06 दिसंबर 2019

समय, परिस्थिति के हिसाब से अपने-अपने सत्य-असत्य


आज के दौर में जबकि एक तरफ संवैधानिक रूप से चलने की बात की जाती है उस समय में संवैधानिक क्या है, इसे लेकर भी संशय बना हुआ है. हैदराबाद की जघन्य घटना के बाद आम जनमानस में आक्रोश बना हुआ था और आरोपियों को जनता के हवाले करके, जनता के द्वारा हिसाब बराबर किये जाने की आवाजें उठ रही थीं. देश के सर्वोच्च सदन से भी एक सदस्य ने अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए जनता के द्वारा ही ऐसे लोगों का न्याय किये जाने की बात कही थी. किसी भी लोकतान्त्रिक देश में जहाँ कि संविधान, कानून आदि के द्वारा समाज का, सत्ता का सञ्चालन होता हो वहाँ ऐसे किसी भी तानाशाही तरीके को सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता है. यह जानते-समझते हुए भी जो भी अपराध हो रहा है, पकड़े जाने वाले व्यक्ति अपराधी हैं, वे अपना अपराध कबूल चुके हैं इसके बाद भी जनता को सीधे तौर पर कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है. सड़कों से चाहे आक्रोशित जनता की आवाज़ उठी हो या फिर सदन के भीतर से किसी सदस्य की, सभी में आरोपियों के खिलाफ मानसिकता, महिलाओं के साथ होती आ रही जघन्य वारदातों के कारण उपजा आक्रोश था मगर सिर्फ इसी से उनको किसी तरह का न्याय करने का, कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं मिल जाता. 


ऐसे आक्रोश भरे दौर में जबकि लोग आरोपियों द्वारा अपना अपराध कबूल लेने के बाद भी उनको न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने को महज समय की बर्बादी मान रहे थे, किसी बड़े रसूखदार का संरक्षण समझ रहे थे, उसी समय उन चारों आरोपियों के एनकाउन्टर की खबर ने जैसे अबको चौंका दिया. अचानक से बहुत से स्वर बदले दिखने लगे. जो कल तक सड़कों पर न्याय की मांग कर रहे थे, अचानक पुलिस एनकाउन्टर के बाद मानवाधिकार की बात करने लगे. इ चारों आरोपियों की आड़ में किसी बड़े आदमी को बचाने की चर्चा करने लगे. ऐसा कुछ भी संभव है मगर इस तरह की घटनाओं से दो तरह की बातें तो साफ़ होती हैं कि क्या कानून को जनभावना के कारण ऐसा कोई भी कदम उठा लेना चाहिए? दूसरे कि क्या ऐसे कदमों से प्रशासनिक निरंकुशता बढ़ने की सम्भावना है? पुलिस द्वारा एनकाउन्टर की जो कहानी बनाई-बताई जा रही उसमें कितनी सच्चाई है, कितनी नहीं ये तो पुलिस वाले ही जानें किन्तु असल सत्य यही है कि चार ऐसे व्यक्ति मारे गए जिन्होंने अपने अपराध कबूल लिया था. यहाँ सवाल उठाने वालों के अपने सत्य हैं और उन सवालों का विरोध करने वालों के अपने सत्य हैं.

इन्हीं सवालों के साये में देखना होगा कि पिछले सात सालों से दिल्ली की सड़कों पर बर्बरता का शिकार हुई उस बेटी को कहाँ इंसाफ मिल सका है? उसके अलावा बहुत सी बेटियाँ ऐसी हैं जो अभी भी इंसाफ की तलाश में भटक रही हैं, कुछ जीवित अवस्था में और कुछ की आत्मा. क्या उनके परिजनों को यह भटकाव सही लगता होगा? आज की एनकाउन्टर की घटना एकबारगी कानूनी रूप में, संवैधानिक रूप में गलत भले लगे किन्तु उस डॉक्टर बेटी के परिजनों को किसी भी रूप में यह कदम गलत नहीं लग रहा होगा. उस परिवार से जुड़े लोगों को या फिर ऐसी किसी भी जघन्य घटना के दर्द को सह रहे लोगों को भी पुलिस का यह कदम किसी भी रूप में गलत नहीं लग रहा होगा. किसी भी घटना को दीर्घकालिक रूप में देखने की मानसिकता से बचना चाहिए. पुलिस का यह कदम जनभावना का सम्मान था या फिर किसी रसूखदार को बचाने वाला, यह तो आने वाले समय में स्पष्ट होगा. इस कदम से किसी और दूसरे राज्य सबक के तौर पर लेंगे या फिर संवैधानिक, कानूनी सुधार के रूप में, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता है. इस तरह से आरोपियों के मारे जाने के बाद ऐसे अपराधों में किसी तरह की कमी आएगी ही, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है. कुल मिलाकर पुलिस के इस कदम ने जनाक्रोश को ठंडा करने का काम किया है. पीड़ित परिजनों के आँसू पोंछने का काम किया है. शेष तो बहुत कुछ ऐसा है समाज में जो गलत होने के बाद भी चल रहा है, जो सही होने के बाद भी समाज को स्वीकार नहीं है.

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