22 अप्रैल 2019

ये रिश्ता पल दो पल का नहीं है....


दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो अनाम सम्बन्ध के द्वारा सदैव आगे बढ़ता रहता है. ये हमारी खुशकिस्मती ही है कि हमें दोस्तों का, सच्चे दोस्तों का, भरोसेमंद दोस्तों का साथ खूब मिला है. ख़ुशी में भी दोस्त हमारे साथ रहे हैं और मुश्किल में तो और भी ज्यादा साथ आये हैं. उस समय भी ऐसी ही मुश्किल घड़ी थी पूरे परिवार के सामने. ट्रेन से दुर्घटना, एक पैर का स्टेशन पर ही कट जाना, दूसरे पैर का बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाना. घायल होने के बाद भी दिमाग में परिजनों के चेहरे उभरते. स्टेशन पर लगा कि एक और बुरी खबर घर पहुँचेगी फिर घर की स्थिति दिमाग में आते ही आत्मविश्वास के सहारे उस शाम की परेशानी से लड़ने का मन बनाया. घर में सिर्फ चाचा को खबर की और कानपुर अपने जीजा जी श्री रामकरन सिंह को. रास्ते में भागती कार के साथ अपने चिकित्सक मित्र रवि को फोन करके पूरी स्थिति से अवगत कराया. दुर्घटना के पहले दिन से लेकर आज तक हमारे पैर की छोटी से छोटी समस्या से लेकर बड़ी से बड़ी परेशानी का इलाज सिर्फ और सिर्फ रवि के द्वारा ही होता है.


उस समय तो ऐसी स्थिति थी नहीं कि कोई कुछ कहता-सुनता बाद में जिसने भी सुना उसने आश्चर्य जताया कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी हमने रवि पर विश्वास किया, उसको इलाज के लिए आगे किया. ये विश्वास किसी डॉक्टर से अधिक अपने दोस्त पर था. वो दोस्त जिसके साथ बचपन गुजरा, जिसके साथ झगड़े भी हुए, जिसके साथ खेले-कूदे भी, जिसके साथ पढ़ाई की, जिसके साथ हँसी-मजाक किया. विश्वास था कि वो दोस्त जो अब डॉक्टर है वो हमारे साथ गलत नहीं होने देगा. दोस्ती का, दोस्त का विश्वास ही है कि हम आज चल पा रहे हैं. दुर्घटना वाली शाम जो कानपुर पहुँचते-पहुँचते रात में बदल गई थी. रवि के कारण हॉस्पिटल में सारी व्यवस्थायें पहले से तत्परता से काम करने में लगी थी. ऑपरेशन थियेटर का दृश्य आज भी दिमाग में कौंधता है. रवि से अपने कटे पैर को ऑपरेशन करके लगाने की बात कहना, उसका कहना कि तुमको चलाने से ज्यादा हमारे लिए जरूरी है तुमको बचाना. उरई से कानपुर पहुँचने के दौरान किसी के पल को भी नहीं लगा कि साँस थमेगी. उसी विश्वास को बल मिला रवि से बात करके. संभव है कि उस समय उसके साथ के अन्य सहायकों को हमारी बातें बेहोशी की या फिर दुर्घटना से बदहवास स्थिति की उपज लग रही हों मगर ऐसा नहीं था. वे सारी बातें आज भी हमारे मन-मष्तिष्क में ज्यों कि त्यों हैं. स्पाइनल कॉर्ड के जरिये इंजेक्शन लगाकर आगे का इलाज होना था. उसके पहले की तमाम बातें हम रवि से कर लेना चाहते थे क्योंकि एक वही ऐसा दिख रहा था जिससे दिल की सभी बातें की जा सकती थीं.

उस रात शुरू हुआ इलाज कितनी-कितनी बार ऑपरेशन टेबल से गुजरा. न जाने कितने-कितने इंजेक्शन रवि की निगरानी में, मुस्तैद निगाहों के बीच से गुजर कर हमारे शरीर में लगे. ऑपरेशन थियेटर में बिना रवि के किसी का एक कदम भी हमारी तरफ न बढ़ता. बेहोशी का इंजेक्शन बहुत देर असरकारी न रहता और रवि बहुत ज्यादा डोज देना नहीं चाहता था. ऐसे में चीखते-चिल्लाते उसकी हथेलियों का स्पर्श जैसे दर्द को कम कर देता था. उसका आश्चर्य भरा एक सवाल बार-बार होता कि क्यों बे, क्या कोई नशा करते हो? हर बार मुस्कुराकर हमारा इंकार होता और उसका भी इंकार इस रूप में कि तुम झूठ बोल रहे हो. पता नहीं संसार को संचालित करने वाली परम सत्ता हमारी आंतरिक शक्ति का इम्तिहान ले रही थी या फिर भविष्य के दर्द सहने की आदत डलवा रही थी जो कुछ मिनटों की संज्ञाशून्यता के बाद फिर होशोहवास में ला देती थी. इलाज के दौरान न जाने कितनी बार बहुत छोटी सी लापरवाही पर हॉस्पिटल के स्टाफ को डांट उसके द्वारा पड़ी. रवि ने खुद न जाने कितने-कितने डॉक्टर्स से संपर्क किया, अपने कई सीनियर्स को बुलाकर उनसे सलाह ली मगर हमें एक दिन को भी अकेला न छोड़ा. क्या दिन, क्या रात, क्या सुबह, क्या शाम, क्या व्यक्तिगत आकर, क्या फोन से जैसे चाहे वैसे उसने अपने आपको हमारे आसपास बनाये रखा.

हॉस्पिटल में ऐसा लग रहा था कि जितनी जल्दी हमें ठीक होने की थी, उससे कहीं ज्यादा जल्दी रवि को हमारी रिकवरी की थी. आईसीयू के पहले दिन से ही उसकी कोशिश ऐसी दिखी, तभी रविवार को ऑपरेशन थियेटर बंद होने के बाद भी घंटों चलने वाली ड्रेसिंग टाली नहीं गई, आईसीयू को उसने अपनी जिद में ऑपरेशन थियेटर में बदलवा दिया. रविवार को खाने के बारे में पूछने पर हमने कहा कि चिकन खाना है. खा लोगे, के उसके सवाल पर हमारी हाँ सुनकर उसने तुरंत इंतजाम करवाया. दोपहर बाद किसी तरह की तकलीफ न होती देख वह उसी दोस्ताना अंदाज में मौज लेते हुए बोला, ठीक तो हो बे, काहे पड़े हो अब यहाँ आईसीयू में. आज रात ऑपरेशन बाद शिफ्ट करते हैं तुमको. वह हमारी रिकवरी के लिए प्रयासरत रहता और हम अपनी आंतरिक शक्ति को, आत्मविश्वास को और बढ़ाने की कोशिश में रहते. हर दिन कुछ न कुछ सुधारात्मक स्थिति को अपनाया जाता. न जाने कितनी बार ऑपरेशन थियेटर ले जाया जाता, न जाने कितनी बार सर्जरी की जाती, न जाने कितनी बार अन्य दूसरे तरीके अपनाये जाते. एक महीने हॉस्पिटल और फिर दो माह मामा जी के यहाँ रुकने के दौरान रवि की उपस्थिति बराबर रही. हर बार वह एक दोस्त की तरह उसी अंदाज में मिलता. हम दोनों के बीच वही नोंक-झोंक चलती रहती, हँसी-मजाक होता रहता. इन सबके बीच एक-एक पहलू पर गंभीरता से निगाह रहती उसकी. एक-एक स्थिति पर सतर्कता दिखाई देती. अंततः तीन महीने के कानपुर चिकित्सकीय प्रवास के बाद उरई आने के पहले रवि ने एक पैर पर सहारा देकर खड़ा करवा ही दिया. न कोई चक्कर, न कोई कमजोरी, न कोई परेशानी. 

उरई आने के बाद भी उसका संपर्क बराबर बना हुआ था. क्या, कैसे और बेहतर हो सकता है, इस बारे में भी उसकी चिंता दिखाई देती. एक साल बाद कृत्रिम पैर लगवाने में भी उसकी राय को वरीयता दी गई. कानपुर एलिम्को की मदद से कृत्रिम पैर के द्वारा चलना शुरू किया गया. दर्द, समस्या, परेशानी, दाहिने पंजे से हड्डियों के टुकड़ों का बाहर निकल आना, ऑपरेशन, ड्रेसिंग, इलाज आदि से मुक्ति अभी भी न मिल सकी थी. रवि को भी मुक्ति न मिली थी. आज स्थिति में बहुत सुधार है. अब पंजे की हड्डियाँ टूटकर बाहर नहीं आती. दुर्घटना के चौदह साल गुजर जाने के बाद भी दाहिने पंजे, उँगलियों में दर्द एक सेकेण्ड को भी बंद न हुआ है. दर्द की तीव्रता से ध्यान हटाकर अपने काम पर लगा दिया है इसके बाद भी पैर की समस्याओं का समाधान रवि ही बनता है. इसके बाद भी मिलने पर उसको हम दोस्तों की टीका-टिप्पणी हमसे ही सुननी पड़ती है कि अबे, आता भी कुछ या ऐसे ही डॉक्टरी दिखाते फिरते हो? काश! ये दोस्ती हर जन्म में मिले, सबको मिले.




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