बीते
दिनों से छुटकारा पाना आसान नहीं होता है. उन दिनों की बातें, उनकी यादें किसी न
किसी रूप में सामने आ ही जाती हैं. ये यादें कभी हँसाती हैं तो कभी रुलाती हैं.
दिल-दिमाग खूब कोशिश करें कि पुरानी बातों को याद न किया जाये मगर कोई न कोई घटना
ऐसी हो ही जाती है कि इन यादों से छुटकारा मिलना मुश्किल दिखाई देता है. जब अपनी
विगत चालीस वर्ष की ज़िन्दगी के कुछ पलों को कुछ सच्ची कुछ झूठी में माध्यम से आप
सबके सामने रखने बैठे थे तो उसके लेखन में सबसे बड़ी समस्या यही आ रही थी कि बीते
दिनों में से क्या छोड़ दिया जाये, क्या लिख दिया जाये. किसी एक घटना के सन्दर्भ
में लिखना शुरू करते तो उससे संदर्भित न जाने कितनी घटनाएँ सामने आ जातीं. कई बार
इन यादों की आती-जाती लहरों में डूबते-उतराते हुए भी मुस्कुराते रहते और कई बार
आंसुओं के सागर में डूब जाते. मुश्किल से किसी एक याद से पीछा छुड़ाकर आगे बढ़ने की
कोशिश करते तो आगे किसी मोड़ पर कोई दूसरी याद रास्ता रोके खड़ी होती दिखती. बहरहाल,
तमाम यादों को दरकिनार करते हुए, कई यादों के साथ हँसते-रोते अंततः कुछ सच्ची कुछ
झूठी को अंतिम रूप प्रदान करवा दिया.
यादें
यहीं तक सीमित नहीं रहीं. दिन यहीं तक आकर नहीं समाप्त हुए. इनको आगे बढ़ना था, आगे
बढ़कर आज भी हैरान-परेशान करने चले आते हैं. कभी अपने मित्रों से मुलाकात के दौरान,
कभी घर-परिवार में सबके साथ गपशप के दौरान, कभी किसी सामान के खोजने के दौरान किसी
पुरानी चीज के हाथ लग जाने पर, कभी पुराने खतों के हाथ में आ जाने के दौरान ऐसी
स्थिति सामने आ ही जाती है. यादों का ये सिलसिला न कभी थमता है और कभी थमेगा भी
नहीं. यादें ही वे क्षण हैं जो बिना किसी सूचना के जब चाहें चले आते हैं. इन यादों
के साये में व्यक्ति भटकने का काम भी करता है, आगे बढ़ने का भी काम करता है. एकबार
फिर इन्हीं यादों के साथ आगे बढ़ते हुए पुराने दिनों की सैर करने का मन है.
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