26 वर्ष 11 माह 3 दिन की समयावधि
बहुत लम्बी होती है. देश की संस्कृति पर एक काले धब्बे की तरह बना ढाँचा, जो
बार-बार दर्शाता था एक विदेशी आक्रान्ता के आने और भारतीय संस्कृति के मर्यादा
पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि पर अपने निशान बना जाना. वर्षों तक
हिन्दुओं-मुसलमानों में विवाद की स्थिति बनी रही. दुखद यह रहा कि देश में रहने के
बाद भी मुस्लिम समुदाय द्वारा देश की संस्कृति के प्रति सद्भाव व्यक्त न किया गया.
यह जानते-समझते हुए भी उस विवादित ढांचे को किसी भारतीय ने नहीं वरन एक विदेशी
आक्रान्ता ने हिन्दुओं की आस्था-विश्वास के केंद्र को तोड़कर बनवाया था, कभी राम मंदिर
के पक्ष में आवाज़ न उठाई गई. राजनैतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि नब्बे के दशक के
आरंभिक वर्षों में देश भर में श्री राम जन्मभूमि के प्रति एक तरह की संवेदनात्मक
लहर दिखाई देने लगी. परिणाम यह हुआ कि उस जोश ने विवादित ढाँचे को हवा में धूल
बनाकर उड़ा दिया. 6 दिसम्बर 1992 के उस
दिन के बाद श्री राम जन्मभूमि मामला अदालत में भटकने लगा. लगातार राजनीति का शिकार
होकर भी आस्था-विश्वास नहीं डिगा और अंततः लम्बी समयावधि के बाद हिन्दुओं को अपना
गौरव पुनः प्राप्त हुआ. आस्था-विश्वास की जीत हुई.
माननीय
उच्चतम न्यायालय द्वारा जब आज इस निर्णय को सुनाया जा रहा था, तो उसे टीवी पर
देखते समय फ़ैजाबाद यात्रा की एक घटना का स्मरण सहज ही हो आया. उस दिन श्री राम जन्मभूमि
पहुँच कर, रामलला के द्वार पहुँच कर भी उनके दर्शन न हो सके थे. विचार आया कि हो सकता
है कि उन पुलिस अधिकारियों को हमारी बात याद आई हो आज, जब उन्होंने
हमारे कृत्रिम पैर के चलते रामलला के दर्शन न करने दिए थे.श्री राम जन्मभूमि के
द्वार पर हम अपने एक मित्र के साथ दर्शनार्थ पहुंचे थे. प्रशासनिक औपचारिकताओं से
कभी भी विरोध नहीं किया क्योंकि हमारा मानना है कि ये हम लोगों की सुविधा के लिए
ही किया जाता है. उस समय की प्रशासनिक औपचारिकताओं के चलते मोबाइल सहित बहुत सारा
सामान अन्दर ले जाना प्रतिबंधित सा. सबकुछ स्वीकारने-मानने के बाद भी हम अपनी छड़ी
पर तैयार नहीं हो पा रहे थे. वहां तैनात कुछ पुलिसवालों को अपनी तकलीफ के बारे में
बताया, अपने न चल पाने को लेकर समझाया मगर वे अपनी सहमति देने को तैयार नहीं हो
रहे थे. छड़ी के बजाय अपने मित्र के कंधे का सहारा लेना एक विकल्प हमारी ही तरफ से
रखा गया मगर कृत्रिम पैर का कोई विकल्प हम उनके सामने नहीं दे सके. समझ नहीं आ रहा
था कि आखिर घुटने के ऊपर से कटे एक पैर के बाद हम चलकर कैसे जा सकेंगे?
काफी देर की झिकझिक के बाद एक अन्य अधिकारी ने मन
बनाया पर तब तक हमारा मन इतना खिन्न हो चुका था कि सब कुछ रामलला पर ही छोड़ दिया.
सम्बंधित अधिकारी ने अपनी औपचारिकता को निभाते हुए हमारे ऊपर स्थिति को छोड़ते हुए
अन्दर जाने के लिए अपने उच्चाधिकारियों से बात करने की बात कही. मन में दर्शन करने
की इच्छा जैसे अचानक से मर गई थी. जिस ताजगी, उत्साह के साथ वहां तक पहुंचे थे वह
ठंडा पड़ चुका था. प्रशासनिक कार्यालय में बैठे हुए ही हमने सम्बंधित अधिकारी को
किसी भी उच्चाधिकारी से बात न करने की बात कहते हुए कहा कि "अब हम तभी आयेंगे,
जबकि रामलला चाहेंगे. हम या तो उनको भव्य स्वरूप में देखने आयेंगे या
तब जबकि हम हैलीकॉप्टर से उतरेंगे और आप लोग ही हमारी अगवानी करोगे." तब एक कटाक्ष
हुआ था कि भाईसाहब, राजनीति हो रही इस पर. ये मुद्दा कभी न सुलझेगा.
किसी समय युवा जोश में जब इस आन्दोलन से जुड़े थे तब भी विश्वास था, उस दिन जबकि
रामलला के द्वार पर खड़े थे और बिना दर्शन के वापस लौटने को तैयार थे तब भी मन में
विश्वास था. मन का विश्वास बना रहा और आज विश्वास की जीत हुई. अब न सही हैलीकॉप्टर
से पर भव्य स्वरूप निर्माण के बाद अवश्य ही जा सकेंगे.
उस
दिन हमारे मित्र डॉ० डी के सिंह भारी मन से अकेले दर्शन करने चले गये, हमारी जिद से. भारी मन से इसलिए क्योंकि वे अकेले दर्शन को जाना नहीं चाह
रहे थे. वैसे भी लगभग आधा घंटे चले प्रकरण के बाद मन से उत्साह ख़त्म हो चुका था.
बहरहाल, वे दर्शन करके लौट आये. हम अपनी बात पर विश्वास के साथ अडिग रहे. अब
निर्णय रामलला के पक्ष में आया है. मंदिर भी अपनी भव्यता के साथ बनेगा. अब हम उनके
साथ जायेंगे, हर्ष से, उत्साह से,
भव्य स्वरूप में.
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