आज
की पोस्ट रिश्तों पर लिखने की सोच रहे थे मगर लगा कि रिश्तों की परिभाषा है क्या?
जो हम आपसी संबंधों के द्वारा निश्चित कर देते हैं, क्या वही रिश्ते कहलाते हैं?
क्या रिश्तों के लिए आपस में किसी तरह का सम्बन्ध होना आवश्यक है? दो व्यक्तियों
के बीच की दोस्ती को क्या कहेंगे, सम्बन्ध या रिश्ता? इस बारे में और भी सवाल हैं,
अब कुछ इससे अलग. मान लिया जाये कि किसी भी तरह के सम्बन्ध को रिश्ते से परिभाषित
कर सकते हैं. ऐसे में क्या रिश्तों की भी कोई उम्र होती है? क्या रिश्ते भी
अंशकालिक, पूर्णकालिक, दीर्घकालिक, अल्पकालिक, क्षणिक आदि जैसे होते हैं? ये तमाम
सारे सवाल दिमाग में इसलिए उपजे क्योंकि ये सब कहीं न कहीं हमारे दिल से जुड़े हुए
हैं.
आये
दिन ही किसी न किसी रिश्ते का खुद से दूर होना, टूटना देखते हैं. ऐसी स्थिति में
हम खुद को ही परखने की कोशिश करते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ही गलत हों. कहीं
ऐसा तो नहीं कि हम ही रिश्तों का लिहाज न कर पा रहे हों. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम
ही संबंधों के निर्वहन में सकारात्मकता न दिखा पा रहे हों. खुद को अनेक बार कई-कई
नजरिये से, कई-कई मानकों से परखने के बाद भी कई बार लगता है कि हम ही गलत रहते होंगे,
हम ही कोई न कोई गलती करते होंगे. यदि ऐसा नहीं तो क्यों किसी रिश्ते के, किसी
सम्बन्ध के दिल से जुड़े होने के बाद भी वह हमसे दूर हो जाता है? यदि हम सही हैं तो
फिर हमारे साथ संबंधों की, रिश्तों की स्थिति गलत कैसे हो जाती है?
ऐसे
संबंधों में किसी क्षणिक सम्बन्ध का, तात्कालिक रिश्ते का टूटना नहीं होता है. ऐसे
सम्बन्ध, ऐसे रिश्ते जो कहीं न कहीं टूट गए हैं, कहीं न कहीं दरक गए हैं और लगभग
टूटने की स्थिति में हैं वे कोई एक-दो साल के नहीं वरन दो दशकों के, उससे भी
पुराने सम्बन्ध हैं. क्या सम्बन्ध भी किसी इमारत, भवन की तरह हैं जिनका एक समय बाद
दरकना स्वाभाविक प्रक्रिया है? क्या लगातार मिलते रहना, लगातार संपर्क में रहना,
सुख-दुःख में मिलना-मिलाना संबंधों की इमारत के लिए सुरक्षा कवच का काम नहीं करता
है? कैसे एक झटके में दो-तीन दशक पुराने सम्बन्ध समाप्त कर लिए जाते हैं? क्यों एक
झटके में पुरानी सारी बातें एक झटके में मिटा दी जाती हैं? क्यों बहुत पुराने
सम्बन्ध विश्वास के आधार को बना नहीं पाते हैं?
आज
ये सवाल बस सवाल बनकर सामने खड़े हैं. न इनके जवाब सूझ रहे हैं और न ही इनके जवाब
तलाशने की हिम्मत हो रही है. व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कि हम
हार रहे हैं, हार गए हैं. खुद को अपने ही पैमाने पर, अपनी ही दृष्टि में परखते हैं
तो लगता है कि अत्यधिक गुणांक में असफलता ही साथ चलती है. ऐसा एहसास होता है कि
अपने खुद के किसी भी रूप में हम सफल सिद्ध नहीं हो सके हैं. इन तमाम रूपों में एक
व्यक्ति के रूप में हम किसी भी रूप में अपने आपको सफल सिद्ध न कर सके, इनमें खुद
के पुत्र, पति, पिता, भाई, दोस्त सहित अनेकानेक रिश्ते समाहित हैं. समझ नहीं आता
कि हम कहाँ असफल रह जाते हैं? कहाँ हम गलत कर जाते हैं? कहाँ हम किसी भी रिश्ते की
तमाम अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते हैं. संभव है कि हमारी असफलता का पैमाना
पूर्ण न हो मगर सत्य यही है कि बहुतायत में हमारे हिस्से असफलता ही आई है, किसी भी
रिश्ते, किसी भी सम्बन्ध के निर्वहन को लेकर.
जो भी गहरा है, वह रिश्ता है । गहराई नहीं, सोच और ख्याल नहीं तो कुछ भी रिश्ता नहीं । वह खून का हो या पानी का या नमक का,नाम होने मात्र से कोई रिश्ता नहीं होता ।
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