12 अक्तूबर 2019

लोकोत्सव से दूर होता समाज : टेसू-झिंझिया


बुन्देलखण्ड के लोक आयोजन में टेसू और झिंझिया का खेल बच्चों द्वारा खेला जाता है. आश्विन शुक्ल अष्टमी से शरद पूर्णिमा तक टेसू तथा नवमी से चतुर्दशी तक झिंझिया खेली जाती है. टेसू का खेल बालकों द्वारा तथा झिंझिया का खेल बालिकाओं द्वारा खेला जाता है. बाँस की तीन डंडियों से बने एक ढाँचे को टेसू कहा जाता है, जिसको रंग-बिरंगे कागजों से सजाया जाता है. इसके सिर पर मुकुट लगाकर और हाथ में ढाल-तलवार लगाकर इसे एक वीर राजा जैसा स्वरूप दिया जाता है. इस खेल में लड़के टेसू के रंग-बिरंगे ढाँचे को लेकर घर-घर जाते हैं और टेसू-गीत गाते हुए धन की माँग करते हैं. बालकों द्वारा गाये जाने वाले ये गीत विनोदी होते हैं और कई बार महज तुकबंदी के रूप में प्रयुक्त होते हैं. अनर्थक, देशज शब्दों का प्रयोग कर इन बालकों का उद्देश्य गीत को लय देना और हास्य प्रदान करके धन की प्राप्ति करना होता है.
टेसू मेरा यहीं खड़ा, खाने को माँगे दही बड़ा,
दही बड़े में पन्नी, टेसू माँगे अठन्नी.

इसी तरह से लड़कियों द्वारा झिंझिया का खेल खेला जाता है. इसके लिए उनके द्वारा मिट्टी का छोटा घड़ा लिया जाता है, जिसमें अनेक छेद किये जाते हैं. इसके अंदर अनाज तथा उसके ऊपर जलता दीपक रख दिया जाता है. इसे ही झिंझिया कहा जाता है. इसमें बालिकाएँ झांझी से झांझी तेरो ब्याह रचाओं गीत गाती हुई नृत्य भी करती हैं. झिंझिया-नृत्य में बालिकाएँ गोलाकार खड़ी हो जाती हैं और केंद्र में एक बालिका नृत्य करती है. वृत्ताकार खड़ी बालिकाएँ तालियों की थाप के द्वारा नृत्य को गति प्रदान करती हैं. इसमें सभी बालिकाओं को बारी-बारी से एक-एक करके केंद्र में आकर नृत्य करना होता है. इस नृत्य की विशेष बात ये होती है कि केंद्र में नृत्य करती बालिका अपने सिर पर रखी हुई झिंझिया का संतुलन बनाये रहती है. यह नृत्य टेसू-झिंझिया विवाह के समय भी होता है जो बालिकाओं की प्रसन्नता को दर्शाता है. इस घड़े को लेकर किशोरियों द्वारा घर-घर जाकर दानस्वरूप धन अथवा या अनाज की माँग करती हैं. कई जगह बालिकाएँ अन्य गीत गाते हुए दान चाहती हैं. इस लोक आयोजन के अंत में शारदीय पूर्णिमा को टेसू और झिंझिया का विवाह संपन्न होता है.

दशहरा के पश्चात् ये दोनों लोक-आयोजन बच्चों द्वारा संपन्न किये जाते दिखाई देते हैं. इधर विगत कई वर्षों से ऐसे आयोजनों में बच्चों की, बालिकाओं की सहभागिता में जबरदस्त कमी आई है. तकनीकी के विकास ने जहाँ लोगों को मोबाइल में कैद करवा दिया है वहीं इस तरह के लोक-पर्वों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है. सामान्य परिवार के लोग भी अपने बच्चों को ऐसे आयोजनों में सहभागिता करने से रोकते हैं. इधर देखने में आ रहा है कि कुछ बच्चे टेसू लेकर आ रहे हैं, कुछ बच्चियाँ झिंझिया लेकर आ रही हैं मगर उनकी संख्या में कमी आई है. टेसू लेकर आने वालों में अब बच्चों का झुण्ड नहीं वरन एक-दो बच्चों का ही आना होता है. इसी तरह शाम के, रात के साए में चमकने वाली झिंझिया अब लगभग दिन जैसे उजाले में आने लगी है. इसके पीछे बच्चियों की असुरक्षा बहुत मायने रखती है. 

पिछले दो-तीन वर्षों में देखने में आया है कि ऐसे लोक-आयोजनों में अब क्षेत्रवासियों द्वारा रुचि नहीं ली जा रही है. आधुनिकता की चपेट में आने के चलते लोग अपनी संस्कृति, अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं. आर्थिक रूप से विपन्न परिवारों के बच्चे ही ऐसे आयोजनों को करते दिख रहे हैं. टेसू और झिंझिया लेकर निकले बालक-बालिकाओं से इस सम्बन्ध में चर्चा करने पर तमाम ऐसी बातें सामने आईं जो लोगों को ऐसे लोकोत्सवों से दूर कर रही हैं. लोगों के लिए ये लोकोत्सव नहीं वरन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के खेल हैं. समाज में जो लोग भी खुद को आर्थिक रूप से संपन्न समझने लगे हैं, अब वे अपने बच्चों को ऐसे आयोजनों से दूर रखने लगे हैं. सोचने वाली बात है कि अपनी संस्कृति से अलग होकर हम सभी किस समाज की संकल्पना तैयार करने में लगे हैं?

वर्तमान में भले ही ऐसे आयोजनों को नगरों में स्वीकार्यता नहीं मिल पा रही हो किन्तु बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों और छोटे कस्बों में आज भी ये लोक आयोजन पूरे उत्साह, धूमधाम से मनाये जाते हैं. अपनी संस्कृति को सुरक्षित, संवर्धित करने के लिए आवश्यक है कि नई पीढ़ी को इसकी जानकारी दी जाए और इसके आयोजन के लिए सक्रिय किया जाये, प्रोत्साहित किया जाये. यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो भविष्य में अनेक बुन्देली लोक कलाएँ विलुप्त होकर महज इतिहास बन जाएँगी.

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