लिखने
को बहुत कुछ है मगर अक्सर होता है कि जैसे ही लिखने के लिए बैठा जाए वैसे ही सब
गायब हो जाता है. सब कुछ याद रहने के बाद भी कुछ समझ नहीं आता कि क्या लिखा जाये.
इसी उधेड़बुन में समय निकल जाता है. लिखने और न लिखने के बीच की स्थिति इतनी
विचित्र है कि समझ नहीं आता कि लिखने की इच्छा होने के बाद भी क्यों न लिखा जा पा
रहा, लिखने लायक विषय होने के बाद भी क्यों नहीं लिखा जा पा रहा. कई बार लगता है
कि कहीं यह सब एक छद्म तो नहीं, जहाँ विषय सच होते हुए भी खुद में काल्पनिकता
समेटे है. कहीं ऐसा तो नहीं कि लिखने की मानसिकता के बाद भी न लिखने की मानसिकता
हो. कुछ तो ऐसा है जो लिखने और न लिखने के बीच दीवार बनकर खड़ा हुआ है. फिलहाल तो
लिखा ही जा रहा है, न सही यहाँ नेट पर. कागज़ पर एक पुस्तक अपना आकार ग्रहण कर रही
है. जल्द ही आपके सामने होगी.
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