, ऐसा सीचना कपोल
कल्पना ही है.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
सही आंकलन है परिस्थिति का ... सोच में बहुत बदलाव आया है आज के युवा का ... परिवार एक इकाई नहीं है आज ... इकाई बस ख़ुद की रह गई है ...
जवाब देंहटाएंकुछ नहीं बदला है 21वीं सदी में।
जवाब देंहटाएंबुजुर्गों की उपेक्षा बद से बदतर होती जा रही है।
आज के दौर में जबकि बहुतायत परिवार बुजुर्गों को ही धरोहर नहीं मानते हैं तब उनकी आवाज़ को, उनके संस्मरणों को कैसे धरोहर मान कर सँभालेगा, ये विचारणीय है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा ,पते की बात है, बहुत बढिया
अगर बुजुर्ग किसी न किसी रूप से विख्यात है तो संतान ज़रूर मान देती है और उनके गुज़रने के बाद तो और भी ज़्यादा। सामान्य बुजुर्ग को अधिकांशत: संतान मान नहीं देती है, भले ही वैचारिक रूप से वे कितने भी बुद्धिजीवी क्यों न हो।
जवाब देंहटाएंपुत्र अगर पत्नी की बात मानता है तो इसमें कोई ग़लत नहीं, हर दामाद ससुराल वालों के लिए उत्तम है। हर बेटा किसी का दामाद है। समाज में जो स्थिति है सर्वविदित है। फिर भी हम सभी को विचार करना ज़रूरी है कि आख़िर बुज़ुर्गों या युवाओं की स्थिति ऐसी क्यों हो रही है।