हाल
ही में एक मामला संज्ञान में आया जो पुलिस से संदर्भित था. पुलिस का नाम सामने आते
ही पसीने छूट जाते हैं लोगों के, हमारे भी छूट जाते हैं. अक्सर हम अपने मित्रों से
कहते भी हैं कि हमारा और पुलिस का सम्बन्ध उतना ही है जितना हमारा और चंद्रमा का.
हम उसे देख सकते हैं, महसूस कर सकते मगर उसे छू नहीं सकते, वो भी हमें न देख सकता
है, न महसूस कर सकता है. बहरहाल, इस मामले में अनावश्यक रूप से तूल दिया गया. कई
बिन्दुओं पर लगा कि मामले को जबरिया आपराधिक मोड़ दिया जा रहा है. रात का समय था और
पुलिस के लोग भी जानते हैं कि एक समय विशेष के बाद आला अधिकारीयों से संपर्क न तो
फोन पर संभव होता है और न ही व्यक्तिगत रूप से. रात के मामले या तो निपट ही जाते
हैं या फिर वे सलाखों के भीतर रात गुजारने के साथ ही निपटते हैं. इधर ऐसा लग रहा
था जैसे सारी प्लानिंग पहले से कर रखी गई हो. दोषी कोई और मगर पकड़ा किसी और को.
किसी तरह से कोई हस्तक्षेप न हो सके इसलिए एक संवेदनशील कहानी जोड़ी गई. निर्दोष मामले
को संवेदनशील बनाने और राजनैतिक हस्तक्षेप रोकने के लिए मामले को लड़की छेड़ने से जोड़
दिया गया. लड़की कौन, ये उनको भी न पता था जो मामले की पैरवी
कर निर्दोषों को फँसाने में लगे थे.
एक
बार मामला पुलिस के पक्ष में आया कि दोनों तरफ से अपनी-अपनी कवायद शुरू हुई. खाकी
के पास असीमित कानूनी अधिकार और जनता के पास उसके चुने हुए प्रतिनिधियों का सहारा.
यहाँ समस्या और विकत थी. प्रशासन के आला अधिकारी या तो सोये हुए थे या फिर उनके
मोबाइल को उन तक पहुँचाया ही नहीं गया. अब ले-देकर मामला जनप्रतिनिधियों तक
पहुँचाने का समझ आया. यहाँ स्थिति तो बद से बदतर निकली. सत्ता पक्ष के एड़ी से चोटी
तक के नेतागीरी करने वालों को, जनप्रतिनिधि कहलाने वालों को,
प्रतिनिधि कहलाने वालों को, पदाधिकारी कहने वालों
को सिसियाते-मिमियाते देखा. बजाय निर्दोष लोगों की पैरवी करने के वे लोग भी खाकी
की कहानी में अपना सिर मटकाते नजर आये. ऐसी घटना जो हुई न हो, ऐसी बात जिसका कोई
ओर-छोर न हो उस पर भी जनप्रतिनिधि किसी तरह से अपनी बात को मजबूती के साथ नहीं रख
सके. मामला हाथ से सरकता हुआ वापस फिर जनता के हाथ आ गया. निर्दोष व्यक्तियों के
परिवारों के पास आ गया. रात करवटें बदलते रहने के अलावा कोई काम न था क्योंकि चुने
हुए प्रतिनिधि सुनी-सुनाई, बनी-बनाई कहानी को सुनकर मस्त-मगन लेटे थे.
ऐसी
घटना जो हुई ही नहीं, जिसका कोई प्रमाण नहीं, जिसका कोई गवाह नहीं उसमें भी सत्ताधारी कुर्तेबाज़ बस हाथों की कठपुतली बने
नज़र आए. बात जहाँ से शुरू हुई थी वहीं पहुँच गई. अपना-अपना शेयर सेट करने के
माहिर लोगों ने किसी तरह से अपना दायित्व न निभाया. वोट लेने के समय चरणों में
लोटने वाले वही चरण सम्बंधित पक्ष के सिर पर मारते समझ आये. अंततः जिसका डर था वही
हुआ. बातचीत के सारे रास्ते बंद करते हुए कानूनी रास्ता न चाहते हुए भी अपनाना
पड़ा. एक ऐसी गलती की सजा मानने को मजबूर करना पड़ा जो किसी ने की ही नहीं. फ़िलहाल
तो पूरी रात और पूरे दिन के बाद घटनाक्रम एक बिंदु पर आकर रुका मगर सबकी असलियत
सामने आ गई. अब बड़ी-बड़ी गाड़ियों की बड़ी-बड़ी नेम प्लेट्स और हूटर की हनक में सड़कों,
विभागों में तैरते इन (अ)राजनेताओं को प्रत्यक्ष मिलकर नमन किया जाएगा,
किसी दिन.
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