कहते
हैं कि दुःख-दर्द को बहुत दिनों तक याद नहीं रखना चाहिए. जीवन में घटित होने वाली
कष्टकारी घटनाओं को भी भुला कर आगे बढ़ना चाहिए. जीवन का फलसफा यही होना चाहिए, इसी
में ज़िन्दगी का सार भी है. सभी के जीवन में अच्छे-बुरे पलों का आना होता है,
सुखद-दुखद घटनाओं का आना होता है. ऐसे में न चाहते हुए भी ऐसी घटनाओं को, ऐसी
बातों को व्यक्ति भुला नहीं पाता है जिनके कारण उसे कष्ट हुआ हो, जिन घटनाओं से
उसे दर्द मिला हो. इसके बाद भी ऐसी बातों को भूलने की कोशिश करते हुए इन्सान आगे
बढ़ता ही रहता है. ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जबकि कोई व्यक्ति अपने कष्टों को अपने
साथ लेकर आगे बढ़ता रहता हो. ऐसा भी लगभग न के बराबर देखने को मिलता है जबकि वह
सुखद पलों में अपने कष्टों का आरोपण करके सुख की अनुभूति करता हो. कष्टों को,
दुखों को भूलना-भुलाना भले ही व्यक्ति के हाथों में हो, उसके वश में हो इसके बाद
भी अनेक स्थितियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें वह चाहकर भी भुला नहीं पाता है. ऐसा किसी
और के साथ नहीं स्वयं हमारे साथ है.
ज़िन्दगी
में कई तरह के दुःख देखने को मिले. कई तरह के कष्टों से सामना होता रहा. सामाजिक,
पारिवारिक जीवन में ऐसी अनेक स्थितियाँ सामने आईं जिन्होंने सिवाय कष्ट के और कुछ
नहीं दिया. ऐसी स्थितियों को, क्षणों को भुलाते हुए हर बार आगे बढ़ते रहे. पारिवारिक
सदस्यों का हमेशा-हमेशा को छोड़कर चले जाना कष्टकारी एहसास देता है. मित्रों का,
सहयोगियों का, परिजनों का, अपनों का कई बार साथ न मिलना भी कष्ट देता है. ज़िन्दगी की
आपाधापी में हम भी लगे हुए हैं, पारिवारिक संरचना के अनुसार हम
भी सक्रियता बनाये हुए हैं. ऐसे में समय-असमय मिलती परेशानियाँ, कष्ट, दुःख समय के
साथ-साथ धुंधले पड़ते जाते हैं, दिल-दिमाग से विस्मृत होते जाते हैं. ऐसी ही तमाम सारी
परेशानियों के बीच एक कष्ट ऐसा मिला जो चाहते हुए भी भुलाया नहीं जा सकता है. यह
कष्ट खुद का एक ट्रेन दुर्घटना में घायल होना रहा. कह सकते हैं कि 22 अप्रैल 2005 को पुनर्जन्म ही हुआ हमारा. उस एक घटना
ने तत्क्षण जो कष्ट दिए, आने वाले महीनों में जो कष्ट दिए उनसे निपटना होता रहा. इसके
बाद भी रोज ही, हर पल ही वह दिन याद आता है, उस दिन के साथ मिला कष्ट याद आता है.
लाख कोशिश करते हैं, लाख लोगों का कहना मानने की सोचते हैं मगर हर बार असफल रहते
हैं.
आखिर
कैसे भुला दें उस कष्ट को जो सुबह आँख खुलने के साथ हमारे साथ अपनी आँखें खोलता
है? कैसे भुला दें कृत्रिम पैर पहनते समय कि कोई दुर्घटना हमारे साथ नहीं हुई?
कैसे भुला दें बिस्तर छोड़ने से पहले क्षतिग्रस्त पंजे की मालिश करके उसके सहारे
खड़े होने की स्थिति बनाते समय कि कहीं कोई दर्द नहीं है? कैसे भूल जाएँ कि कोई
दर्द नहीं है जबकि पंजे में बिना पट्टी बांधे एक कदम चलना मुश्किल है? कैसे भूल
जाएँ पिछले चौदह साल में एक सेकेण्ड को भी बंद न हुए दर्द के कारण कि शरीर
कष्टमुक्त है? कैसे भूल जाएँ कमर में बंधी बेल्ट के दर्द से छिलती देह के बीच कि
उस दिन की दुर्घटना ने तन-मन को छील कर रख दिया है? कैसे भुला दें कृत्रिम पैर के
बोझ और हाथ में पकड़ी छड़ी के साथ कि कभी हम भी एथलेटिक्स में भाग लिया करते थे? कैसे
भुला दें देर रात सोने से पहले कृत्रिम पैर को, पंजे की पट्टी को उतारने के बाद पैर-पंजे
में आई सूजन को मालिश से सामान्य करते समय कि उस दुर्घटना से कष्ट नहीं उपजा है?
हाँ,
फिर भी सबकुछ याद रखते हुए भी, सबकुछ याद आते हुए भी सबकुछ भुलाना भी है, सबकुछ
भुलाते भी हैं. एक बंधी-बंधाई सी मशीनी दिनचर्या की तरह पंजे की मालिश, कृत्रिम
पैर का पहनना, पट्टी बांधना, दर्द को भुलाते हुए आगे बढ़ना होता ही है. ऐसा नियमित
ही होता है. दर्द अपनी तीव्रता के साथ अपना काम करता है, हम अपनी जीवटता के सहारे
अपना काम करते हैं. किसी दिन दर्द जीत जाता है, किसी दिन हम जीतने का एहसास कर
लेते हैं. किसी दिन रिश्ते ज़ख्म को हम भुलाते हुए उसमे मीठा एहसास पैदा करने की
कोशिश करते हैं, किसी दिन वही ज़ख्म दोस्त बनकर स्वतः खामोश एहसास जगाने लगता है.
दर्द, जलन, सूजन, कष्ट के बीच कहना आसान है कि सबकुछ भुलाकर आगे बढ़ा जाए मगर जब
कुछ ऐसा जो आपका न होकर भी आपके साथ जुड़ जाए, कुछ ऐसा जिसके बिना आपका एक कदम आगे
बढ़ाना संभव न हो तब सबकुछ भुलाया जा सकता है, बस यही सबकुछ नहीं भुलाया जा सकता
है. इसी सबकुछ को याद रखते हुए, इसी सबकुछ को भुलाते रहते हैं, खुद भुलावे में
रहते हैं.
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