अपनों
तक अपनी बात कहने और ग़ैरों तक अपनी बात कहने के बीच के अंतर को समझना आवश्यक होता
है. कई बार समय ऐसे हालात पैदा कर देता है कि व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता
है. दो व्यक्तियों के बीच के तालमेल को या फिर उनमें पैदा हुए अविश्वास को कोई और
नहीं समय पैदा करता है. क्या वाकई ऐसा होता है? क्या वाकई ऐसा ही होता है? क्या
सिर्फ समय ही ऐसा होता है जिसके चलते व्यक्ति कुछ कर नहीं पाता है या फिर करने में
असमर्थ रहता है? सबसे पहले समझना होगा कि समय आखिर है क्या? क्या समय वही है जो
किसी घड़ी के माध्यम से गुजर रहा है? क्या ये समय वही है जिसके चलते किसी व्यक्ति
की उम्र बढ़ रही है? या फिर समय एक परिस्थिति है, एक स्थिति है, एक सोच है जिसके
द्वारा कोई भी इन्सान कुछ करने के लिए तत्पर रहता है. असल सच यही है. समय तो किसी
भी इन्सान के द्वारा अपनी स्थिति से सामंजस्य बनाए रखने का माध्यम है जबकि असल में
स्थिति ही किसी इन्सान के कार्यों के सञ्चालन की जिम्मेवार होती है.
हालातों
का पैदा होना, चाहे वे सही हों या फिर गलत हों उनका होना किसी समय के अंतर्गत नहीं
बल्कि उसी हालात के पार्श्व में पैदा की गई परिस्थिति से होता है. परिस्थितियाँ ही
किसी व्यक्ति को सही गलत के लिए उकसाती हैं. स्थितियाँ ही किसी व्यक्ति के कुछ
करने या न करने के लिए प्रेरित करती हैं. ऐसे में जबकि किसी स्थिति के चलते सबकुछ
सामान्य सा हो जाये, सबकुछ खुशनुमा हो जाये, सबकुछ सुखद हो जाये तो समय उसी
व्यक्ति के पक्ष में खड़ा दिखाई देने लगता है. और इसके उलट यदि सबकुछ नकारात्मक हो
जाये तो वही समय उस व्यक्ति के विरोध में खड़ा दिखाई पड़ता है. सोचिये इसी बिंदु पर
आकर कि व्यक्ति एक है, समय भी वही एक है तो फिर स्थितियों के नकारात्मक, सकारात्मक
होने पर वही समय जिम्मेवार कैसे? स्पष्ट है कि अपने आपको संतुष्टि का भाव देने के
लिए, खुद के द्वारा पैदा किये गए हालातों का दोष अपने सिर आने से बचने के लिए
इन्सान समय को कटघरे में खड़ा कर देता है.
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