महाराष्ट्र
में राजनीति के ऊँट ने कई बार इधर-उधर करवटें बदलते हुए अंततः उस तरह करवट ले ली,
जिस तरफ किसी ने सोचा न था. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने
के साथ ही एक ऐसा अध्याय जुड़ गया जो राजनीति की कल्पना में ही संभव कहा जायेगा. जैसा
कि कहा जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी शत्रु है और न ही कोई स्थायी मित्र
है, इसका वास्तविक उदाहरण महाराष्ट्र में हाल ही में देखने को भी मिला. पहले भाजपा
द्वारा एनसीपी के अजित पवार के साथ मिलकर दो-चार दिनों की सरकार बनाई गई और फिर
अचानक आये बदलाव में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की तिकड़ी ने सरकार बना डाली. राजनीति
में कब किसके साथ किसका गठबंधन हो जाये कहा नहीं जा सकता और इसके बारे में आश्चर्य
भी नहीं होना चाहिए क्योंकि अब राजनीति सामाजिक विकास का नहीं वरन स्व-विकास का
रास्ता बन गया है.
समझने
वाली बात है बाला साहब बाल ठाकरे के समय में महाराष्ट्र की जो राजनीति मातोश्री से
संचालित होती थी, वह अब वहाँ से बाहर निकल सड़कों पर तैरती दिख रही है. ऐसा इसलिए
हुआ क्योंकि बाला साहब ने कभी भी अपने लिए किसी पद की चाह नहीं की बल्कि वे लगातार
सत्ता का रिमोट अपने हाथ में लिए रहे. अब जबकि शिवसेना की कमान उद्धव ठाकरे के हाथ
में है तब उनके द्वारा हिंदुत्व या फिर अन्य मुद्दों की राजनीति के बजाय
स्वार्थ-पूर्ति की राजनीति की जाने लगी. ऐसा विगत कई वर्षों में लगातार देखने को
मिला जबकि केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी होने के बाद भी शिवसेना द्वारा प्रेशर
ग्रुप की तरह से काम किया गया. वर्तमान राजनीति में किसी तरह के सिद्धांत, आदर्श
देखने को नहीं मिल रहे हैं मगर अब देखना यह है कि महाराष्ट्र में इस तरह के बने नए
तरह से गठबंधन से किसे-किसे क्या लाभ होने वाले हैं और कौन-कौन कितने घाटे में
रहेगा. ऐसा विशेष रूप से भाजपा और शिवसेना के सम्बन्ध में कहा जा सकता है. देखना
होगा कि क्या शिवसेना बिना भाजपा के अपने चिर प्रतिद्वद्वियों के साथ समन्वय बना
पायेगी? इसके साथ ही यह देखना भी महत्त्वपूर्ण होगा कि क्या भाजपा अब बिना शिवसेना
के दवाब के अपने आपमें एक बड़ा स्थान महाराष्ट्र में बना सकेगी? किसके हिस्से लाभ
आया, किसके हिस्से हानि यह आने वाले कुछ दिनों में अपने आप सामने आ जायेगा.
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