आज
के तकनीक भरे दौर में जबकि लोग मशीनों पर ज्यादा निर्भर हो चुके हैं, ऐसे में कोई
किताबों की बात करे तो आश्चर्य लगता है. इस आश्चर्य में उस समय और भी वृद्धि हो
जाती है जबकि पता चलता है कि महज किताबों की बात नहीं की जा रही वरन बच्चों में
किताबें पढ़ने के प्रति ललक पैदा करने की बात की जा रही है. ऐसा ही एक प्रयास हमारे
अभिन्न मित्र डॉ० राजेश पालीवाल और बड़े भाई समान कीर्ति दीक्षित द्वारा किया जा
रहा है. जनपद जालौन में संभवतः यह अपने तरह का अनुभव प्रयोग होगा जबकि विशुद्ध
बच्चों के लिए एक पुस्तकालय का शुभारम्भ इनके द्वारा किया गया. विगत दिनों जब इस
पुस्तकालय के शुभारम्भ, उद्घाटन में शामिल होने का अवसर मिला तो अपने पुराने दिनों
की तमाम यादें अचानक से उभर आईं. इन यादों ने उस समय और भी तीव्रता पकड़ी जबकि अपनी
बेटी को इस पुस्तकालय के बारे में बताया.
शीतलहर
की तीव्रता के चलते जनपद के स्कूल, कॉलेज दो दिन के लिए बंद करवा दिए गए थे. ऐसी
स्थिति में बिटिया रानी घर पर ही थीं और दोपहर से ही उनकी जिद बच्चों के पुस्तकालय
में चलने की थी. दो बार उसको बताया कि पुस्तकालय का समय शाम पाँच बजे से है, इसके
बाद भी थोड़ी-थोड़ी देर में पुस्तकालय जाने की बात कहना जैसे हमें ये याद दिलाना था
कि शाम को पुस्तकालय चलना है. बिटिया रानी अभी कक्षा छः में है और इसी उम्र के हम
थे जबकि हमने राजकीय इंटर कॉलेज में जाना आरम्भ किया था. मित्रों का साथ, घर से
दूर अकेले जाने की स्थिति, उस समयावधि में निर्णय लेने की स्वतंत्रता ने उस शौक को
पल्लवित होने का अवसर दिया जिसे घर के वातावरण में अपने अन्दर पनपते देखा था. जीआईसी
के मैदान में बने राजकीय पुस्तकालय का हॉल हम बच्चों के पुस्तकीय प्रेम का गवाह
बनता तो उरई शहर में बने दो-तीन पुस्तकालय भी हम बच्चों की गतिविधियों से गुलजार
होते. इसके अलावा स्टेशन रोड की एक गली में स्थित सूचना केन्द्र भी हम बच्चों से
बचा नहीं रहा. उस समय हम दोस्तों में आपस में इस बात की प्रतिस्पर्द्धा रहती थी कि
पुस्तकालय की किस किताब को हममें से किसने पहले पढ़ा. कई बार तो हम लोग पुस्तकों को
किसी न किसी दूसरी पुस्तक के पीछे छिपा दिया करते थे, जिससे बाकी दोस्तों के हाथ
में न लगे. जीआईसी मैदान में बने राजकीय पुस्तकालय के अलावा सर्राफा बाजार में
बने, माहिल तालाब के पास बने पुस्तकालय से हम बच्चों ने खूब सारी किताबों को पढ़
लिया था.
हमारे
लिए इन पुस्तकालयों के अलावा एक और स्थान ऐसा था जहाँ से पुस्तकों का मिलना सुलभ
रहता था. शहर की एकमात्र प्रतिष्ठित किताबों की दुकान, जिसे आज भी लोग जयंती बाबू
की दुकान के नाम से जानते हैं, हमारे लिए एकदम से घरेलू थी. उस दुकान के मालिक
नरेन्द्र चाचा से अपने मन की पुस्तक को जीआईसी से लौटते समय ले आते और दो-तीन दिन
में वापस कर देते. घर में पढ़ने-लिखने का माहौल शुरू से ही रहा, इसका भी सकारात्मक
असर हमारे ऊपर रहा. अब वही असर बिटिया रानी पर देख रहे हैं. घर में तो किताबों का
आना लगा रहता है, उसका पढ़ना भी होता है, साथ ही कहीं यात्रा के दौरान भी उसके
द्वारा मनपसंद खरीदी जाने वाली चीज पुस्तक ही होती है.
आज
उसका अपने मोहल्ले में ही नव-शुभारम्भ हुए पंडित दीनदयाल बाल पुस्तकालय में जाना
हुआ, और ख़ुशी की बात यह कि ऐसा हमारी किसी जिद से नहीं वरन खुद उसकी मंशा से हुआ. आज
के बच्चों में मोबाइल, कंप्यूटर, वीडियो आदि के दौर में किताबों के प्रति ललक हम
घर से ही पैदा कर सकते हैं. पढ़ना किसी भी रूप में बुरा नहीं है, ख़राब नहीं है.
देखा जाये तो किताबें ही एकमात्र ऐसी मित्र हैं जो सदा साथ रहती हैं. ठीक है, आज
के तकनीक के दौर में तमाम ऐसे उपकरण आ गए हैं जिन्होंने पढ़ने के विकल्प प्रस्तुत
किये हैं मगर उनके द्वारा बच्चों में यदि पढ़ने की ही उत्सुकता जगे तो बेहतर होगा.
याद रखना होगा कि पुस्तकें हमें आज से ही नहीं वरन हमारे अतीत के साथ-साथ हमारे
भविष्य से भी हमें परिचित करवाती हैं. वे न केवल हमारी संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों
से हमें परिचित कराती हैं वरन उनका बोध भी हमारे अन्दर जगाती हैं.
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