हैदराबाद
में चिकित्सक महिला के साथ हुई वीभत्स वारदात के बाद पूरे देश में महिलाओं की
सुरक्षा को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है. इस बहस के केन्द्र में जहाँ महिलाओं की
सुरक्षा है, शासन-प्रशासन की कानून व्यवस्था है वहीं इसके साथ-साथ मजहब विशेष के
पुरुषों द्वारा ऐसे जघन्य घटनाक्रम को अंजाम दिए जाने पर भी चर्चाएँ आम हैं. इस्लामिक
आतंकवाद की तरह से लव जिहाद समाज में पर्याप्त रूप से चलन में आ चुका है, लगभग उसी
तरह से अब देखने में आ रहा है कि सामूहिक बलात्कार और उसके बाद बर्बरता के साथ
महिलाओं, बच्चियों की हत्या के पीछे इस्लामिक व्यक्तियों के नाम सामने आ रहे हैं. इसे
समझना होगा कि आखिर ये है क्या? क्यों इस तरह की बर्बर घटनाओं के पीछे मजहब विशेष
के लोगों के नाम ही दिखाई देते हैं? आतंकवादी घटनाओं के सन्दर्भ में सदैव कहा जाता
रहा है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता है. यह सत्य है कि आतंक का कोई धर्म नहीं
होना चाहिए. कुछ लोगों के कारण सम्पूर्ण मजहब को कलंकित नहीं किया जाना चाहिए.
इसके बाद भी एक बात सामने निकल कर आती है कि सभी इस्लामिक व्यक्ति आतंकवादी नहीं
हैं मगर पकड़े-मारे जाने वाले सभी आतंकी इस्लामिक निकलते हैं. ये क्या है? इसे क्या
कहा जाये? कुछ इसी तरह से अब बलात्कार सम्बन्धी मामलों में हो रहा है. इसमें भी
बहुतायत में इस्लाम से जुड़े लोग ही अपराधी के रूप में सामने आ रहे हैं.
बहरहाल,
वर्तमान में चर्चा का विषय मजहबी आधार पर ऐसे अपराध को परिभाषित करने से ज्यादा इस
पर होना चाहिए कि ऐसे अपराधों को कैसे रोका जाये. जब भी समाज में बलात्कार की
चर्चा होती है तो उसके साथ ही महिलाओं के पहनावे की चर्चा की जाने लगती है. उनके
समय-असमय बाहर निकलने को लेकर चर्चा की जाने लगती है. उनकी स्वतंत्रता, उनके
क्रिया-कलाप पर बहस छिड़ जाती है. ऐसे में चर्चा बलात्कार के कारणों, उसके निवारणों
से अलग हट कर पक्ष-विपक्ष में बंट जाती है. एक पक्ष महिलाओं के पहनावे, उसके
क्रियाकलापों पर बहस करता है तो दूसरा पक्ष उम्र का सन्दर्भ देते हुए बच्चियों के
साथ बलात्कार की घटनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने लगता है. यह सही है कि
विगत कुछ समय से बलात्कार के, सामूहिक बलात्कार के मामलों में उम्र का सन्दर्भ रह
ही नहीं गया है. चंद महीनों की बच्चियाँ भी दुराचार का शिकार हुईं हैं तो वयोवृद्ध
महिलायें भी ऐसे व्यक्तियों का शिकार बनी हैं.
यदि
समाज वाकई बलात्कार के कारण-निवारण पर चर्चा करने के मूड में हो तो उसे पहनावे,
क्रिया-कलाप आदि से बाहर निकल कर उन घटनाओं की तरफ जाना होगा जो किसी भी व्यक्ति
के भीतर यौनेच्छा को बढ़ावा देती हैं. क्या कभी इस बात पर गौर किया गया है कि आज
किसी उत्पाद की बात हो, किसी गाने की चर्चा हो, किसी म्यूजिक एल्बम का चित्रण हो,
किसी कहानी का आना हो, किसी सीरियल का दृश्य हो, किसी फिल्म का सीन हो, कोई
विज्ञापन हो सभी में महिलाओं की ऐसी छवि का चित्रण किया जा रहा है जो अश्लील के
समकक्ष है. ऐसा महसूस होता है जैसे किसी व्यक्ति के किसी विपरीतलिंगी के साथ यौन
सम्बन्ध नहीं हैं तो उसका जीवन अधूरा है. इन दृश्यों को देखकर ऐसा लगता है जैसे
जीवन का एकमात्र ध्येय महिला की नग्न देह और उसके साथ यौन खिलवाड़ करना रह गया है.
ऐसे में विचार कीजिये कि यौनेच्छा के जागने के बाद उस व्यक्ति का क्या हाल होता
होगा जिसके पास अपनी यौनेच्छा को शांत करने का कोई साधन नहीं? क्या कभी इस पर
विचार किया गया है कि विगत कुछ समय से सामूहिक बलात्कार के मामले बढ़े हैं, बच्चियों
के साथ दुराचार के मामले बढ़े हैं, बलात्कार के बाद हत्या के केस बढ़े हैं. आखिर ऐसा
क्यों हुआ? सेक्स सम्बन्धी चित्रण के कारण अपने दिमाग में यौनेच्छा को जन्म देने
के बाद व्यक्ति किसी सहज शिकार की तलाश में निकलता है. ऐसे में वे या तो एक समूह
के रूप में अपनी वासना को शांत करने का काम करते हैं अथवा वह किसी कमजोर महिला,
बच्ची को अपना शिकार बनाता है.
सामान्य
रूप से देखने में आता है कि ऐसी किसी भी घटना के बाद उत्तेजना, आक्रोश, गुस्सा
अपने चरम पर होता है. सरकार की तरफ से, शासन-प्रशासन की तरफ से अपनी खानापूरी कर
ली जाती है और फिर जनाक्रोश शांत हो जाता है. सोशल मीडिया के कारण लोगों को अपनी
अभिव्यक्ति का सहज मौका मिल जाता है. बस ऐसे में तमाम सुझाव, तमाम तरीके, तमाम कदम
पेश किये जाने लगते हैं. बेटियों को सशक्त बनाये जाने, उनको आत्मरक्षा के गुण
सुखाये जाने के, बेटों को संस्कारी बनाये जाने के बड़े-बड़े भाषण दिए जाने लगते हैं.
ऐसे विचारों के आने के पीछे सामाजिक ढांचे को एकदम से विस्मृत कर दिया जाता है.
जिस समाज में, परिवार में बेटियों को जरा-जरा सी बात पर लगभग भयभीत सा करके रखा
गया होता है वहां अपेक्षा की जाती है कि वे चाकू चलायें, अपराधियों के शरीर पर
घातक वार करें. जिस समय में लड़कियों में अपनी देह के प्रति एक असुरक्षा भाव होने
के साथ-साथ उसका सौन्दर्य-बोध भी छिपा होता है वहां माना जाता है कि वे कोई कठोर
निर्णय लेने में सक्षम हैं. जहाँ लड़कियों में जीरो फिगर के प्रति, अपनी त्वचा, देह
के सौन्दर्य के प्रति आसक्ति भाव है वहां उनसे दैहिक कठोरता की अपेक्षा की जा रही
है. जहाँ लड़कियाँ घर में छिपकलियों, कोक्रोचों, चूहों, अँधेरों से घनघोर तरीके से
घबराती हैं वहां विचार किया जा रहा है कि वे दुर्दांत अपराधियों के छक्के छुड़ा देंगी.
असल
में ये सब महज काल्पनिकता से भरी बातें हैं. जिस समाज में बेटियों के साथ घर की
महिलायें ही उनकी देह से सम्बंधित बातें करने में हिचकती हैं वहां उन बच्चियों को
सही-गलत कौन समझाएगा? जहाँ माना जाता है कि बेटियां दैहिक रूप से कोमल, कमजोर हैं
वहां उनको दौड़ने, भागने, कूदने, चिल्लाने, वार करने, लड़ने आदि की शिक्षा कौन देगा?
समाज से पहले हम सभी को अपने-अपने परिवार में ऐसा माहौल तैयार करना होगा जहाँ
बेटे-बेटियों में सिर्फ खान-पान, शिक्षा, पहनावे को लेकर ही विभेद समाप्त न किया
जाये बल्कि उनके कार्यों, उनकी जमीनी भागदौड़, उनकी शारीरिक कसावट को लेकर भी विभेद
समाप्त किया जाये. बेटों को संस्कारी बनाया जाये या न बनाया जाये मगर अपनी बेटी को
इतना सशक्त अवश्य बनाया जाये कि वह लात, घूंसे, हाथों का भरपूर वार सामने वाले
अपराधी पर कर सकने में सक्षम हो. बेटियों को सिलाई, संगीत, पाककला की जानकारी हो
या न हो मगर उनको आत्मरक्षा के गुण आने चाहिए, उनमें आत्मविश्वास की सशक्तता हो,
आत्मबल की तीव्रता हो. यह ध्यान रखना होगा कि समाज में सभी व्यक्ति न ही भले हैं
और न ही सभी व्यक्ति बुरे हैं. हर भला व्यक्ति सड़क चलते सबका भला नहीं कर रहा है,
उसी तरह अपराधी व्यक्ति सड़क चलते हर व्यक्ति के साथ अपराध नहीं कर रहा है. यहाँ भी
अपनी तरह की मनोवैज्ञानिकता है, एक तरह की कुंठा है. इसके सन्दर्भ में समझना होगा
कि ऐसे आपराधिक व्यक्तियों की कुंठा का, उसके मौके का शिकार हमारी-आपकी बेटी न
बने.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें