गुम होती जा रही किसी भी
स्थिति को बचाना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए. बहुत से लोग प्रयास भी कर रहे हैं कि
जो कुछ भी गुम होता जा रहा है, विलुप्त होता जा रहा है, उसे बचाया जाए. इस गुम
होती स्थिति में जीव भी हैं, जंतु भी हैं, वनस्पति भी है, नदी-तालाब भी हैं. इनके
लिए समय-समय पर सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास होते रहे हैं. बेटी बचाओ के नाम पर,
बाघ बचाओ, गौरैया बचाओ, नदी बचाओ, तालाब बचाओ, वृक्ष बचाओ, जंगल बचाओ आदि के नाम
पर लगातार कार्यक्रम चल रहे हैं. गुम होते को बचाने के क्रम में सबकुछ बचाने की
होड़ सी लगी हुई है. सरकारी और गैर-सरकारी तंत्र के बीच जैसे प्रतियोगिता सी चल रही
है कि कौन किसे ज्यादा बचाता है. इस बचाने की कोशिश में बस बचाने की कोशिश ही हो
रही है. गोष्ठियाँ हो रही हैं, रैलियां निकाली जा रही हैं, भाषण हो रहे हैं,
कविताएँ लिखी जा रही हैं, किताबें छापी जा रही हैं और इन सबके बीच यदि नहीं हो रहा
है तो बचाने का काम.
जिनको बचाने के लिए
शासन-प्रशासन दत्तचित्त होकर काम करने में लगा है, जिनके लिए समाज में चेतना फैलाई
जा रही है उनके अलावा भी ऐसा कुछ है जिसे आज के सन्दर्भ में बचाना बहुत जरूरी हो
गया है. जीव-जंतुओं-वनस्पतियों-जल-नदी-तालाब-जंगल आदि के साथ-साथ आज कुछ और भी है
जो तेजी से विलुप्त हो रहा है तो वह है आपसी संबंधों में मधुरता, रिश्तों में
अपनापन. ये ऐसे भाव हैं जो विगत दो दशकों में बहुत तेजी से विलुप्त हुए हैं. कब,
कैसे हमारे बीच से संबंधों ने अपना दम तोड़ दिया, कैसे रिश्तों के बीच से मधुरता
ख़तम हो गई, अपनापन कहीं दूर चला गया, समझ ही नहीं आया. आज पारिवारिक आयोजनों में
भी एक तरह की औपचारिकता नजर आती है. संबंधों के नाम पर, रिश्तों के नाम पर
अर्थसत्ता ने अपना कब्ज़ा जमा रखा है. संबंधों का निर्वहन भी अब आर्थिक स्तर देखकर
होने लगा है. इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि हम सभी आये
दिन, अपने आसपास ही ऐसा सबकुछ होते देखते हैं.
हम सब जिस तरह से जीव-जंतुओं
को बचाने के लिए लगे हुए हैं, नदियों-जंगलों को बचाने के लिए लगे हुए हैं उसी
अनुपात में अपने रिश्तों को, संबंधों को बचाने के लिए भी आगे आयें. देखने में आया
है कि बाघ को बचाने में ऐसे क्षेत्र के लोग लगे हुए हैं जहाँ कभी बाघ देखा भी नहीं
गया. ऐसी जगहों के लोग नदियों के संरक्षण के लिए कार्यशाला कर रहे हैं जहाँ से
सैकड़ों किमी दूर तक नदी का नामोनिशान नहीं. इसके सन्दर्भ में हमें समझना चाहिए कि
सम्बन्ध ऐसी स्थिति है, रिश्ते ऐसी विषयवस्तु है जिसे खोजने कहीं दूर नहीं जाना
है. इनको बचाने के लिए किसी जंगल में, किसी नदी में उतरने की आवश्यकता नहीं है.
इनको बचाने के लिए हमें आपस में ही तारतम्य बढ़ाना होगा. हम सबको आपस में समन्वय
बनाना होगा. आपसी सह-सम्बन्ध को और मजबूत करना होगा. यदि हम सब आपस में ऐसा कर
पाते हैं तो निश्चित ही आने वाले समय में हम आपसी संबंधों को सुरक्षित कर पायेंगे,
रिश्तों की गरिमा को बचाए रख सकेंगे.
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