पिछले
साल इन्हीं दिनों एक बहुत बड़े से कार्यक्रम का हिस्सा बने हए थे. उसी समय एक बहुत
ही बुरी खबर सुनने को मिली थी. कार्यक्रम में चेहरे पर मुस्कराहट लाकर लोगों से
मिलने की विवशता और दिल में उस बुरी खबर के चलते उठती दुःख की लहर. दोनों के बीच
संतुलन बैठाना और दोनों स्थितियों के बीच खुद को वर्तमान में लाने की कुशलता हमें
खुद में दिखानी थी. दोनों स्थितियों का अपने में तारतम्य ऐसा था जिसमें हम खुद ही
किसी न किसी रूप में शामिल थे. इसके बाद भी खुद को स्पष्ट रूप से उसी रूप में
ज़ाहिर न कर पाना भी हमारी मजबूरी थी. बुरी खबर ऐसी थी कि एक पल को पैरों के नीचे
की जमीन सरक गई. समझ नहीं आया कि ऐसा कैसे हो सकता है. क्यों हमारे साथ ही ऐसी
बुरी ख़बरों का, घटनाओं का जुड़ना होता है? उस एक घटना के साथ अपना अतीत अचानक सामने
आ गया. कैसे एक-एक घटना के साथ कई-कई घटनाओं का जुड़ना हो जाता है, यह सोचा भी नहीं
जा सकता है.
आज
पूरे एक वर्ष बीत जाने के बाद भी उस एक फोन पर मिली खबर से खुद को अलग नहीं कर सके
हैं. बहुत सी बातें ऐसी हैं जिन्हें कहने के बाद भी नहीं कह सके हैं. अतीत को याद
करने का कोई लाभ नहीं मगर बीते दिनों को याद करते हैं तो हम खुद में समझ नहीं पाते
हैं कि आखिर हमारे साथ ऐसा क्या था कि आज तक हमारे साथ हमारा सोचा गया काम हुआ
नहीं. जो-जो सोचा वो तो कभी हुआ ही नहीं मगर जिसे-जिसे अपने करीब माना उसके साथ भी
कहीं न कहीं बुरा ही होता रहा. आज तक समझ नहीं आया कि यदि कोई शक्ति है, परम सत्ता
है तो हर बार परीक्षा के लिए हमें ही क्यों चुना जाता है? समझ नहीं सके कि बहुत
थोड़ी सी ख़ुशी के बीच बहुत बड़ा दुःख हमारे हिस्से ही क्यों आता है? बहुत बार ऐसा
आवश्यक नहीं कि दुख का, कष्ट का सीधे-सीधे सम्बन्ध उसी व्यक्ति से हो मगर उससे
कहीं न कहीं व्यक्ति का जुड़ा होना उसे कष्ट देता है.
फिलहाल
कष्ट के दिन बीत जाएँ. चेहरे की हँसी, मुस्कान कभी धूमिल न होने पाए. समय ने जिन
जिम्मेवारियों से अगले को जोड़ दिया है, वे कभी अधूरी न रहने पायें. हम किस मोड़ पर,
किस रूप में, कैसे सहायक, सहयोगी बन सकेंगे हमें खुद नहीं पता मगर हमारी एक-एक
साँस, एक-एक पल साथ है. इसी विश्वास के साथ, बिना कुछ कहे, बहुत कुछ.
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