समय बदलता रहता है, समय के
साथ बहुत कुछ भी बदलता रहता है. यह बदलाव व्यक्तियों में भी दिखाई देता है. यह
अपने आपमें सार्वभौम सत्य है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है मगर किसी के प्रति
स्वभाव में परिवर्तन हो जाना प्राकृतिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता. दिन होना, फिर
रात का आना, सूरज का निकलना और अस्त होना, चाँद का विभिन्न कलाओं से युक्त होना,
वृक्षों का कभी हरियाली ओढ़े दिखाई देना और कभी पुराने पत्तों को त्याग कर फिर-फिर
सजने की तैयारी करना, ऋतुओं का बदलना आदि सबकुछ परिवर्तन के रूप में ही स्वीकार
किया जाता है. इस परिवर्तन से, जो वाकई प्राकृतिक अवस्था में होता है किसी भी
व्यक्ति का मन प्रसन्न हो जाता है. ऐसे परिवर्तन की चाह व्यक्ति स्वयं भी करता है.
इसके अलावा व्यक्तियों की
अपनी इच्छाओं, मानसिकता, शौक आदि में भी समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं. वह
अपने खान-पान, रहन-सहन की स्थिति, पहनावा, कार्य आदि में बदलाव करता रहता है. ऐसा
करने के पीछे उसकी स्थिति उन परिवर्तनों के द्वारा अपने मन-मष्तिष्क को नई ऊर्जा
से भरना होता है. इन परिवर्तनों के द्वारा अपनी मानसिक खुराक को कुछ और सार्थकता
प्रदान करना होता है. एक जैसी स्थिति देखते रहने से, एक जैसी स्थिति के बने रहने
से अक्सर मन-मष्तिष्क परिपूर्णता की स्थिति में आ जाता है. यह स्थिति किसी भी
व्यक्ति में आलस्य का भाव पैदा कर सकता है. उसे अपने आसपास एक तरह की उदासी का
अनुभव होने लगता है. सबकुछ रुका-रुका सा प्रतीत होने लगता है. इसी कारण वह बदलाव
की चाह रखता है. इसी चाह में वह अपने कमरे का स्वरूप, अपने बैठने-उठने की जगह,
सामानों की स्थिति में परिवर्तन आदि करते हुए कुछ न कुछ नवीनता लाने की चेष्टा
करता है.
प्रकृति के और मानवजनित इस
बदलाव का अपना महत्त्व है. इस तरह के बदलाव के द्वारा नवीनता का संचार होता है. एक
तरह की प्रफुल्ल्ति करने वाली स्थिति का अवतरण होता है. ऊर्जा का स्त्रोत अपने
आसपास से आता हुआ, उत्प्रेरक का कार्य सा करता प्रतीत होता है. इन सकारात्मक
बदलाव, परिवर्तनों के सापेक्ष कुछ नकारात्मक बदलाव भी समाज में देखने को मिलते
हैं. ये बदलाव प्राकृतिक न होकर मानवजनित ही होते हैं. ऐसे बदलावों के तौर पर
व्यक्तियों के स्वभाव का बदलना, उनके व्यवहार में परिवर्तन, उनकी बातचीत का ढंग
आदि बदलना प्रमुखता से होता है. ऐसा बहुधा किसी व्यक्ति के द्वारा पद, प्रस्थिति
में धनात्मक परिवर्तन के बाद दिखाई देने लगता है. यह परिवर्तन आपसी संबंधों में,
आपसी रिश्तों में, कार्य-व्यवहार में सहज रूप से दिखाई देने लगता है. सामाजिक
दृष्टि से और मानवीय दृष्टि से ऐसे परिवर्तन घातक होते हैं.
बदलाव के इस दौर में जबकि सदी
बदल चुकी है, लगातार वर्ष बदल रहे हैं, समय बदल रहा है तब प्राकृतिक, मानवजनित
सकारात्मक परिवर्तनों पर मानवीय स्वभाव का नकारात्मक रूप से बदलना भारी पड़ता जा
रहा है. इस बदलाव ने परिवारों को, दोस्ती को, संबंधों को, रिश्तों को बोझिल बनाया
है, उनका ध्वंस किया है, उनको कलंकित किया है. आज ऐसे बदलावों से इन्सान को बचने
की आवश्यकता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें