07 दिसंबर 2019

अमरत्व तो मिलना नहीं शायद नीलकंठ बनना ही लिखा हो


कई बार सामान्य सी बातचीत भी असामान्य चर्चा की तरफ मुड़ जाती है. ऐसी चर्चा किसी निर्धारित बिन्दुओं के आधार पर अथवा किसी निश्चित विषय निर्धारण के द्वारा रास्ता नहीं पकड़ती है. बस बात की बात निकलते-निकलते कहाँ चली जाती है, समझ नहीं आता है. पिछले दिनों अपने मित्र सुभाष के साथ मैसेज के द्वारा चैटिंग हो रही थी. बातचीत का रास्ता अचानक से दूसरों की समस्या की चर्चा करते-करते खुद पर केन्द्रित हो गया. अकारण, बिना बात बातचीत में एक तरह का गाम्भीर्य दिखाई देने लगा. लगा कि दिल-दिमाग की उथल-पुथल कई बार शब्दों के द्वारा ज़ाहिर होने के लिए कोई न कोई माध्यम खोजती है. सत्य क्या है? इसका अभीष्ट क्या है? बातचीत का आधार बने बिना इस तरह की चर्चा का सूत्र किसके हाथों में रहा? सवालों के बीच अनेक बार इसे पढ़ने के बाद भी निरुत्तर रहे. सो लगा कि बस अब समाधान मिले, जो किसी भी रूप में मिले. मन की, दिल-दिमाग की उलझन, उथल-पुथल को विश्राम मिले. पर फिर वही सवाल कि क्या वाकई मनोस्थिति को, उलझन को, उथल-पुथल को कभी विश्राम मिला है, किसी के जीवन में भी?



= ऐसे में अगले ने अपना विश्वास हम पर रखा है... कम से कम हम खुद की नज़रों में अपराधी नहीं होना चाहते हैं. बहुत जगहों पर हम दोषी हैं पर वे नितांत हमारी हैं, व्यक्तिगत.
+ जीवन दोषो से भरा हुआ है लेकिन दोषों को स्वीकार करना ही दोष का शमन है मनुष्य जीवन में. मनुष्य होने की सीमाएं हैं. 
= हमारे दोषों का शमन नहीं, कई जगह विश्वास तोड़ा है.
+ हमें उन सीमाओं का ज्ञान हो जाये उतना ही काफी है. जीवन इतना थोड़ा सा है भाईसाहब कि कुछ भी अभीष्ट प्राप्त नही होता.
= सही बात, मगर जो सुधारा न जा सके और ये भी जानकारी हो कि खुद के कारण बिगड़ा है तो....?
+ कम से कम सच को खुद को ईमानदारी से स्वीकार करने का साहस लाना चाहिए. बस खुद की नजरों में न गिरें. स्वीकारोक्ति भी निश्छलता का ही पर्याय है.
= कम से कम हम अपने बारे में जानते हैं, सो समझते हैं. कुछ गलतियाँ चाह कर भी सुधारी न जा सकती हैं.
+ निश्छलता हर दोष के कलंक को कम करती है. गलतियां नही सुधरती, गलतियां तो घटनाएं हैं. घटना की पुनरावृत्ति न हो यही सुधार है बस. गलतियां तो जीवन का अभिन्न चरण हैं.
= कोशिश यही है.....
+ मनुष्य जीवन मिलने के बाद भी मनुर्भव का लक्ष्य शायद इसीलिए स्थापित किया गया हमारे ऋषियों द्वारा.
= जब खुद की गलती से किसी और को सजा भुगतते देखते हैं तो ये सारी फिलोसोफी गायब हो जाती है.
+ फिलोसोफी की काट केवल फिलोसोफी ही है वरना मनुष्य मन सिवा बेचैनी की खान के सिवा और क्या है? या तो खाओ पीओ सड़ते रहो, बस. जरा सा चैतन्य हुए तो गलतियां मुंह बाए खडी. फिर यही फिलोसोफी ही तिनके का सहारा है.
= कुछ स्थितियाँ समझ के बाहर हैं, खुद हमारे.
+ आप हर घटना का भौतिक समाधान करते हैं, एकदम जमीनी, प्रशासन की तरह जबकि कुछ घटनाएं राजनैतिक समाधान मांगती हैं.
= कई बार लगता है कि दुनिया जहां की स्थितियाँ सुधारने की कोशिश करते हैं और खुद गलतियों के पाताल में खड़े हैं.
+ यही आपकी जीत है कि आप अनुभव करने की योग्यता रखते हैं.
= या खुद को भ्रमित करने की?
+ कह सकते हैं.
= यही सत्य है.
+ सत्य भी कहाँ एक है? सबके अपने-अपने हैं
= ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ कि बहुत सी जगह खुद को आज तक माफ़ न कर सके. कोशिश करते हैं कि और किसी के साथ गलत न होने दें.
+ गलतियों से खुद को बांधे रखना भी तो एक बन्धन ही है. बन्धन सदा दुख आमन्त्रित करता है. गलितयों को स्वीकारोक्ति ही शमन है.
= खुद की गलतियों से  मुक्ति भी चाहिए.
+ यही जीवन भर का सन्धान शेष रह जाता है. ये तो अनवरत है, यात्रा जैसे. और कम से कम आप यात्रा में हैं.
= यही कष्ट भी है.
+ हमें यात्रा शुरू करनी है. सत्य, लेकिन कष्ट ही मुक्ति भी है शायद. सेल्फ हेल्प डिवाइस.
= कष्ट मुक्ति नहीं, प्रायश्चित है.
+ मुक्ति तो किसी ने देखी नहीं.
= गलती का दुःख कोई और भी सह रहा. उसे कहाँ मुक्ति मिली तो खुद को मुक्ति कैसे?
+ मृत्यु को मुक्ति कह नहीं सकते.
= बात मृत्यु की नहीं.
+ हम समझ रहे.
= अभी एक दिन हमने खुद के मरने का सपना देखा. हम मरे हैं, ठठरी बनी है और हम ही जिन्दा हैं, बता रहे अगले को कि कौन मर गया. समझ न सके कि है क्या ये? क्या चल रहा अचेतन में?
+ इस स्वप्न का कोई विशेष अर्थ होता होगा शायद?
= क्या जानें?
+ आप साक्षी भाव से जीवन की यात्रा में जा रहे शायद, जीवन से मोह भंग मतलब जीवन के उपक्रम से. आत्महत्या नहीं ये.
= ये कह सकते हैं. जीवन से किसी तरह का कोई मोह नहीं. खुद से मरना भी नहीं चाहते, आत्महत्या जैसा. पर कोई डर नहीं कि हमारे बाद सबका क्या होगा.
+ हम समझ रहे. जीवन का अभीष्ट शून्य ही है ये सच है. आपकी इच्छाओं की मृत्यु के सूचक हैं ये स्वप्न.
= ऐसा लग रहा, जैसे बस जी रहे. सच कहें तो इच्छाएं रही ही नहीं. बस किये जा रहे, जो मन में आया.
+ यही तो इच्छाओं की मृत्यु है. हम सब समझ पा रहे. इसी शून्य से जीवन जन्म लेता ही और इसी शून्य में.
= बस इस समय खुद से लड़ रहे, पिछले लगभग दस-बारह साल से.
+ यही तो आपके इच्छाओ की मृत्यु है क्रमशः. इसी लड़ाई से आपको अमृत मन्थना है. आप नितांत अकेले हैं इस यात्रा में. कोई आपको छू भी नहीं सकता. चाह कर भी कोई साथ नहीं चल सकता.
= पता नहीं अमृत मथेगा या हम खुद ही?
+ खुद तो सब ही मथते हैं। आप खुद के साथ साथ अमृत भी मथोगे यही आपका अभीष्ट है. अमृत तो आपको निकालना ही पड़ेगा क्योंकि आप मांग नहीं सकते भगवान से. जो भगवान से नहीं मांग सकता उसे अपना कुंआ खुद खोदना पड़ेगा. ये बात अलग है भगवान उसमें भी टेक्स लेंगे.
= बस अब समाधान चाहते हैं अपनी समस्याओं का, अपनी गलतियों का, अपने आपको मथने का. जो निकलना है, निकल आये अमृत या विष. अमरत्व तो मिलना नहीं शायद नीलकंठ ही बनना लिखा हो? 

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(बातचीत में ‘=’ चिन्ह से हमारी बात और ‘+’ के द्वारा हमारे मित्र सुभाष की)

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