25 फ़रवरी 2019

नसैला का भूत और विज्ञान


अपनी नियमित घुमक्कड़ी और मित्रों की बैठकी के बीच आज अचानक से कुछ परिचितों के बीमार होने की चर्चा छिड़ गई. विगत कुछ दिनों से कुछ परिचितों के बीमार होने, कुछ के दुर्घटना में घायल होने, कुछ के इस लोक से चले जाने की खबरें लगातार मिलती रही हैं. परिचितों, जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में ऐसी खबरों का मिलना परेशान कर जाता है. कुछ परिचित लोगों के इस दौरान स्वाइन फ्लू से पीड़ित होने की खबर मिली. इसी बीमारी से एक मित्र का असमय जाना भी हम सभी मित्रों को दुखी कर गया. मित्रों की आपसी चर्चा के दौरान बात उठी कि हम लोग जितना शिक्षित होते जा रहे हैं, चिकित्सा विज्ञान जितना तरक्की करता जा रहा है, उतना ही बीमारियों का विकास भी होता जा रहा है. इसके सापेक्ष ऐसा भी कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे तकनीक का, चिकित्सा विज्ञान का विकास होता गया वैसे-वैसे हम सभी लोग बीमारियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी लेते रहे, उनसे परिचित होते रहे. अन्यथा की स्थिति में कई वर्षों पहले तक बीमारी को किसी न किसी भूत-प्रेत से, किसी न किसी जादू-टोने से, किसी न किसी तंत्र-मन्त्र से जोड़कर देखा जाने लगता था.


इन्हीं बातों के क्रम में हमें अपने बचपन की कई ऐसी बातें याद आईं जिनमें हम लोगों ने भूत-प्रेत से सिर्फ बातों में ही साक्षात्कार किया. हालाँकि हर बार घटित होती किसी भी घटना में सिर्फ बातें ही बातें सामने आती रहीं, किसी बार भी भूत से सामना नहीं हुआ. ऐसी ही एक घटना का जिक्र आज दोस्तों की महफ़िल में हुआ. हमारी ननिहाल जनपद जालौन में ही कुसमरा गाँव में है और उसके जाने के लिए उसके नजदीक के एक अन्य गाँव इटौरा होते हुए जाना पड़ता है. कुसमरा और इटौरा के बीच बहुत ज्यादा दूरी न होने के कारण अक्सर हम बच्चे लोग दिन की मस्ती में दौड़ते-भागते गाँव से इटौरा तक आ जाया करते थे. बम्बा में तैरते हुए, बगीचों में दौड़ लगाते हुए, खेतों की मिट्टी फांकते हुए दिन भर में कितनी बार कुसमरा से इटौरा आना-जाना हो जाया करता था, पता ही नहीं चलता था. उसी रास्ते के बीच एक नामी भूतिया बगीचा पड़ा करता था. दिन की कितनी भी चमकदार रौशनी हो या फिर रात का घना अँधियारा, जब भी उस बगीचे के करीब से निकलना होता तो लगता कि उस बगीचे का वह नामी भूत हम लोगों को अपनी चपेट में लेने को निकल आया है.

नसैला नामक उसी भूत के नाम पर वह बगीचा आज तक प्रसिद्द है. उस समय हम बच्चों की पलटन में चाहे कितने लोग रहें मगर नसैला की बगिया के पास से निकलते ही चलने-दौड़ने की रफ़्तार अपने आप बढ़ जाया करती थी. गाँव के कई लोगों से अजीब-अजीब तरह के किस्से सुन-सुन कर भी नसैला के बारे में कल्पना लोक से न जाने कैसे-कैसे ख्याल दिमाग में आते रहते थे. गाँव के किसी  व्यक्ति को उसने तम्बाकू खिलाई होती थी, किसी से उसने बीड़ी माँग कर पी होती थी, किसी की बैलगाड़ी इसके कारण आगे नहीं बढ़ पा रही होती थी, किसी के कंधे पर कोई आकर बैठ गया होता था, किसी की साईकिल पर बैठने के लिए नसैला ने हाथ दिया होता था. कहने का मतलब, जितने लोग उतनी बातें. अब भी अक्सर अपने ननिहाल जाना होता है. अब नसैला की बगिया भी जिंदा नहीं है और शायद नसैला के भूत भी निधन हो गया है क्योंकि अब उस रास्ते में जाने पर किसी तरह की बगिया नहीं दिखाई देती और गाँव में भी अब कोई नसैला के किस्से नहीं सुनाता है. ऐसा लगता है जैसे आज की भागदौड़ और भीडभाड वाली दुनिया से बचने के लिए नसैला ने कहीं और अपनी दुनिया बना ली है. आज भी नसैला के साथ-साथ उस राजकुमारी की कहानी याद आती है जो तकुआ की सुई लगने से कई सालों के लिए सो गई थी और फिर एक राजकुमार के आने से उसकी नींद टूटी थी. 

चिकित्सा विज्ञान ने हमें इतना पढ़ा-लिखा दिया कि अब इन्सान समझने लगा है कि क्या भूत है, क्या बेहोशी है, क्या डेंगू है, क्या स्वाइन फ्लू है. इसके साथ-साथ इसी विज्ञान ने हम सबके भीतर से आध्यात्मिक, प्राकृतिक, ईश्वरीय डर, श्रद्धा को भी समाप्त किया है. इसने यदि हमें साक्षर बनाया है तो आपस में विद्वेष भी बढ़ाया है. आखिर अब हम पढ़-लिख कर समझने लगे हैं कि ईश्वरीय शक्ति जैसा कुछ नहीं, भगवान जैसा कुछ नहीं जो है सो सब विज्ञान है, सब इन्सान है. इसी ने आपस के प्रेम, सौहार्द्र को समाप्त किया है, आपस में कटुता का विस्तार किया है. अब लगता है इससे बढ़िया तो वह नसैला का भूत था जो इंसानों को भले डराता था मगर उ सबको एकजुट तो रखता था.

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