शारीरिक
संरचना में दिल जितना छोटा है, व्यक्ति उसे लेकर उतना ज्यादा ही परेशान है.
संबंधों को, रिश्तों को, आपसी ताने-बाने को वह दिल के सन्दर्भ में तौलना शुरू कर
देता है. दिल के साथ-साथ देह में एक दिमाग भी होता है. वैज्ञानिक रूप में और
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दिमागी संरचना दिल से कहीं अधिक जटिल होती है. इसके
साथ-साथ दिल की क्रियाविधि की तुलना में दिमाग कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहता है. दिल
और दिमाग की क्रियाविधि के बारे में यदि संक्षेप में कहा जाये तो एक का सम्बन्ध
भावनात्मकता से होता है, एक का सम्बन्ध पूरी तरह से गणितीय विधि पर आधारित होता
है. दिल जहाँ किसी भी स्थिति के लिए अपनी भावनाओं पर अंकुश नहीं लगा पाता है वहीं
दिमाग उसी घटना पर पूरी विवेचना करने के बाद ही आगे के लिए निर्णय लेता है.
यहाँ
समझना होगा कि न तो दिल और न ही दिमाग खुद में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में
सक्षम नहीं होता है. वे किसी भी स्थिति में सिर्फ और सिर्फ व्यक्ति की भावनाओं के
द्वारा संचालित होते हैं, उसी व्यक्ति के निर्णय के अनुसार अपना काम करते हैं.
इसके बाद भी दिल को भावना का और दिमाग को संतुलन का पर्याय बताया जाने लगता है. अक्सर
प्रेमपरक मामलों में दिल को सबसे कोमल मानकर उसी के निर्णयों पर व्यक्ति अपनी राय
बनाता है. सोचने वाली बात है कि आज तक किसका दिल उसके शरीर से निकल कर दूसरे के
शरीर में चला गया? किसका दिल प्रेम में किसी दूसरे के हाथों में सजा दिखाई दिया?
प्रेम में नाकाम रहने पर किसके दिल में छेद हुए, किसके दिल के टुकड़े हुए? किसका
दिल कई-कई टुकड़ों में ज़ख़्मी मिला? ऐसा आजतक तो किसी के साथ नहीं हुआ, न ही किसी के
दिल के साथ हुआ. इसके बाद भी प्रेम में दिल चला जाता है, दिल टूट जाता है, दिल के
टुकड़े हो जाते हैं. क्या ऐसा कभी दिमाग के साथ होता है? जबकि यह सारा कुछ किया-धरा
दिमाग का ही होता है.
सोचने
वाली बात है कि आजतक किसी धनवान को किसी बीमार, अत्यंत गरीब से प्रेम न हुआ. आजतक
किसी का अत्यंत अमीर का दिल किसी सड़क पर टहलते किसी गरीब से न लगा. दिल किसी तरह
का भेद नहीं रखता है यह सही हो सकता है मगर क्या किसी दिलवाले या दिलवाली ने अपनी
गली में आये किसी भिखारी से प्रेम किया? उसके साथ विवाह करने की जिद की? यदि
प्रेम, प्यार, इश्क जैसी स्थितियाँ सिर्फ दिल की उपज हैं तो ऐसा होना चाहिए मगर
ऐसा नहीं हुआ. कहीं न कहीं यहाँ भी दिमाग ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया. दिल पर
दिमाग हावी हुआ और उसी के हिसाब से दिल संचालित हुआ. इसमें भी दिल, दिमाग से ऊपर
उस व्यक्ति के निर्णय ने, उसके विवेक ने अपनी भूमिका निभाई जो दिल-दिमाग के कारण
प्रेम, इश्क जैसी स्थिति में उलझने वाला था. ऐसी स्थिति में कहाँ दिल और कहाँ
दिमाग? ये सारी की सारी स्थितियाँ सिर्फ और सिर्फ व्यक्ति के अपने मन से संचालित
हैं. उसके विवेक पर आधारित हैं. अपनी और सामने वाले की पद, प्रस्थिति के अनुसार
उसका दिल, दिमाग काम करना शुरू करता है और उसी के हिसाब से वह प्रेम करता है, इश्क
करता है. हाँ, अपवादों का स्थान सदैव इस समाज में रहा है, यहाँ भी है.
आज
के और बीती पीढ़ी के युवाओं से एक बात स्पष्ट रूप से कि प्रेम और इश्क जैसी अवधारणा
दिल को खुश करने का माध्यम है न कि दिमाग को. दिमाग सारा गणित सही-गलत के रूप में,
लाभ-हानि के रूप में लगाता है और उसी के हिसाब से काम करता है. कभी-कभी ऐसे निर्णयों
में व्यक्ति के निर्णयों में दिल-दिमाग का संतुलन न बन पाने का खामियाजा सिर्फ
व्यक्ति को निभाना पड़ता है. चाहे उस व्यक्ति के साथ अच्छा हो या बुरा, दोनों ही
स्थितियों में दिल और दिमाग उसके शरीर में उसी जगह रहते हैं, जहाँ उसके जन्म लेते
समय थे. ऐसे में न तो दिल कहीं जाता है, न कोई चुरा ले जाता है, न दिल के हजार
टुकड़े होते हैं, न दिल टूटता है और इसी तरह न दिमाग ख़राब होता है, न दिमाग घूमता
है, न दिमाग पगलाता है. जो करता है वह संदर्भित व्यक्ति करता है और सबकुछ अपने
विवेक से करता है. हाँ, आलंकारिक दृष्टि में वह कभी इसे दिल का, कभी दिमाग का मसला
बताने लगता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें