15 नवंबर 2019

लड़ना खुद से, जीतना-हारना भी खुद से


आज कुछ लिखने का मन नहीं हो रहा था किन्तु कल से ही दिमाग में, दिल में ऐसी उथल-पुथल मची हुई थी, जिसका निदान सिर्फ लिखने से ही हो सकता है. असल में अब डायरी लिखना बहुत लम्बे समय से बंद कर दिया है. बचपन में बाबा जी द्वारा ये आदत डाली गई थी, जो समय के साथ परिपक्व होती रही. डायरी लिखने का महत्त्व भी समझ आता रहा सो डायरी लेखन लगातार बना रहा. बीच-बीच में ऐसे पल भी आये जबकि डायरी लेखन ने जीवन में काफी उठापटक मचा दी. भावनाओं का, संबंधों का अतिक्रमण करते हुए कुछ लोगों द्वारा डायरी का पढ़ना हो गया और उसका अनावश्यक दुष्प्रचार करके हमारी अपनी भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई. बहरहाल, समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदलता रहा, डायरी लेखन की आदत छूट न सकी और समयांतराल के साथ-साथ यह आदत बार-बार उभरती रही. हर बार कोई न कोई कारण ऐसा बनता रहा कि इसे बीच-बीच में बंद करते रहना पड़ा. इसी बीच तकनीक से परिचय हुआ, ब्लॉग का आना हुआ और डायरी लेखन की आदत कागज से हटकर डिजिटल मंच पर आने लगी. ब्लॉग कहीं न कहीं डायरी के रूप में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया.


इधर बहुत लम्बे समय से ऐसा महसूस हो रहा है जैसे हम जीवन के विविध मंचों पर, तमाम आयामों पर असफल से होते जा रहे हैं. ऐसा नहीं कि जीवन के किसी मोड़ पर सफलता नहीं मिली हो मगर जिस तरह से असफलताओं का आना होता रहा, उसके हिसाब से सफलताएँ कम ही साथ आईं हैं. यदि एक सामान्य रूप से अपने जीवन का आकलन, विश्लेषण करने बैठ जाएँ तो असफलताओं का कैनवास बहुत बड़ा दिखाई देता है. विगत कुछ समय से अचानक ऐसी स्थितियों ने दिल-दिमाग पर जैसे कब्ज़ा सा कर लिया है. अपने आपका अपनी ही दृष्टि से मूल्यांकन किया जाता रहता है. कहाँ-कहाँ, किस-किस तरह की गलतियाँ हमारे द्वारा होती रहीं इनका विश्लेषण किया जाता रहता है. किस-किस गलती को सुधारा जा सकता है, कैसे सुधारा जा सकता है इसका भी आकलन किया जाता रहता है. भरसक प्रयास किया जाता है कि लगभग सभी गलतियों को सुधार दिया जाए. इसके बाद भी बहुत से कदम ऐसे हैं जिनको अब टाइम मशीन के द्वारा ही दोबारा पाया जा सकता है. उन कदमों के साथ हुई गलतियों को अब किसी भी रूप में सुधारा नहीं जा सकता है. ऐसे में लगता है कि उनका प्रायश्चित ही कर लिया जाए. यहाँ आकर भी सिर्फ खाली हाथ नजर आते हैं क्योंकि यह भी समय के चक्र में कहीं दूर हो चुकी स्थिति है.

फिलहाल तो आजकल अपने आपसे लड़ना हो रहा है. खुद से लड़ना, खुद से जीतना, खुद से हारना और फिर सबकुछ शून्य में विलीन होकर ज्यों का त्यों उसी अवस्था में दिखाई देने लगता है, जहाँ से लड़ना शुरू किया था. दिल-दिमाग लगाने के बाद भी हर एक स्थिति समझ से बाहर लगती नजर आती है. सबकुछ साथ होने के बाद भी साथ छूटता सा दिखाई देता है. हर गलती स्वीकारने के बाद भी, हर गलत कदम का प्रायश्चित करने के बाद भी गलतियाँ कम होने का नाम नहीं लेती हैं. तमाम सारी आदतों के बीच एक और आदत जो बाबा जी के द्वारा विकसित करवाई गई थी, रात को सोने के पहले दिन भर की गतिविधियों में से अच्छी और बुरी गतिविधियों का आकलन करना. अच्छी बातों को आगे करते रहने का संकल्प करना और बुरी बातों के लिए माफ़ी मांगते हुए आगे से न करने का वादा करना. हर रात उसी एक दिन की गतिविधियों के आकलन से शुरू होती है जो चलते-चलते अतीत तक पहुँच जाती है. अच्छी बातों के ऊपर गलत बातों का साया फैलता दिखाई देने लगता है. कब तक, कितनी बार, किस-किस से प्रायश्चित किया जाये? प्रत्यक्ष से, अप्रत्यक्ष से, चेतन से, अचेतन से, जीवित से, मृतक से न जाने किस-किस से ऐसा करना होता है, किया जा रहा है. इसके बाद भी खुद में हार जैसा, खुद में असफल होने जैसाएहसास बराबर बना रहता है. पता नहीं अन्दर से ऐसी कौन सी शक्ति विश्वास को बढाए रहती है, आत्मविश्वास को कमजोर नहीं होने देती है अन्यथा खुद के हार कर, टूट कर बिखरने में कोई कमी समझ नहीं आती है. पता नहीं कब तक ऐसा होता रहेगा?

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