बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में हुए अनेकानेक परिवर्तनों को देखते हुए ऐसा
माना जाने लगा था कि ज्ञान, विज्ञान, आधुनिकता, तकनीकी,
प्रौद्योगिकी, बौद्धिकता, स्वतंत्रता आदि के सन्दर्भ में
इक्कीसवीं सदी क्रांतिकारी सदी होगी. ऐसा बहुत हद तक हुआ भी. समाज ने इस सदी में
बहुत से बंधनों से स्वयं को मुक्त किया, विकास के अनेक नए
मानकों को प्राप्त किया. बावजूद इसके बहुत से क्षेत्र ऐसे रहे जिनको लेकर समाज की
सोच में बदलाव नगण्य रूप में देखने को मिला. दिव्यांगजनों के प्रति अभी भी समाज का
दृष्टिकोण सहानुभूति, दया दर्शाने वाला बना हुआ है. सभी
क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति को प्रदर्शित करने के बाद भी दिव्यांगजनों को कमजोर
कड़ी के रूप में देखा जाता है. इसके बाद भी दिव्यांगजनों ने अपने कार्यों, अपनी क्षमताओं, अपने आत्मबल के द्वारा लगातार स्वयं
को सिद्ध किया है. इस 20 दिसम्बर को जर्मनी की दिव्यांग इंजीनियर माइकला बेंथॉस ने
इतिहास रचते हुए नवीन उपलब्धि हासिल की है. जर्मन एयरोस्पेस इंजीनियर माइकला रॉकेट
पर उड़ान भरने वाली पैरालिसिस से ग्रस्त पहली इंसान बन गईं हैं.
दिव्यांग माइकला ने सबसे अलग हटते हुए अपना अलग रास्ता बनाया और खुद को अन्तरिक्ष
तक पहुँचा दिया. उन्होंने अमेरिका के वेस्ट टेक्सास से ब्लू ओरिजिन के न्यू शेपर्ड
रॉकेट से उड़ान भरी और अन्तरिक्ष में अपनी उपस्थिति के द्वारा दिव्यांगजनों की
जिजीविषा और क्षमता की उपस्थिति दर्ज की. व्हीलचेयर का प्रयोग करने वाली वे पहली व्यक्ति
बन गई हैं जिसने अन्तरिक्ष की उड़ान भरी. ब्लू ओरिजिन के एनएस-37 मिशन में 33 वर्षीया माइकला के साथ पाँच अन्य
यात्री भी शामिल थे. उड़ान भरने के बाद रॉकेट ने कर्मन रेखा को पार किया. यह रेखा अन्तरिक्ष की अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर मान्यता प्राप्त सीमा है, जो पृथ्वी की सतह से लगभग 100 किमी ऊपर है. इस
रेखा का नामकरण वैमानिकी और अन्तरिक्ष विज्ञान में सक्रिय इंजीनियर थियोडोर वॉन कर्मन
के नाम पर किया गया है. वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस ऊँचाई की गणना करते
हुए बताया था कि इस ऊँचाई पर वायुमंडल इतना पतला हो जाता है कि वहाँ हवाई उड़ान सम्भव
नहीं है.
आज से लगभग सात वर्ष पूर्व, 2018 में माइकला एक माउंटेन बाइक दुर्घटना में
घायल हो गईं थीं. उस दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी क्षतिग्रस्त होने के कारण वे कमर के
नीचे लकवाग्रस्त हो गई थीं. जिसके बाद उन्होंने व्हीलचेयर का इस्तेमाल करना शुरू कर
दिया था. इस दुर्घटना के बाद जब वे व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने लगीं तो उनको लगा था
कि उनका अन्तरिक्ष यात्री बनने का बचपन का सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा. व्हीलचेयर
पर अपने सारे काम करने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र
में काम करती रहीं. अन्तरिक्ष यात्रा करने के बचपन के सपने को पूरा करने के लिए
माइकला लगातार इसके लिए प्रयासरत भी रहीं और कार्य भी करती रहीं. इसके लिए उन्होंने
पैराबोलिक ज़ीरो-ग्रेविटी फ़्लाइट्स में हिस्सा लिया, जो भारहीनता (जीरो-ग्रेविटी) की नकल करती है. इसके अलावा उन्होंने पोलैंड
में व्हीलचेयर-एक्सेसिबल लूनारेस रिसर्च स्टेशन पर दो हफ़्ते के अनुरूप अन्तरिक्ष
यात्री (एनालॉग एस्ट्रोनॉट) मिशन के दौरान मिशन कमांडर के तौर पर काम भी किया. उनके
पास मानव अन्तरिक्ष उड़ान से जुड़ा काफी अनुभव भी है. वे एक जर्मन एयरोस्पेस और मेक्ट्रोनिक्स
इंजीनियर हैं जो अभी यूरोपियन स्पेस एजेंसी के साथ यंग ग्रेजुएट ट्रेनी के तौर पर जुड़ी हुई
हैं.
ब्लू ओरिजिन के न्यू शेपर्ड रॉकेट की यह यात्रा लगभग दस मिनट की रही. इस दौरान
यात्रियों ने भारहीनता अर्थात ज़ीरो-ग्रेविटी का अनुभव किया और पृथ्वी का अद्भुत नज़ारा
देखा. माइकला की इस स्वप्निल उड़ान के समय उनके साथ स्पेस एक्स के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी
हैंस कोएनिग्समैन भी थे, जिन्होंने
इस यात्रा को सम्भव बनाने में मदद की. इसके लिए रॉकेट में किसी तरह का व्यापक ढाँचागत
परिवर्तन नहीं करना पड़ा था. एक विशेष ट्रांसफर बोर्ड और माइकला की स्थिति के अनुकूल
कैप्सूल व्यवस्था के द्वारा उनको उड़ान के लिए तैयार किया गया. चूँकि माइकला
व्हीलचेयर का उपयोग करती हैं, ऐसे में उनको रॉकेट में चढ़ने के लिए तथा वहाँ अपनी सीट तक पहुँचने के
लिए एक विशेष ट्रांसफर बोर्ड का उपयोग किया गया. इस विशेष बोर्ड की सहायता से वे
अपनी व्हीलचेयर को धरती पर छोड़ खिसककर सीट पर बैठ सकीं. अपनी शारीरिक स्थिति के बावजूद
उन्होंने इस ऐतिहासिक उप-कक्षीय यात्रा में भाग लिया. उड़ान के दौरान उन्हें भारहीनता
का अनुभव हुआ.
अन्तरिक्ष से लौटने के बाद माइकला ने कहा कि यह उनके जीवन का सबसे शानदार अनुभव
था. कभी अपने सपनों को मत छोड़ो. दुनिया अभी भी दिव्यांगों के लिए पूरी तरह सुलभ नहीं
है. अभी भी और अधिक बदलावों की जरूरत है. उन्होंने अपील की कि दिव्यांगजनों के लिए
दुनिया को अधिक सुलभ बनाया जाये ताकि भविष्य में उनके जैसे और लोग भी अन्तरिक्ष की यात्रा कर सकें. इस मिशन में
उनका चयन इस बात का प्रमाण है कि शारीरिक अक्षमता सपनों के आड़े नहीं आ सकती. उनकी
इस ऐतिहासिक उड़ान से दिव्यांगों के लिए अन्तरिक्ष यात्रा के द्वार खुलने की एक शुरुआत
अवश्य हुई है. सम्भव है कि भविष्य में और भी दिव्यांग अन्तरिक्ष की यात्रा कर सकें.
यह भी सम्भव है कि अब समाज दिव्यांगजनों के प्रति अपनी संकीर्ण सोच को त्यागकर उन्हें
भी एक सामान्य इंसान की तरह से जानने-समझने का प्रयास करे.



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