पिछले
साल इसी दिसंबर की बात है, हम लोग बिहार के सबसे छोटे जिले शिवहर में थे. न कोई
घूमने का विचार, न यहाँ छुट्टियाँ मनाने का कोई कार्यक्रम. हमारे एक मित्र राकेश
द्वारा अपने देशव्यापी साईकिल अभियान का समापन अपने गृह-जनपद में किया गया था. समय
भी लगभग इसी तिथि के आसपास का था. राकेश की चार साल की अनथक मेहनत और उनके साथियों
के उत्साह का परिणाम था कि शिवहर जैसे बहुत छोटे जनपद में कई लोगों का जमावड़ा हुआ.
उनके स्थानीय मित्रों ने सहयोग किया, बाहरी मित्रों का भी आना हुआ. उनके बामपंथी
विचारधारा के होने के बाद भी बहुत से गैर-बामपंथी मित्रों ने, जिसमें स्थानीय और
बाहरी मित्र शामिल थे, राकेश जी का साथ दिया.
कार्यक्रम
के लिए निर्धारित तीन दिनों से ज्यादा समय उनके सहयोगियों द्वारा दिया गया.
कार्यक्रम की समाप्ति जिस तरीके से होनी चाहिए थी या कि जैसी सोची थी भले ही वैसी
न हुई हो मगर एक संतुष्टि थी कि बिहार के एक छोटे जनपद में एक बड़े कार्यक्रम का
शुभारम्भ हुआ. कार्यक्रम जिसका नाम कि राकेश की मर्जी से ‘जेंडर संवाद’ निर्धारित
किया गया, अगले संवाद की प्रतीक्षा करने लगा. इस प्रतीक्षा के बीच अल्प-समय
विश्राम का निकाला गया. बिहार की अपनी निर्धारित कानूनी मर्यादाओं का पालन करने के
बाद आगामी पड़ाव शिवहर के निकटवर्ती नेपाल देश की तरफ बनाया गया. ये शायद आश्चर्य
का विषय हो सकता है मगर जबकि साथ में एक समूह हो तब किसी भी आश्चर्य की स्थिति नहीं
रहती है. कानूनी स्थितियों का पालन करने की मानसिकता के साथ ही शिवहर से लगे नेपाल
की तरह वाहन चल दिए.
कतिपय
रोमांचक मार्गों, नदी, बाँध की स्थिति से निकलते-बचते अंततः युवा विचारों का समूह
नेपाल के द्वार पर खड़ा हुआ था. बिहार, शिवहर से बहुत दूर के मित्रों के लिए यह
अवश्य ही अचम्भा जैसा था कि दो देशों के द्वार पर कोई सुरक्षा नहीं, कोई सुरक्षा
बल नहीं. हमारे वे मित्र जो कि खुद को बामपंथी बताते हुए कभी भी दक्षिण पंथ की,
सनातन संस्कृति की, तत्कालीन मोदी-भाजपा सरकार की शाब्दिक बखिया उधेड़ने में सबसे
आगे रहते हैं वे इस व्यवस्था को सर्वोत्कृष्ट बताने से नहीं चूक रहे थे. सीमाओं के
निर्बंध होने को वे बामपंथ की जीत और उसका सफल उद्देश्य बताने में लगे थे. उनकी
उत्साहित बातों के बीच बस एक सवाल उछाला कि यदि देशों की सीमाओं पर इस तरह की
स्वतंत्रता आपको पसंद है तो अपने घर पर दरवाजे, दीवार, तालाबंदी आदि किसलिए? क्या
एक देश में, एक गाँव में, तमाम परिचितों के बीच इस तरह की बाध्यता ग्रामवासियों की
स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं? क्या यह उन ग्रामवासियों के अधिकारों में कटौती
नहीं जो जब चाहें आपके घर आकर अपने इस्तेमाल के लिए कुछ भी ले जाना चाहते हैं?
ऐसे
और भी सवाल उस यात्रा में हमने उछाले मगर सारे के सारे निरुत्तर रहे. देर रात तक
अपने स्थानीय मित्र की ससुराल में चलने वाली दामाद-स्वागत वाली पार्टी चलती रही,
बहुत से स्थानीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा होती रही, विमर्श
होता रहा मगर हमारे तमाम सवालों का जवाब नहीं मिला. आज जबकि देश भर में कथित
शांतिदूत किसी और बात की खीझ नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर निकाल रहे हैं, वे
प्रश्न आज भी निरुत्तर हैं. एक घर की सीमा में किसी का भी प्रवेश स्वतंत्रता नहीं,
संवैधानिक नहीं मगर एक देश में जहाँ चाहे घुसपैठ करने का अधिकार सारे विश्व को
चाहिए, आतंकियों को चाहिए, हमारे उन मित्र के तमाम वामपंथी मित्रों को चाहिए. कम
से कम हमारे स्तर से ये नहीं हो सकता. हमारे मित्र को अपने घर की सुरक्षा जितनी
पसंद है, जितनी प्राथमिक है उतनी ही हमें अपने देश की सुरक्षा की प्राथमिकता है. जानवरों,
चोर-उचक्कों, आतंकियों, भिखारियों का यदि घर में घुसना पसंद नहीं तो हमें इनका देश
में घुसना पसंद नहीं. अब समस्या उनकी है और वे ही इसका जवाब दें कि ये सारी
प्रजाति किसी एक ही मजहब में क्यों मिलती हैं?
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