13 अप्रैल 2019

डाइनिंग टेबल की सत्ता और संस्कृति


इधर बहुत लम्बे समय से कुछ पढ़ा नहीं जा रहा था. कुछ अजीब तरह की व्यस्तताएँ अनावश्यक रूप से घेरे हुए थीं. कुछ ऐसा भी इन दिनों हुआ कि खुद आलस्य के साथ दोस्ती कर ली थी. इसके अलावा चुनावी माहौल आने के चलते होने वाली खुद बुलाई व्यस्तता के साथ-साथ सोशल मीडिया की गैर-जरूरी उठापटक में भी फँसे हुए थे. इन तमाम सारे कारणों या कहें बहानों के बीच तमाम सारे काम हो रहे थे बस कुछ पढ़ना नहीं हो पा रहा था. मोबाइल पर पढ़ने की आदत तो लगभग न के बराबर है. हमारे भतीजे द्वारा सादर दिया गया किंडल अस्त्र भी पढ़ाये रखने को कारगर होता नहीं लग रहा था. लैपटॉप भी बहुत ज्यादा आकर्षित नहीं कर पा रहा था कि उस पर ही कुछ पढ़ा जाए. ऐसे में खुद अपने से लड़ते हुए आखिरकार जिला पुस्तकालय जाकर दो-चार नई किताबों को तलाशा गया, नई इस रूप में, जिन्हें हमने पढ़ न रखा हो. इनमें से एक पुस्तक हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा दशद्वार से सोपान तक को पढ़ना शुरू किया. इसका कवर देखते ही उस एक प्रकाशक की मूर्खता पर हँसी आई जिसका कहना था कि किसी साहित्यकार की आत्मकथा में उसका चित्र कवर पेज पर नहीं होता है. ऐसा उसने इस सन्दर्भ में कहा था क्योंकि हमने खुद की आत्मकथा में कवर पेज पर अपना चित्र प्रकाशित करने की शर्त रखी थी. अंततः इसी कारण वो प्रकाशक एक बड़ी आत्मकथा प्रकाशित करने से चूक गया.

बहरहाल, बच्चन जी की आत्मकथा दशद्वार से सोपान तक पढ़ने के दौरान एक जगह उनकी एकबात पर विशेष रूप से ध्यान गया. उनके द्वारा महाभारत का सन्दर्भ देते हुए खाना खाने की मेज पर बैठने सम्बन्धी स्थिति के बारे में लिखा गया है. उनकी बात के अनुसार अमिताभ के आवास प्रतीक्षा में खाना खाने की गोल मेज है. जिसमें उन्होंने सहज ही अपनी-अपनी जगह चुन ली और रोज उसी पर बैठने लगे. इस बैठने सम्बन्धी दिशा का जिक्र उन्होंने महाभारत के सन्दर्भ में किया. उसका यहाँ कोई अर्थ नहीं, यहाँ सन्दर्भ इसका कि बहुतायत घरों में जहाँ खाना खाने की मेज का उपयोग किया जाता है वहाँ पारिवारिक सदस्यों के बैठने की जगह निर्धारित सी हो जाती है. ऐसा कुछ अमिताभ बच्चन की एक फिल्म बागवान में भी दिखाया गया है.

हो सकता है कि खाने की मेज का चलन आने पर ऐसा किसी सामाजिक स्थिति के कारण किया गया हो या फिर पारिवारिक स्थिति के पद, उम्र, अनुभव, रिश्ते, सम्बन्ध आदि के चलते ऐसा किया गया हो. इस बैठक व्यवस्था के पीछे का मूल बिंदु क्या है, यह अलग शोध का विषय हो सकता है, जिस पर यद्यपि अभी हमारी कोई रुचि नहीं. जहाँ-जहाँ हमने खाने की मेज पर बैठने की पारिवारिक व्यवस्था देखी वहाँ उम्र के साथ-साथ प्रस्थिति का भी ख्याल किया गया. इसे भी घर-परिवार में किसी एक व्यक्ति के प्रति सम्मान भाव भी कहा जा सकता है साथ ही इसे उसके प्रति सत्तासीन होने के भाव की आवृत्ति पैदा करना भी हो सकता है. जो व्यक्ति परिवार में सम्मान का पात्र है उसे सम्मान मिलता ही है फिर खाने की मेज पर उसकी बैठकी को लेकर इतनी सजगता क्यों? कभी लगता है कि खाने की मेज भी एक तरह से राजशाही जैसा वातावरण पैदा करती है. सबके हिसाब से सबकी जगह का निर्धारण किया जाना और निर्धारण पश्चात् उसका उसकी जगह पर ही बैठना. संभव है कि कभी जगह का परिवर्तन होने पर परिवारों में फ़िल्मी नौटंकी न होती हो मगर बहुतेरे घरों में इस बैठकी को लेकर एक तरह की सुरक्षात्मक सावधानी बरतते अवश्य देखा गया है. कुछ घरों में हमने स्वयं ऐसा होते देखा है, जहाँ पारिवारिक सदस्य की प्रस्थिति के अनुसार उसकी सीट का निर्धारण हो जाता है. आखिर ऐसा क्यों? क्या खाने की मेज पर बैठना भी व्यक्ति की प्रस्थिति का परिचायक है? क्या खाने की मेज पर बैठक व्यवस्था भी किसी शासन-सत्ता जैसी व्यवस्था का सूचक है? कहीं खाने की मेज पर बैठक व्यवस्था किसी विशेष व्यक्ति के अधिकारों को तो प्रदर्शित नहीं करती? 

चूँकि अभी तक हम लोगों द्वारा खाने की मेज का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है. कतिपय कारणों से अब जमीन पर बैठकर भोजन करना असंभव हो गया है अन्यथा पहले सभी सदस्य जमीन पर पालथी मार कर ही बैठते और भोजन का सामूहिक आनंद लिया करते थे. संभव हो कि डाइनिंग टेबल पर भोजन करने का अपना संस्कार हो, अपनी संस्कृति हो पर क्या वह संस्कृति घर, होटल, किसी आयोजन आदि में एकसमान ही रहती है? चलिए, इस पर कुछ खोजबीन के बाद कुछ और कहा-लिखा जायेगा. तब तक हम बच्चन जी की आत्मकथा से निपट लें.



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